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सांविधानिक विधि
वादपत्र का नामंजूर किया जाना और भारत के संविधान का अनुच्छेद 227
« »02-May-2025
वलारमथी बनाम कुमारेसन “अनुच्छेद 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालय की शक्ति एक पर्यवेक्षणीय शक्ति है, जिसका प्रयोग इस उद्देश्य से किया जाता है कि उसके अधीनस्थ न्यायालयों एवं अधिकरणों द्वारा विधि द्वारा प्रदत्त अधिकार-क्षेत्र की सीमाओं के भीतर कार्य किया जाए। इस शक्ति का प्रयोग संयमपूर्वक केवल उन्हीं मामलों में किया जाना अपेक्षित है, जहाँ अभिलेख पर प्रत्यक्ष रूप से त्रुटि परिलक्षित हो रही हो, जिससे गंभीर अन्याय की स्थिति उत्पन्न हो रही हो, जैसे कि कोई न्यायालय या अधिकरण ऐसी अधिकारिता ग्रहण कर ले जो उसे प्रदत्त नहीं है, या वह प्रदत्त अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल हो जाए, या वह अपने अधिकारिता का दुरुपयोग अथवा विकृत रूप से प्रयोग करे ।” न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने निर्णय दिया कि उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 227 के अधीन पर्यवेक्षी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए वादपत्र को नामंजूर करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि ऐसा करना विचारण न्यायालय के कार्य क्षेत्र का अतिक्रमण करना होगा, जो विधिसम्मत नहीं है।
उच्चतम न्यायालय ने वलरमाथी बनाम कुमारेसन (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
के. वलरमाथी बनाम कुमारेसन (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अपीलकर्त्ता कथिरेसन (मृतक) के विधिक उत्तराधिकारी (पत्नी और पुत्रियाँ) हैं ।
- कथिरेसन ने अपने जीवनकाल में अपने स्वयं के धन से कुछ नंजा भूमि क्रय की, किंतु ज्योतिषीय परामर्श के आधार पर उसे प्रत्यर्थी (अपने भतीजे) के नाम पर रजिस्ट्रीकृत करा दिया।
- कथिरेसन ने अपने जीवनकाल के दौरान विवादित भूमि पर अपना कब्जा बनाए रखा तथा उनकी मृत्यु के पश्चात् भी अपीलकर्त्ताओं का दावा है कि उनका कब्जा जारी रहा।
- कथिरेसन की मृत्यु के पश्चात्, अपीलकर्त्ताओं और कथिरेसन की बहनों के बीच भूमि के स्वामित्व और अन्य व्यावसायिक हितों को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।
- प्रत्यर्थी, जो कथिरेसन की एक बहन का पुत्र है, ने विवादित भूमि की विक्रय के लिये बातचीत शुरू की।
- इसने अपीलकर्त्ताओं को 2018 के O.S. संख्या 1087 को स्थापित करने के लिये प्रेरित किया, जिसमें प्रत्यर्थी के विरुद्ध वाद की भूमि पर कब्जा करने से स्वामित्व की घोषणा और परिणामी व्यादेश की मांग की गई।
- अपीलकर्त्ताओं ने कथिरेसन द्वारा परिवार के अन्य सदस्यों के नाम/संयुक्त नाम पर क्रय की गई अन्य जमीनों के संबंध में एक अन्य वाद (O.S. संख्या 201/2018) भी दायर किया।
- प्रत्यर्थी ने संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दोनों वादों में वाद नामंजूर करने की मांग की।
- उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश के माध्यम से, O.S. संख्या 1087/2018 में वाद को इस आधार पर नामंजूर कर दिया कि यह बेनामी संपत्ति लेनदेन निषेध अधिनियम, 1988 द्वारा वर्जित था।
- दूसरे वाद (O.S. संख्या 201/2018) के लिये, उच्च न्यायालय ने कहा कि यह बेनामी अधिनियम के अधीन वर्जित नहीं है और अनुतोष देने से इंकार कर दिया।
- अपीलकर्त्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का प्रयोग करते हुए वाद को नामंजूर करने के उच्च न्यायालय की अधिकारिता को चुनौती दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- अनुच्छेद 227 के अधीन उच्च न्यायालय की शक्ति पर्यवेक्षी प्रकृति की है और इसका प्रयोग यह सुनिश्चित करने के लिये किया जाता है कि उसके अधीक्षण के अधीन आने वाले न्यायालय और अधिकरण विधि द्वारा प्रदत्त अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं के भीतर कार्य करें।
- इस शक्ति का प्रयोग संयमपूर्वक केवल उन्हीं मामलों में किया जाना अपेक्षित है, जहाँ अभिलेख पर प्रत्यक्ष रूप से त्रुटि परिलक्षित हो रही हो, जिससे गंभीर अन्याय की स्थिति उत्पन्न हो रही हो, जैसे कि कोई न्यायालय या अधिकरण ऐसी अधिकारिता ग्रहण कर ले जो उसे प्रदत्त नहीं है, या वह प्रदत्त अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल हो जाए, या वह अपने अधिकारिता का दुरुपयोग अथवा विकृत रूप से प्रयोग करे।
- अनुच्छेद 227 के अधीन शक्ति का सार पर्यवेक्षणात्मक है, इसका प्रयोग उस न्यायालय की मूल अधिकारिता को हड़पने के लिये नहीं किया जा सकता जिसका पर्यवेक्षण वह करना चाहता है।
- इसका प्रयोग सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत उपलब्ध सांविधिक विधिक उपचार के स्थान पर नहीं किया जा सकता।
- संहिता की धारा 96 के अंतर्गत अपीलीय उपचार का अस्तित्व अनुच्छेद 227 के अंतर्गत पर्यवेक्षी अधिकारिता के प्रयोग पर लगभग पूर्ण प्रतिबंध के रूप में कार्य करता है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता एक स्व-निहित संहिता है, जिसमें आदेश 7 नियम 11 में उन विशिष्ट परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें कोई विचारण न्यायालय किसी वादपत्र को नामंजूर कर सकता है।
- किसी वादपत्र को नामंजूर करना एक प्रकार से डिक्री के समान माना जाएगा, जिस पर संहिता की धारा 96 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
- उच्च न्यायालय ने, इस आधार पर कि यह विधि द्वारा वर्जित है, वादपत्र को नामंजूर करके न केवल स्वयं को प्रथम दृष्टया न्यायालय के रूप में प्रतिस्थापित कर लिया, अपितु अपीलकर्त्ता को उपलब्ध अपील के मूल्यवान अधिकार को भी निरर्थक बना दिया।
- न्यायालय ने फ्रॉस्ट (इंटरनेशनल) लिमिटेड बनाम मिलान डेवलपर्स में अपने पहले के निर्णय से अलग हटकर टिप्पणी की कि उसमें की गई टिप्पणियाँ सुसंगत नहीं थीं, क्योंकि वर्तमान मामले में उच्च न्यायालय ने अधिकारिता संबंधी त्रुटि को सुधारने के लिये पर्यवेक्षी शक्ति का प्रयोग नहीं किया था, अपितु मूल अधिकारिता का अतिक्रमण किया था।
- प्रक्रियात्मक विधि आवश्यक विधिक ढाँचा प्रदान करता है, जिस पर विधि के शासन की इमारत खड़ी होती है, और जल्दबाजी में परिणाम प्राप्त करने के लिये प्रक्रिया को छोटा करना विधि में निश्चितता और स्थिरता को नष्ट कर देता है।
- इस मामले में आपराधिक विधि के अधीन कोई अपराध सम्मिलित नहीं था, क्योंकि यह विशुद्ध रूप से संपत्ति के अधिकार और अधिकारिता संबंधी मामलों से संबंधित एक सिविल विवाद था।
वादपत्र की नामंजूरी के संबंध में अनुच्छेद 227 के अधीन उच्च न्यायालय के पर्यवेक्षी अधिकारिता का दायरा और परिसीमा क्या है?
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालय को अपने राज्यक्षेत्रीय अधिकारिता के भीतर सभी अधीनस्थ न्यायालयों और अधिकरणों पर अधीक्षण की शक्ति प्रदान करता है।
- यह पर्यवेक्षी शक्ति एक महत्त्वपूर्ण सांविधानिक सुरक्षा है जो न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करती है और न्यायिक पदानुक्रम में मानकों को बनाए रखती है।
- अनुच्छेद 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालय की अधीक्षण शक्तियों में सम्मिलित हैं:
- अपने अधीक्षण में सभी न्यायालयों और अधिकरणों की देखरेख करना।
- अधीनस्थ न्यायालयों से विवरण मंगाना।
- न्यायालय की कार्यप्रणाली को विनियमित करने के लिये नियम बनाना तथा प्ररूप विहित करना।
- न्यायालय अधिकारियों द्वारा अभिलेख रखने के लिये प्ररूप विहित करना।
- न्यायालय अधिकारियों और विधिक व्यवसायियों के लिये फीसों की सारणियां विहित करना।
- इन शक्तियों के साथ परिसीमाएं भी जुड़ी हैं, जिनमें सम्मिलित हैं:
- बनाए गए कोई भी नियम तत्समय प्रवृत्त विधि के उपबंध से असंगत नहीं होने चाहिये।
- नियमों, प्रारूपों और फीसों की सारणियां के लिये राज्यपाल का अनुमोदन आवश्यक है।
- उच्च न्यायालय का सैन्य अधिकरणों पर कोई अधीक्षण नहीं है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के संबंध में, इसमें वादपत्र को नामंजूर करने के लिये आधार उपबंधित किये गए हैं, जिनमें सम्मिलित हैं:
- जहाँ वह वाद-हेतुक प्रकट करने में असफलता।
- समय के भीतर सुधार न किये जाने के कारण अनुतोष का कम मूल्यांकन।
- अपर्याप्त न्यायालय स्टाम्प-पत्र तथा समय पर सुधार न किया जाना।
- जब वाद किसी विधि द्वारा वर्जित प्रतीत होता है।
- जहाँ यह दो प्रतियों में फाइल नहीं किया जाता है।
- नियम 9 के उपबंधों का अनुपालन न करना।
- के. अकबर अली बनाम उमर खान (2021) में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि ये आधार संपूर्ण नहीं हैं, और न्यायालय अन्य उपयुक्त आधारों पर भी वादपत्रों को नामंजूर कर सकती हैं।
- वादपत्र को नामंजूर करने की शक्ति एक प्रारंभिक जांच तंत्र है, जो न्यायालयों को विधिक रूप से अस्थिर मामलों को शुरू में ही छांटने में सहायता करती है, जबकि अनुच्छेद 227 के अधीन उच्च न्यायालय की पर्यवेक्षी अधिकारिता, न्यायिक प्रणाली में न्याय के समुचित प्रशासन को सुनिश्चित करने के लिये एक सांविधानिक सुरक्षा के रूप में कार्य करता है ।