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सांविधानिक विधि
प्रतिकूलता का सिद्धांत
« »23-Jan-2024
परिचय:
प्रतिकूलता किसी कानून के दो या दो से अधिक भागों के बीच एक असंगति या विरोधाभास है।
- प्रतिकूलता का सिद्धांत कानून के दो भागों के बीच संघर्ष से संबंधित है जो समान तथ्यों पर लागू होने पर भिन्न परिणाम उत्पन्न करता है।
प्रतिकूलता का सिद्धांत क्या है?
- प्रतिकूलता के सिद्धांत की अवधारणा भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 254 में निहित है।
- COI का अनुच्छेद 254 संसद द्वारा बनाए गए कानूनों और राज्यों के विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों के बीच असंगति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
- यदि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि का कोई उपबंध संसद द्वारा बनाई गई विधि के, जिसे अधिनियमित करने के लिये संसद सक्षम है, किसी उपबंध के या समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के संबंध में विद्यमान विधि के किसी उपबंध के विरुद्ध है तो खंड (2) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, यथास्थिति, संसद द्वारा बनाई गई विधि, चाहे वह ऐसे राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि से पहले या उसके बाद में पारित की गई हो, या विद्यमान विधि, अभिभावी होगी और उस राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि उस विरोध की मात्रा तक शून्य होगी।
- जहाँ राज्य के विधान-मंडल द्वारा समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के संबंध में बनाई गई विधि में कोई ऐसा उपबंध अंतर्विष्ट है जो संसद द्वारा पहले बनाई गई विधि के या उस विषय के संबंध में किसी विद्यमान विधि के उपबंधों के विरुद्ध है तो यदि ऐसे राज्य के विधान-मंडल द्वारा इस प्रकार बनाई गई विधि को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखा गया है और उस पर उसकी अनुमति मिल गई है तो वह विधि उस राज्य में अभिभावी होगी।
- परंतु, इस खंड की कोई बात संसद को उसी विषय के संबंध में कोई विधि, जिसके अंतर्गत ऐसी विधि है, जो राज्य के विधान-मंडल द्वारा इस प्रकार बनाई गई विधि का परिवर्धन, संशोधन, परिवर्तन या निरसन करती है, किसी भी समय अधिनियमित करने से निवारित नहीं करेगी।
- इस सिद्धांत को संसद और राज्य विधानसभाओं की शक्तियों के बीच इस प्रतिकूलता को हल करने के लिये एक तंत्र के रूप में शामिल किया गया था।
- यह सिद्धांत COI की अर्द्ध-संघीय संरचना को दर्शाता है। इसने असंगतियों और संघर्षों से बचने के लिये संसद एवं राज्य विधानमंडल की शक्तियों को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया है।
प्रतिकूलता के सिद्धांत हेतु क्या शर्तें हैं?
- किसी भी प्रतिकूलता के उत्पन्न होने से पहले जिन शर्तों को पूर्ण किया जाना चाहिये, वे इस प्रकार हैं:
- केंद्रीय अधिनियम और राज्य अधिनियम के बीच स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष असंगति।
- असंगति बिल्कुल परस्पर विरोधी होती है।
- दोनों अधिनियमों के प्रावधानों के बीच असंगति इस प्रकार की है कि दोनों अधिनियम एक-दूसरे के साथ सीधे टकराव में आ जाते हैं और ऐसी स्थिति आ जाती है जहाँ दूसरे की अवज्ञा किये बिना एक का पालन करना असंभव हो जाता है।
प्रतिकूलता के सिद्धांत के ऐतिहासिक निर्णयज विधि क्या हैं?
- एम. करुणानिधि बनाम भारत संघ (1979):
- इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकूलता के परीक्षण को संक्षेप में प्रस्तुत किया और प्रतिकूलता को इस प्रकार परिभाषित किया:
- जहाँ समवर्ती सूची में एक केंद्रीय अधिनियम एवं एक राज्य अधिनियम के प्रावधान पूरी तरह से असंगत होते हैं और परस्पर विरोधी होते हैं, वहाँ केंद्रीय अधिनियम अभिभावी होगा, और प्रतिकूलता को ध्यान में रखते हुए राज्य अधिनियम शून्य हो जाएगा।
- हालाँकि, जहाँ राज्य द्वारा पारित कानून समवर्ती सूची में प्रविष्टि पर संसद द्वारा पारित कानून के साथ टकराव में आता है, राज्य अधिनियम प्रतिकूलता की सीमा तक अभिभावी होगा और केंद्रीय अधिनियम के प्रावधान शून्य हो जाएँगे, बशर्ते राज्य अधिनियम अनुच्छेद 254 के खंड (2) के अनुसार पारित किया गया है।
- जहाँ राज्य सूची में प्रविष्टियों के दायरे में रहते हुए राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कोई कानून केंद्रीय सूची में किसी भी प्रविष्टि पर लागू होता है, तो कानून की संवैधानिकता को तत्त्व और सार के सिद्धांत को लागू करके बरकरार रखा जा सकता है यदि अधिनियम के प्रावधानों के विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि कुल मिलाकर कानून राज्य सूची के चारों कोनों के अंतर्गत आता है और यदि कोई रुकावट है, तो वह पूरी तरह से आकस्मिक या अप्रासंगिक है।
- हालाँकि, जहाँ समवर्ती सूची में शामिल किसी विषय पर राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून संसद द्वारा बनाए गए पिछले कानून से असंगत और प्रतिकूल है, तो ऐसे कानून को संविधान के अनुच्छेद 254(2) के तहत राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त करके संरक्षित किया जा सकता है। राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त करने का परिणाम यह होगा कि जहाँ तक राज्य अधिनियम का संबंध है, यह राज्य में लागू होगा और केंद्रीय अधिनियम के प्रावधानों को केवल राज्य पर लागू होने से खारिज़ कर देगा।
- इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकूलता के परीक्षण को संक्षेप में प्रस्तुत किया और प्रतिकूलता को इस प्रकार परिभाषित किया:
- भारत हाइड्रो पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम असम राज्य (2004):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि दो अधिनियम एक-दूसरे का अतिक्रमण किये बिना अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हैं, तो वहाँ कोई प्रतिकूलता नहीं होगी।
- दीप चंद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1959):
- इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि केंद्र और राज्य दोनों कानून एक ही क्षेत्र में थे, राज्य कानून को प्रतिकूलता की सीमा तक शून्य माना गया, इस स्थिति में केंद्रीय कानून अभिभावी होगा।