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आपराधिक कानून

ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2012)

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 08-May-2025

परिचय

  • यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया है कि यदि पक्षकार किसी समझौते पर पहुँच गए हैं तो CrPC की धारा 482 के अंतर्गत कार्यवाही कब रद्द की जा सकती है। 
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति आर.एम. लोढ़ा, न्यायमूर्ति अनिल आर. दवे एवं न्यायमूर्ति सुधांशु ज्योति मुखोपाध्याय की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ ने दिया।

तथ्य   

  • ज्ञान सिंह को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 (छल) एवं 120 B (आपराधिक षड्यंत्र) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा दोषी माना गया था।
  • जबकि उनकी अपील सत्र न्यायाधीश के समक्ष लंबित थी, ज्ञान सिंह ने अपराध के शमन करने के लिये एक आवेदन दायर किया, जिस पर मुख्य अपील के साथ विचार करने का निर्देश दिया गया।
  • ज्ञान सिंह ने अपराध को कम करने के आधार पर FIR को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अंतर्गत एक याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया, जिसके कारण ज्ञान सिंह ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका दायर की।
  • विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई कर रही दो न्यायाधीशों की पीठ (न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू एवं ज्ञान सुधा मिश्रा) ने उच्चतम न्यायालय के तीन पूर्व निर्णयों की सत्यता पर संदेह जताया, जिनमें अप्रत्यक्ष रूप से गैर-शमनीय अपराधों के शमन की अनुमति दी गई थी।
  • पीठ ने कहा कि जहाँ IPC की धारा 420 (छल) न्यायालय की अनुमति से शमनीय है, वहीं IPC की धारा 120 B (आपराधिक षड्यंत्र) गैर-शमनीय है।
  • पीठ ने यह विचार व्यक्त किया कि जो कार्य सीधे नहीं किया जा सकता, उसे अप्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता और गैर-शमनीय अपराधों को न्यायालय द्वारा शमनीय नहीं होने दिया जाना चाहिये।
  • मामले को तीन पूर्व निर्णयों  (बी.एस. जोशी बनाम हरियाणा राज्य, निखिल मर्चेंट बनाम केंद्रीय जाँच ब्यूरो और मनोज शर्मा बनाम राज्य) की सत्यता पर पुनर्विचार करने के लिये एक बड़ी पीठ को भेजा गया।
  • इस मामले में संहिता की धारा 320 (जो कुछ अपराधों के शमन का प्रावधान करती है) और धारा 482 (जो उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति को बचाती है) के बीच संबंधों पर विचार किया गया।
  • बड़ी पीठ को यह निर्धारित करने का कार्य सौंपा गया था कि क्या उच्च न्यायालय धारा 482 के अंतर्गत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग गैर-शमनीय अपराधों से संबंधित आपराधिक कार्यवाही के अभिखण्डन के लिये कर सकता है, जब पक्षकार किसी समझौते पर पहुँच गए हों। 

शामिल मुद्दे  

  • क्या उच्च न्यायालय, पक्षकारों के बीच समझौता हो जाने पर, गैर-शमनीय अपराधों से संबंधित आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये CrPC की धारा 482 के अंतर्गत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग कर सकता है?

टिप्पणी 

  • न्यायालय ने पुष्टि की कि अपने अंतर्निहित अधिकारिता (धारा 482) के अंतर्गत आपराधिक कार्यवाही के अभिखंडन की उच्च न्यायालय की शक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 के अंतर्गत अपराधों के शमन करने की शक्ति से भिन्न है। 
  • न्यायालय ने माना कि अंतर्निहित शक्ति, बिना किसी सांविधिक सीमा की परिधि में व्यापक होने के बावजूद, दो दिशानिर्देशों के अनुसार प्रयोग की जानी चाहिये: न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये या न्यायालयी प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि पक्षों के बीच समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का निर्णय प्रत्येक मामले के विशिष्ट तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिये। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि हत्या, बलात्संग एवं डकैती जैसे जघन्य एवं गंभीर अपराधों को तब भी अभिखंडित नहीं किया जा सकता, जब पीड़ित एवं अपराधी ने अपने विवाद को सुलझा लिया हो, क्योंकि इन अपराधों का समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
  • इसी तरह, न्यायालय ने माना कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम जैसे विशेष विधानों के अंतर्गत अपराध या लोक सेवकों द्वारा किये गए अपराधों को समझौते के आधार पर अभिखंडित नहीं किया जा सकता। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य को पृथक किया कि "अत्यधिक एवं मुख्य रूप से सिविल प्रकृति वाले आपराधिक मामलों को अभिखंडित करने के उद्देश्यों के लिये पृथक माना जा सकता है। 
  • न्यायालय ने निर्दिष्ट किया कि वाणिज्यिक, वित्तीय, वैवाहिक या पारिवारिक विवादों से उत्पन्न होने वाले अपराध, जहाँ कारित चूक या कृत्य मुख्य रूप से निजी प्रकृति की है, को अभिखंडित किया जा सकता है, यदि पक्षों ने अपने विवाद को पूरी तरह से सुलझा लिया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में, उच्च न्यायालय कार्यवाही को अभिखंडित कर सकता है यदि यह निर्धारित करता है कि दोषसिद्धि की संभावना बहुत कम है और मामले को जारी रखने से अभियुक्त के साथ अत्यधिक अन्याय होगा। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि बी.एस. जोशी, निखिल मर्चेंट एवं मनोज शर्मा के पूर्व निर्णय युक्तियुक्त ढंग से तय किये गए थे तथा उन पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं थी। 
  • न्यायालय ने निर्देश दिया कि इस स्पष्टीकरण के आलोक में आगे की कार्यवाही के लिये मामलों को संबंधित पीठों के समक्ष सूचीबद्ध किया जाए। 

निष्कर्ष 

  • ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण स्थापित किया कि जघन्य अपराधों को समझौते के बावजूद खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन मुख्य रूप से सिविल प्रकृति वाले आपराधिक मामलों को न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये CrPC की धारा 482 के अंतर्गत खारिज किया जा सकता है। 
  • इस ऐतिहासिक निर्णय ने पक्षों के बीच समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को खारिज करने में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के दायरे को स्पष्ट कर दिया।