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सिविल कानून

पश्चात्वर्ती क्रेता आवश्यक पक्ष नहीं

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 05-May-2025

मेसर्स जे.एन. रियल एस्टेट बनाम शैलेन्द्र प्रधान एवं अन्य

“स्वर्गीय श्री समीर घोष एवं मूल प्रतिवादी संख्या 8 (अपीलकर्त्ता) के बीच हुए संव्यवहार की सुनवाई के दौरान जाँच की जाएगी, तथा हम इस चरण में इसके गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त करने से बचते हैं। हालाँकि, हम पाते हैं कि विवाद के उचित एवं प्रभावी निर्णय के लिये वाद में अपीलकर्त्ता की उपस्थिति आवश्यक है, विशेषकर तब जब मूल वादी ने मूल प्रतिवादी संख्या 8 को पक्षकार बनाए जाने पर कोई आपत्ति नहीं की है”

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने माना है कि किसी विनिर्दिष्ट पालन वाद में पश्चात्वर्ती क्रेता आवश्यक पक्ष नहीं है, लेकिन यदि निर्णय से उसके अधिकार प्रभावित होते हों तो उसे उचित पक्ष के रूप में पक्ष बनाया जा सकता है।

  • उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स जे. एन. रियल एस्टेट बनाम शैलेन्द्र प्रधान एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

मेसर्स जे. एन. रियल एस्टेट बनाम शैलेन्द्र प्रधान एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता उदित नारायण सिंह मालपहाड़िया ने राजस्व कार्यवाही को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की। 
  • मामला कुछ भूमि राजस्व मामलों से संबंधित था, जहाँ राजस्व बोर्ड, बिहार ने पक्षों के अधिकारों को प्रभावित करने वाला एक आदेश पारित किया था। 
  • अपीलकर्त्ता ने कुछ पक्षों को पक्षकार नहीं बनाया था, जिनके हित राजस्व बोर्ड के समक्ष कार्यवाही से सीधे प्रभावित थे। 
  • प्रश्न यह उठा कि क्या ऐसे पक्षों को अधिकरण द्वारा पारित आदेश को रद्द करने के लिये रिट कार्यवाही में शामिल होना आवश्यक था। 
  • इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट याचिकाओं के लिये प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का निर्धारण शामिल था। 
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि रिट याचिका के निर्णय के लिये सभी प्रभावित पक्षों का शामिल होना अनिवार्य नहीं था।
  • प्रतिवादी, अतिरिक्त सदस्य, राजस्व बोर्ड, बिहार ने कहा कि जिन पक्षों के अधिकार सीधे प्रभावित होंगे, वे आवश्यक पक्ष हैं। 
  • इस मामले में कोई कथित अपराध शामिल नहीं था क्योंकि यह पूरी तरह से राजस्व मामलों से संबंधित एक सिविल कार्यवाही थी। 
  • आवश्यक पक्षों के शामिल न होने के आधार पर रिट याचिका को खारिज करने के उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील पर मामला उच्चतम न्यायालय पहुँचा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि आवश्यक या उचित पक्षों पर विधि द्वारा सुस्थापित न्यायशास्त्र है। न्यायालय ने माना कि आवश्यक पक्ष वह है जिसके बिना कोई प्रभावी आदेश नहीं दिया जा सकता। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि उचित पक्ष वह है जिसकी उपस्थिति, हालाँकि प्रभावी आदेश के लिये आवश्यक नहीं है, लेकिन पूर्ण न्यायनिर्णयन के लिये आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने कहा कि न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्यों का प्रयोग करने वाला अधिकरण किसी भी पक्ष के अधिकारों के विरुद्ध उन्हें सुनवाई का अवसर दिये बिना निर्णय नहीं ले सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार प्रभावित पक्षों की सुनवाई की जानी चाहिये, भले ही विशेष विधि या नियम स्पष्ट रूप से इसके लिये प्रावधान न करते हों। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रभावित पक्षों की सुनवाई के बिना दिया गया कोई भी आदेश प्रारंभतः अमान्य होगा।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रभावित पक्षों की सुनवाई के बिना दिया गया कोई भी आदेश प्रारंभतः अमान्य होगा। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि उत्प्रेषण रिट में, उच्च न्यायालय सफल पक्ष के समक्ष उपस्थित हुए बिना किसी आदेश को निरस्त नहीं कर सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि आवश्यक पक्षों की पीठ पीछे जारी किये गए आदेशों को उक्त पक्षों द्वारा अनदेखा किया जा सकता है, जिससे कार्यवाही अप्रभावी हो जाती है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जिन पक्षों के हित सीधे प्रभावित होते हैं, वे रिट याचिका में आवश्यक पक्ष हैं। 
  • न्यायालय ने माना कि उचित पक्षों को पक्ष बनाना प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के आधार पर उच्च न्यायालय के न्यायिक विवेक के अधीन है। 
  • न्यायालय ने कहा कि कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ क्योंकि मामला आपराधिक कार्यवाही के बजाय प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं से संबंधित था।

आवश्यक पक्षकार क्या है?

  • आवश्यक पक्षकार वह होता है जिसकी उपस्थिति सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश I नियम 10(2) के अंतर्गत वाद के निर्णय के लिये आवश्यक होती है। 
  • आवश्यक पक्षकार वह होता है जिसके बिना न्यायालय द्वारा कोई प्रभावी आदेश या डिक्री पारित नहीं की जा सकती। 
  • कार्यवाही के परिणाम से आवश्यक पक्षों के अधिकार एवं हित प्रत्यक्षतः एवं बहुत हद तक प्रभावित होते हैं। 
  • न्यायालय आवश्यक पक्षों की अनुपस्थिति में उनके अधिकारों को प्रभावित करने वाले मामलों पर निर्णय नहीं ले सकता। 
  • आवश्यक पक्षकार की अनुपस्थिति में पारित कोई भी आदेश या डिक्री ऐसे पक्षकार के विरुद्ध प्रारंभतः अमान्य एवं अप्रवर्तनीय है।
  • न्यायालय को आदेश I नियम 10(2) के तहत कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी व्यक्ति को पक्षकार के रूप में जोड़ने का अधिकार है, जिसकी उपस्थिति वाद में शामिल सभी प्रश्नों पर प्रभावी एवं पूर्ण रूप से निर्णय लेने के लिये आवश्यक है।
  • आवश्यक पक्षों का जुड़ना केवल प्रक्रियात्मक नहीं है, बल्कि प्रभावी डिक्री पारित करने के लिये न्यायालय की अधिकारिता के मूल तक जाता है।
  • किसी पक्ष की आवश्यकता है या नहीं, इसका निर्धारण इस तथ्य पर निर्भर करता है कि मांगे गए अनुतोष के लिये उस पक्ष की विधिक उपस्थिति अपरिहार्य है या नहीं।
  • ऑडी अल्टरम पार्टम का सिद्धांत यह अनिवार्य करता है कि किसी व्यक्ति के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाला जाएगा, जब तक कि उसे सुनवाई का अवसर न दिया जाए।
  • न्यायालय यह सुनिश्चित करने के लिये बाध्य है कि मामले के निर्णय के साथ आगे बढ़ने से पहले सभी आवश्यक पक्ष उसके समक्ष हों।
  • यदि आवश्यक पक्ष को पक्षकार नहीं बनाया जाता है, तो वह पूरी कार्यवाही को निष्फल कर सकता है या मुकदमेबाजी की बहुलता को जन्म दे सकता है।
  • आवश्यक पक्ष का निर्धारण करने का परीक्षण यह है कि क्या अनुतोष का अधिकार ऐसे पक्ष की उपस्थिति या अनुपस्थिति से प्रत्यक्षतः एवं पर्याप्त रूप से प्रभावित होता है।