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सिविल कानून

परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 14

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 06-May-2025

श्री अरुण कुमार जिंदल एवं अन्य बनाम श्रीमती रजनी पोद्दार एवं अन्य

"इस विषय में संदेह कि निर्णय लेने की अधिकारिता किसके पास है, कई मध्यस्थता कार्यवाही में बाधा उत्पन्न कर सकता है, भटकाव उत्पन्न कर सकता है तथा विलंब कर सकता है।"

न्यायमूर्ति बिभास रंजन डे

स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बिभास रंजन डे की पीठ ने कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 14, उस समय सीमा अवधि की रक्षा करती है जब अधिकारिता संबंधी दोषों के कारण कार्यवाही वापस ले ली जाती है।

  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने श्री अरुण कुमार जिंदल एवं अन्य बनाम श्रीमती रजनी पोद्दार एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

श्री अरुण कुमार जिंदल एवं अन्य बनाम श्रीमती रजनी पोद्दार एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • राधा कृष्ण पोद्दार (डिक्री धारकों के पूर्ववर्ती) ने 22 दिसंबर, 2001 को एक मध्यस्थता पंचाट को निष्पादित करने के लिये निष्पादन कार्यवाही (2002 की संख्या 9) आरंभ की। 
  • राधा कृष्ण पोद्दार का 24 अगस्त, 2014 को निधन हो गया तथा 30 अक्टूबर, 2014 को मामले में विपरीत पक्षों (विधिक उत्तराधिकारियों) को प्रतिस्थापित किया गया। 
  • वर्ष 2018 में, विपरीत पक्षों को प्रतीत हुआ कि सिविल जज के पास इस मामले पर कोई अधिकारिता नहीं था और परिणामस्वरूप उन्होंने कार्यवाही वापस ले ली। 
  • उन्होंने जिला न्यायाधीश, अलीपुर के समक्ष एक नया निष्पादन मामला (2018 की संख्या 535) दायर किया, जिसे बाद में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश को स्थानांतरित कर दिया गया। 
  • इस निष्पादन कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, याचिकाकर्त्ताओं (पंचाट देनदारों) ने डिक्री के निष्पादन पर प्रश्न करते हुए सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 47 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया।
  • निष्पादन न्यायालय ने इस आवेदन को खारिज कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान पुनरीक्षण आवेदन प्रस्तुत किया गया।

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?

  • याचिकाकर्त्ताओं ने तीन आधारों पर कार्यवाही को चुनौती दी:
  • विलंब के कारण मध्यस्थता पंचाट लागू नहीं हो पाया।
  • मध्यस्थ की अनुचित नियुक्ति।
  • मध्यस्थता करार का अभाव।
  • न्यायालय ने माना कि परिसीमा अधिनियम 1963 (LA) की धारा 14, अधिकारिता संबंधी दोषों के कारण कार्यवाही वापस लेने पर परिसीमा अवधि की रक्षा करती है। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि निष्पादन कार्यवाही के दौरान मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देना स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि ऐसी चुनौतियाँ माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 12 से लेकर 16 के अंतर्गत मध्यस्थता कार्यवाही के दौरान की जानी चाहिये। 
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि मध्यस्थता करार के अस्तित्व के विषय में प्रश्न मध्यस्थ अधिकरण के समक्ष या न्यायालयी कार्यवाही के दौरान प्रारंभिक चरण में किये जाने चाहिये, निष्पादन के दौरान नहीं।
  • न्यायालय ने पाया कि पहले के निष्पादन मामले को वापस लेना उचित था, जिसमें अधिकारिता संबंधी मुद्दों के कारण उचित मंच के समक्ष दायर करने के लिये एक विशिष्ट प्रार्थना थी। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम एक पूर्ण संहिता है, तथा CPC की धारा 47 के प्रावधानों का इस अधिनियम के अंतर्गत निष्पादन कार्यवाही में सीमित अनुप्रयोग है। 
  • न्यायालय ने संशोधन आवेदन को खारिज कर दिया, जिसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं पाया गया।

LA की धारा 14 क्या है?

  • किसी वाद के लिये परिसीमा अवधि की गणना करते समय, वह समय जिसके दौरान वादी उसी मामले के लिये उसी प्रतिवादी के विरुद्ध एक और सिविल कार्यवाही को तत्परता से आगे बढ़ा रहा था, उसे बाहर रखा जाएगा, अगर वह कार्यवाही सद्भावनापूर्वक किसी ऐसे न्यायालय में दायर की गई थी, जिसके पास अधिकारिता नहीं थी। 
  • इसी तरह, आवेदनों के लिये, उसी राहत के लिये उसी पक्ष के विरुद्ध एक और दीवानी कार्यवाही को आगे बढ़ाने में बिताया गया समय बाहर रखा जाएगा, अगर वह कार्यवाही सद्भावनापूर्वक किसी ऐसे न्यायालय में दायर की गई थी, जिसके पास अधिकारिता नहीं था। 
  • यह प्रावधान न्यायालय की अनुमति से दायर किये गए नए वाद पर भी लागू होता है, जब मूल वाद अधिकारिता संबंधी दोषों के कारण विफल हो गया हो। 
  • अपवर्जन समयावधि की गणना करते समय, जिस दिन मूल कार्यवाही आरंभ हुई थी तथा जिस दिन यह समाप्त हुई थी, दोनों को गिना जाता है। 
  • एक वादी या आवेदक जो अपील का विरोध कर रहा है, उसे इस खंड के प्रयोजनों के लिये कार्यवाही का अभियोजन करने वाला माना जाता है। 
  • इस प्रावधान के तहत पक्षों या कार्यवाही के कारणों का दोषपूर्ण संयोजन अधिकारिता संबंधी दोष के तुल्य माना जाता है। 
  • यह धारा अनिवार्यतः उन वादियों की रक्षा करती है, जिन्होंने सद्भावनापूर्वक गलत न्यायालय में मामला दायर किया है, तथा उन्हें सही न्यायालय में मामला दायर करने के लिये परिसीमा अवधि की गणना करते समय उस समय को छोड़ने की अनुमति देती है।