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महत्त्वपूर्ण निर्णय
जनवरी 2024
« »21-Mar-2024
Lateef & Anr. v. Shabbir Ahmad & Ors.
आसमा लतीफ एवं अन्य बनाम शब्बीर अहमद एवं अन्य
निर्णय /आदेश की तिथि – 12.01.2024 पीठ की संख्या – 3 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, दीपांकर दत्ता एवं अरविंद कुमार |
मामला संक्षेप में:
- यह मुकदमा अपीलकर्त्ताओं को उनकी परदादी द्वारा उपहार में दी गई संपत्ति से संबंधित था।
- अपने वाद के प्रत्युत्तर में, तीन प्रतिवादियों में से दो ने लिखित बयान दाखिल नहीं किया जिसके परिणामस्वरूप ट्रायल कोर्ट ने उनके विरुद्ध निर्णय सुनाया।
- उच्चतम न्यायालय उस परिदृश्य से निपट रहा था, जहाँ प्रतिवादी लिखित बयान प्रस्तुत करने में विफल रहता है।
निर्णय:
उच्चतम न्यायालय ने किसी वाद के रखरखाव के विषय पर प्रश्न के निर्धारण के बिना अंतरिम बेल के अनुदान संबंधित निम्नलिखित निर्देश दिये:
- प्रथम दृष्टया संतुष्टि की रिकार्डिंग:
- जहाँ सिविल न्यायालय के समक्ष किसी वाद में अंतरिम अनुतोष का दावा किया जाता है और ऐसे अनुतोष के अनुदान से प्रभावित होने वाला पक्षकार, या वाद का कोई अन्य पक्षकार, इसकी स्थिरता का मुद्दा उठाता है या यह कि यह कानून द्वारा वर्जित है और इस आधार पर भी तर्क देता है कि अंतरिम अनुतोष नहीं दिया जाना चाहिये, किसी भी रूप में अनुतोष देने से पूर्व, यदि संभव हो, तो कम-से-कम एक प्रथम दृष्टया संतुष्टि का गठन और रिकॉर्डिंग की जानी चाहिये, जो स्पष्ट करे कि मुकदमा संधार्य है या यह कानून द्वारा वर्जित नहीं है।
- धारणा पर अंतरिम राहत देना:
- किसी न्यायालय के लिये रखरखाव (Maintainability) के सवाल पर अपनी प्रथम दृष्टया संतुष्टि दर्ज करने से बचना अनुचित होगा, फिर भी इस धारणा के संदर्भ में सुरक्षा प्रोटेम देना चाहिये कि रखरखाव के सवाल को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XIV के नियम 2 के तहत प्रारंभिक मुद्दे के रूप में तय किया जाना है।
- यह शक्ति का अनुचित प्रयोग हो सकता है।
- किसी न्यायालय के लिये रखरखाव (Maintainability) के सवाल पर अपनी प्रथम दृष्टया संतुष्टि दर्ज करने से बचना अनुचित होगा, फिर भी इस धारणा के संदर्भ में सुरक्षा प्रोटेम देना चाहिये कि रखरखाव के सवाल को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XIV के नियम 2 के तहत प्रारंभिक मुद्दे के रूप में तय किया जाना है।
- असाधारण स्थितियों में उचित आदेश:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि कोई असाधारण स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ मुकदमे की स्थिरता के बिंदु पर निर्णय लेने में समय लग सकता है और ऐसे निर्णय के लंबित रहने तक सुरक्षा न देने से अपरिवर्तनीय परिणाम हो सकते हैं, तो न्यायालय उचित आदेश देने की दिशा में अग्रसर हो सकता है। ऊपर बताए गए तरीके से की गई कार्रवाई को उचित ठहराया जा सकता है।
- दूसरे शब्दों में यदि आवश्यक हो तो राहत का दावा करने वाले पक्ष को अपूरणीय क्षति या चोट या अनुचित कठिनाई से बचाने के लिये और/या यह सुनिश्चित करने के लिये कि गैर-हस्तक्षेप के कारण कार्यवाही निष्फल न हो जाए, ऐसा आदेश पारित किया जा सकता है।
- लिखित बयान दाखिल करने में विफलता:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "सभी मामलों में वादी द्वारा दिये गए तथ्यों को खंडित करने वाला लिखित बयान दाखिल करने में प्रतिवादी की विफलता या उपेक्षा, उसे अपने पक्ष में निर्णय का हकदार नहीं बना सकती है, जब तक कि तथ्य एकत्रित करके वह अपना दावा सिद्ध न कर दे"।
- उच्चतम न्यायालय ने इस अपील को खारिज़ कर दिया।
विधिक प्रावधान:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश-VIII का नियम 10: न्यायालय द्वारा अपेक्षित लिखित कथन को उपस्थित करने में पक्षकार का असफल रहना—
- जब न्यायालय द्वारा अपेक्षित लिखित कथन को उपस्थित करने में पक्षकार असफल रहता है, तब प्रक्रिया- जहाँ ऐसा कोई पक्षकार, जिससे नियम 1 या नियम 9 के अधीन लिखित कथन अपेक्षित है, उसे, न्यायालय द्वारा, यथास्थिति, अनुज्ञात या नियत समय के भीतर उपस्थित करने में असफल रहता है, वहाँ न्यायालय, उसके विरूद्ध निर्णय सुनाएगा या वाद के संबंध में ऐसा आदेश करेगा, जो वह ठीक समझे और ऐसा निर्णय सुनाए जाने के पश्च्यात डिक्री तैयार की जाएगी।]
- बशर्ते कि कोई भी न्यायालय लिखित बयान दाखिल करने के लिये इस आदेश के नियम 1 के तहत प्रदान किये गए समय को बढ़ाने का आदेश नहीं देगा।
संजय उपाध्याय बनाम आनंद दुबे
Sanjay Upadhya v. Anand Dubey
निर्णय/आदेश की तिथि – 29.01.2024 पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और संदीप मेहता |
मामला संक्षेप में:
- शिकायतकर्त्ता द्वारा दर्ज IPC की धारा 500 के तहत अभियोजन का सामना कर रहे आरोपी (अपीलकर्त्ता) ने तत्काल अपील दायर की।
- कथित तौर पर अपीलकर्त्ता, 'संडे ब्लास्ट' अखबार के मालिक ने तथ्यों की पुष्टि किये बिना एक मानहानि वाला लेख प्रकाशित किया।
- वर्ष 2017 में मजिस्ट्रेट द्वारा खारिज़ की गई शिकायत के बावजूद, एक पुनरीक्षण प्रक्रिया ने 2018 में इस निर्णय को उलट दिया।
- उच्च न्यायालय में अपीलकर्त्ता की याचिका वर्ष 2020 में खारिज़ कर दी गई।
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि IPC की धारा 500 के तहत, प्रतिवादी-शिकायतकर्त्ता द्वारा दायर शिकायत के अनुसरण में आरोपी अपीलकर्त्ता के खिलाफ की जाने वाली सभी कार्यवाही भी रद्द की जाती हैं"।
- उच्चतम न्यायालय ने अपना निर्णय इस आधार पर लिया कि मामले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए उचित आधार पर खारिज़ किया गया था।
- समाचार में प्रकाशन संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए अच्छी भावना से किया गया था।
- इस प्रकार, अवर न्यायालय का निर्णय न्यायसंगत है, इसमें आगे किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
विधिक प्रावधान:
- IPC की धारा 499:
- धारा 499-मानहानि- जो कोई बोले गये या पढ़े जाने के लिये आशयित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृष्यरुपणों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में लांछन इस आशय से लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि की जाए, या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि होगी, एतस्मिन् पश्चात् अपवादित दशाओं के सिवाय उसके बारे में कहा जाता है कि वह उस व्यक्ति की मानहानि करता है।
- स्पष्टीकरण 1- किसी मृत व्यक्ति को कोई लांछन लगाना मानहानि की कोटि में आ सकेगा यदि वह लांछन उस व्यक्ति की ख्याति की, यदि वह जीवित होता, अपहानि करता, और उसके परिवार या अन्य निकट संबंधियों की भावनाओं को उपहत करने के लिये आशयित हो।
- स्पष्टीकरण 2- किसी कंपनी या संगठन या व्यक्तियों के समूह के संबंध में उसकी वैसी हैसियत में कोई लांछन लगाना मानहानि की कोटि में आ सकेगा।
- स्पष्टीकरण 3- अनुकल्प के रूप में, या व्यंग्योक्ति के रूप में अभिव्यक्त लांछन मानहानि की कोटि में आ सकेगा।
- स्पष्टीकरण 4- कोई लांछन किसी व्यक्ति की ख्याति की अपहानि करने वाला नहीं कहा जाता जब तक कि वह लांछन दूसरों की दृष्टि में प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उस व्यक्ति के सदाचारिक या बौद्धिक स्वरूप को हेय न करे या उस व्यक्ति की जाति के या उसकी आजीविका के संबंध में उसके शील को हेय न करे या उस व्यक्ति की साख को नीचे न गिराए या यह विश्वास न कराए कि उस व्यक्ति का शरीर घृणोत्पादक दशा में है या ऐसी दशा में है जो साधारण रूप से निकृष्ट समझी जाती है।
- IPC की धारा 500:
- मानहानि के लिये दण्ड- जो कोई किसी अन्य व्यक्ति की मानहानि करेगा, वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
बहरुल इस्लाम बनाम इंडियन मेडिकल एसोसिएशन
Baharul Islam v. Indian Medical Association
निर्णय /आदेश की तिथि – 24.01.2024 पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और बी. वी. नागरत्ना |
मामला संक्षेप में:
- वर्तमान अपील और अंतरित मामले 18 सितंबर, 2004 को असम विधानमंडल द्वारा असम अधिनियम के अधिनियमन से प्रेरित हैं।
- इस अधिनियम का उद्देश्य असम में चिकित्सा और ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल (DMR उच्च न्यायालय) में डिप्लोमा धारकों को पंजीकृत करने, ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी प्रैक्टिस को विनियमित करने तथा डिप्लोमा पाठ्यक्रम की पेशकश करने वाले चिकित्सा संस्थानों की निगरानी करने हेतु एक नियामक प्राधिकरण स्थापित करना है।
- इसके बाद असम के चिकित्सा शिक्षा निदेशक ने वर्ष 2005 में जोरहाट मेडिकल इंस्टीट्यूट में मेडिसिन तथा ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल में डिप्लोमा के लिये प्रवेश का विज्ञापन दिया।
- इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, असम राज्य शाखा द्वारा गुवाहटी उच्च न्यायालय के समक्ष दायर एक रिट याचिका में असम अधिनियम और विज्ञापन को चुनौती दी गई।
- चुनौती के बावजूद, इस संस्थान में प्रवेश लिये गए।
- उच्च न्यायालय ने अंततः भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 (IMC अधिनियम) के साथ संघर्ष का हवाला देते हुए असम अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
- परिणामस्वरूप, डिप्लोमा धारकों ने इस फैसले के खिलाफ अपील की।
- इसके अतिरिक्त, असम विधानमंडल ने इस फैसले में उठाए गए मुद्दों को हल करने का प्रयास करते हुए असम सामुदायिक पेशेवर (पंजीकरण और योग्यता) अधिनियम, 2015 पारित किया।
- इस विधि को न्यायालय में चुनौतियाँ दी गईं।
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारत के संविधान, 1950 की सातवीं अनुसूची में सूची III की प्रविष्टि 25 शिक्षा से संबंधित है, जो समवर्ती सूची के अंतर्गत आती है।
- संसद और राज्य विधानमंडल दोनों ही इस विषय पर विधायी क्षमता रखते हैं।
- हालाँकि प्रविष्टि 25, संघ सूची की प्रविष्टि 66 के अधीन है, जो उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थानों में मानकों के समन्वय से संबंधित है।
- प्रविष्टि 25 के अंतर्गत विधि, प्रविष्टि 66 के अंतर्गत आने वाली विधियों के अधीन हैं।
- भारतीय चिकित्सा परिषद (IMC) अधिनियम, 1956, देश भर में चिकित्सा शिक्षा को मानकीकृत करने के लिये संसद द्वारा अधिनियमित कानून है।
- एलोपैथिक चिकित्सा से संबंधित राज्य कानूनों को IMC अधिनियम और उसके नियमों का पालन करना अपेक्षित है।
- इस संबंध में राज्य का कोई भी विरोधाभासी कानून अमान्य है।
- असम ग्रामीण स्वास्थ्य नियामक प्राधिकरण अधिनियम, 2004 को विधायी अतिरेक के कारण अमान्य घोषित कर दिया गया था।
- हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने कहा कि असम सामुदायिक पेशेवर (पंजीकरण और योग्यता) अधिनियम, 2015 वैध है क्योंकि इसमें बिना किसी विरोध के IMC अधिनियम का अनुपालन किया गया है।
- यह सामुदायिक स्वास्थ्य पेशेवरों को राज्य विधानमंडल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले ग्रामीण क्षेत्रों में प्रैक्टिस करने की अनुमति देता है।
- इसके अलावा, अपीलों को खारिज़ करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “विधानमंडल किसी न्यायिक निर्णय को प्रत्यक्ष तौर पर खारिज़ नहीं कर सकता है”। लेकिन जब एक सक्षम विधायिका निर्णय को अप्रभावी बनाने के लिये पूर्वव्यापी रूप से किसी निर्णय के आधार को हटा देती है, तो उक्त प्रैक्टिस एक वैध विधायी अभ्यास है, बशर्ते इससे किसी अन्य संवैधानिक सीमा का उल्लंघन न होता हो।
विधिक प्रावधान:
- प्रविष्टि 66, सूची I (संघ सूची):
- उच्च शिक्षा या अनुसंधान तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी संस्थानों में मानकों का समन्वय एवं निर्धारण।
- प्रविष्टि 25, सूची III (समवर्ती सूची):
- तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और विश्वविद्यालयी शिक्षा, सूची I की प्रविष्टि 63, 64, 65 व 66 के प्रावधानों के अधीन है; श्रमिकों का व्यावसायिक एवं तकनीकी प्रशिक्षण।
नीरज शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य
Neeraj Sharma v. State of Chhattisgarh
निर्णय /आदेश की तिथि – 03.01.2024 पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और सतीश चंद्र शर्मा |
मामला संक्षेप में:
- इस मामले में अपीलकर्त्ताओं ने 12वीं कक्षा के एक छात्र का अपहरण कर लिया था।
- अभियोजन पक्ष के अनुसार, अपहरण फिरौती के लिये किया गया था, और आरोपी द्वारा पीड़ित को मारने का कायरतापूर्ण प्रयास भी किया गया था, हालाँकि, संयोग से पीड़ित बच गया, लेकिन उसे गंभीर चोटें आईं, जिसके कारण अंततः उसका दाहिना पैर काटना पड़ा।
- रात में दोनों अपीलकर्त्ताओं ने मोटरसाइकिल के क्लच तार से शिकायतकर्त्ता की गर्दन दबाकर उसे मारने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप, शिकायतकर्त्ता बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया और अपीलकर्त्ताओं ने यह सोचकर कि शिकायतकर्त्ता मर गया है, उसके शरीर पर पेट्रोल डाला और आग लगा दी।
- शिकायतकर्त्ता भागने में सफल रहा और उसे अस्पताल ले जाया गया।
- ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ताओं को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 364A के तहत अपराध के लिये दोषी ठहराया, जिसे छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा है।
- इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
- अपील को स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया।
आदेश:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अपराध साबित करने के लिये आवश्यक तथ्यों में न केवल व्यपहरण या अपहरण शामिल है, बल्कि उसके बाद फिरौती की मांग के साथ-साथ उस व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा भी होना है, जिसका व्यपहरण या अपहरण किया गया है।
- इसलिये न्यायालय ने IPC की धारा 364A के तहत दोषसिद्धि के निष्कर्षों को धारा 364 के तहत संदर्भित किया।
विधिक प्रावधान:
- IPC की धारा-364: हत्या करने के लिये व्यपहरण या अपहरण-
- जो कोई इसलिये किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करेगा कि ऐसे व्यक्ति की हत्या की जाए या उसको ऐसे व्ययनित किया जाए कि वह अपनी हत्या होने के खतरे में पड़ जाए, वह '[आजीवन कारावास] से या कठिन कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
- IPC की धारा 364 A: मुक्ति-धन आदि के लिये व्यपहरण-
- जो कोई किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करेगा या ऐसे व्यपहरण या अपहरण के पश्चात् ऐसे व्यक्ति को निरोध में रखेगा और ऐसे व्यक्ति को मृत्यु कारित करने या उपहति करने के लिये धमकी देगा या अपने इस आचरण से ऐसी युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न करेगा कि ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है या उपहति की जा सकती है या कोई कार्य करने या कोई कार्य करने से प्रविरत रहने के लिये या मुक्ति धन देने के लिये सरकार 2 या किसी विदेशी राज्य या अंतर्राष्ट्रीय अंतर-सरकारी संगठन या किसी अन्य व्यक्ति] को विवश करने के लिये ऐसे व्यक्ति को उपहति करेगा या मृत्यु कारित करेगा, वह मृत्यु से या आजीवन कारावास से दण्डित किया जाएगा, और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।]
अजीतसिंह चेहुजी राठौड़ बनाम गुजरात राज्य और अन्य।
Ajitsinh Chehuji Rathod v. State of Gujarat & Anr.
निर्णय /आदेश की तिथि – 29.01.2024 पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और संदीप मेहता |
मामला संक्षेप में:
- इस मामले में, अपीलकर्त्ता पर ट्रायल कोर्ट के समक्ष परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के तहत दण्डनीय अपराध के लिये मुकदमा चलाया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया।
- अपीलकर्त्ता ने मुख्य सत्र न्यायाधीश, गांधीनगर के समक्ष अपील दायर की और उसके लंबित रहने के दौरान, उसने अपीलीय चरण में अतिरिक्त साक्ष्य लेने के लिये CrPC की धारा 391 के तहत एक आवेदन दायर किया।
- अपीलकर्त्ता द्वारा दायर किये गए ऐसे आवेदन को संबंधित मुख्य सत्र न्यायाधीश, गांधीनगर द्वारा खारिज़ कर दिया गया था।
- इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक आवेदन दायर किया जिसे खारिज़ कर दिया गया।
- इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज़ कर दिया।
आदेश:
- न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि CrPC की धारा 391 के तहत अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज करने की शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जाना चाहिये, जब ऐसा अनुरोध करने वाले पक्ष को उचित प्रयासों के बावजूद मुकदमे में साक्ष्य प्रस्तुत करने से रोका गया हो, या कि ऐसी प्रार्थना को जन्म देने वाले तथ्य अपील के लंबित रहने के दौरान बाद के चरण में सामने आए, ऐसे साक्ष्यों को दर्ज न करने से न्याय की विफलता हो सकती है।
विधिक प्रावधान:
CrPC की धारा 391- अपीलीय न्यायालय द्वारा अन्य साक्ष्य प्राप्त करने या इससे संबंधित निर्देश देना:
(1) इस अध्याय के अधीन किसी अपील पर विचार करने में यदि अपीलीय न्यायालय अतिरिक्त साक्ष्य आवश्यक समझता है तो वह अपने कारणों को अभिलिखित करेगा और ऐसा साक्ष्य या तो स्वयं ले सकता है, या मजिस्ट्रेट द्वारा, या जब अपीलीय न्यायालय यदि उच्च न्यायालय है तब सेशन न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा, लिये जाने का निदेश दे सकता है।
(2) जब अतिरिक्त साक्ष्य सेशन न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा ले लिया जाता है तब वह ऐसा साक्ष्य प्रमाणित करके अपील न्यायालय को भेजेगा और तब ऐसा न्यायालय अपील का निपटारा करने के लिये अग्रसर होगा।
(3) अभियुक्त या उसके प्लीडर को उस समय उपस्थित होने का अधिकार होगा जब अतिरिक्त साक्ष्य लिया जाता है।
(4) इस धारा के अधीन साक्ष्य का लिया जाना अध्याय 23 के उपबंधों के अधीन होगा, मानो वह कोई जाँच हो।
कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
Kaushal Kishore v. State of Uttar Pradesh
निर्णय /आदेश की तिथि – 29.01.2024 पीठ की संख्या – 5 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यम, एस. अब्दुल नज़ीर, बी.आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना और बी.वी. नागरत्ना बी. आर. गवई और संदीप मेहता |
मामला संक्षेप में:
- 29 जुलाई, 2016 को राष्ट्रीय राजमार्ग 91 पर एक लड़की और उसकी माँ के साथ कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार किया गया था।
- हालाँकि विभिन्न अपराधों के लिये एक FIR दर्ज की गई थी और समाचार पत्रों तथा टेलीविज़न चैनलों ने इस घटना की रिपोर्ट की थी, लेकिन यूपी सरकार के तत्कालीन शहरी विकास मंत्री ने इस घटना के आलोक में प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई तथा इस घटना को राजनीतिक षड़यंत्र करार दिया।
- अगस्त, 2016 में पीड़ितों ने उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें घटना के बारे में ऐसी टिप्पणी करने के लिये मंत्री के खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई।
- 17 नवंबर, 2016 को न्यायालय ने यूपी सरकार के तत्कालीन शहरी विकास मंत्री को बिना शर्त माफी मांगने का आदेश दिया।
- 20 अप्रैल, 2017 को न्यायालय ने इस मामले को पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया तथा न्यायमित्र से अनुरोध किया कि वह पीठ के विचार हेतु विधिक प्रश्न तैयार करें।
- 23 अक्तूबर, 2019 को संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई शुरू की।
आदेश:
- बहुमत के फैसले में कहा गया कि भारत के संविधान, 1950 के भाग III के तहत एक नागरिक के अधिकारों के साथ असंगत एक मंत्री द्वारा दिया गया एक मात्र बयान, संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य तथा संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो सकता है। लेकिन अगर ऐसे बयान के परिणामस्वरूप, अधिकारियों द्वारा कोई चूक होती है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति/नागरिक को नुकसान होता है, तो यह संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य हो सकता है।
- न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने बहुमत के इस दृष्टिकोण से असहमति जताई और माना कि एक अच्छी तरह से स्थापित कानूनी ढाँचा उन कार्यों या कार्य करने में विफलताओं को चित्रित करने के लिये, साथ ही यह स्थापित करने के लिये आवश्यक है कि ऐसे मुद्दों को (पूर्व न्यायिक निर्णयों के माध्यम से) कैसे संबोधित या हल किया जाएगा।
विधिक प्रावधान:
- संवैधानिक अपकृत्य:
- संवैधानिक अपकृत्य एक ऐसा विधिक उपकरण है जिसके माध्यम से राज्य को अपने एजेंटों के कार्यों के लिये परोक्ष रूप से जवाबदेह ठहराने का प्रावधान किया जाता है।