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सिविल कानून
उच्चतम न्यायालय में अपीलें (आदेश 45)
«11-Jun-2025
परिचय
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश 45 भारत के उच्चतम न्यायालय में अपीलों के संदर्भ में एक विस्तृत प्रक्रियात्मक ढाँचा स्थापित करता है। यह प्रक्रियात्मक आदेश अनिवार्य आवश्यकताओं, समयसीमाओं और शर्तों को रेखांकित करता है जिन्हें उच्चतम न्यायालय के समक्ष डिक्री या अंतिम आदेशों को चुनौती देने के इच्छुक पक्षकारों द्वारा पूरा किया जाना चाहिये। इन उपबंधों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केवल वे वाद जिनमें सामान्य महत्त्व का सारवान् विधि-प्रश्न अन्तर्ग्रस्त हो, वही उच्चतम न्यायालय की परिकल्पना तक पहुँच सकें। इस प्रकार, यह आदेश न्यायिक पदानुक्रम की मर्यादा बनाए रखते हुए मामलों के प्रभावी प्रबंधन को सुनिश्चित करता है।
प्रमाणपत्र आवश्यकताएँ और आवेदन प्रक्रिया
- उच्चतम न्यायालय में किसी भी अपील का आधार उस न्यायालय से अपेक्षित प्रमाणपत्र प्राप्त करना है, जिसके आदेश को चुनौती दी जा रही है।
- नियम 2 के अधीन, प्रत्येक अपीलकर्त्ता को मूल न्यायालय में याचिका के माध्यम से आवेदन करना होगा, तथा मामले का निपटारा प्रस्तुति के साठ दिनों के भीतर किया जाना होगा।
- नियम 3 के अनुसार याचिका में दो महत्त्वपूर्ण तत्त्वों को प्रदर्शित किया जाना चाहिये: प्रथम, कि मामले में सामान्य महत्त्व का सारवान् विधि-प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है, और द्वितीय, कि न्यायालय की राय में उक्त प्रश्न का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है।
- प्रक्रियागत निष्पक्षता और प्रतिकूल सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये, ऐसे प्रमाण-पत्र प्रदान करने के विरुद्ध कारण बताने के लिये विपक्षी पक्ष को नोटिस दिया जाना चाहिये।
प्रतिभूति और निक्षेप का दायित्त्व
- नियम 7 में कठोर वित्तीय प्रतिभूति उपाय स्थापित किये गए हैं, जिन्हें डिक्री के 90 दिनों के भीतर या अनुदान प्रमाणपत्र से छह सप्ताह के भीतर, जो भी पश्चात्वर्ती में हो, पूरा किया जाना चाहिये।
- अपीलकर्त्ता को प्रत्यर्थी के खर्चों के लिये नकद या सरकारी प्रतिभूतियों में प्रतिभूति प्रदान करनी होगी तथा संपूर्ण वाद के अभिलेख को अनुवाद कराने, अनुलिपि कराने, अनुक्रमणिका तैयार करने, मुद्रण और उसकी शुद्ध प्रति के उच्चतम न्यायालय को पारेषण के व्ययों की पूर्ति के लिये रकम निक्षिप्त करनी होगी।
- न्यायालय के पास विशेष कष्ट के आधार में वैकल्पिक प्रतिभूति रूपों को स्वीकार करने का विवेकाधीन अधिकार है, यद्यपि प्रकृति के संबंध प्रतिभूति को चुनौती देने के लिये कोई स्थगन नहीं दिया जाएगा।
- नियम 10 न्यायालयों को अतिरिक्त प्रतिभूति या संदाय की मांग करने का अधिकार देता है यदि प्रारंभिक उपबंध अभिलेख के समक्ष अपर्याप्त साबित होते हैं।
अपील की स्वीकृति और पारेषण की प्रक्रिया
- नियम 8 के अंतर्गत प्रतिभूति और निक्षेप आवश्यकताओं को संतोषजनक ढंग से पूरा करने पर, न्यायालय अपील को स्वीकार किये जाने की घोषणा करेगा, प्रत्यर्थी को सूचित करेगा, तथा संपूर्ण अभिलेख की एक मुद्रासहित, प्रमाणित प्रति उच्चतम न्यायालय को पारेषित करेगा।
- नियम 12 में अभिलेख के पश्चात् अतिरिक्त निक्षेप राशि की वापसी का उपबंध है।
- इस प्रक्रिया में उन दस्तावेज़ों का विशेष रूप से अपवर्जन किया जाता है जो केवल औपचारिक प्रकृति के हों, जिन पर पक्षकारों द्वारा सहमति व्यक्त की गई हो, जिनमें लेखा के अनावश्यक अंश सम्मिलित हों, अथवा जिनके अपवर्जन का उच्च न्यायालय द्वारा निदेश दिया गया हो। यह उपबंध यह सुनिश्चित करता है कि केवल सुसंगत सामग्री ही उच्चतम न्यायालय को प्रेषित की जाए।
अंतरिम शक्तियां और निष्पादन उपबंध
- नियम 13 यह स्थापित करता है कि डिक्री निष्पादन अनुदान प्रमाण पत्र के होते हुए भी बिना शर्त के आगे बढ़ता है, जब तक कि न्यायालय अन्यथा निदेश न दे। न्यायालयों के पास चल संपत्ति को जब्त करने, प्रत्यर्थी प्रतिभूति के साथ सशर्त निष्पादन की अनुमति देने, अपीलकर्त्ता प्रतिभूति के साथ निष्पादन को रोकने या परिस्थितियों के अनुसार रिसीवर नियुक्त करने के विवेकाधीन अधिकार हैं।
- नियम 14 अपर्याप्त प्रतिभूति परिदृश्यों को संबोधित करता है, न्यायालयों को अतिरिक्त प्रतिभूति की मांग करने की अनुमति देता है तथा गैर-अनुपालन के लिये विशिष्ट उपचार प्रदान करता है, जिसमें मूल प्रतिभूति के होते हुए भी डिक्री का निष्पादन या पक्षकारों को उनकी पिछली स्थिति में बहाल करना सम्मिलित है।
निष्कर्ष
आदेश 45 एक सावधानीपूर्वक संतुलित प्रक्रियात्मक ढाँचे का प्रतिनिधित्व करता है जो कठोर प्रमाणपत्र आवश्यकताओं और वित्तीय प्रतिभूति उपायों के माध्यम से तुच्छ मुकदमेबाजी को रोकते हुए उच्चतम में वैध अपील की सुविधा प्रदान करता है। इन उपबंधों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केवल वे वाद जिनमें सामान्य महत्त्व का सारवान् विधि-प्रश्न अन्तर्ग्रस्त हो, वही उच्चतम न्यायालय की परिकल्पना तक पहुँच सकें, न्यायिक दक्षता बनाए रखें और व्यापक प्रतिभूति तंत्र के माध्यम से पक्षकारों के हितों की रक्षा करें। यह प्रक्रियात्मक आदेश उच्चतम न्यायालय की अपीलों के लिये आधारशिला के रूप में कार्य करता है, जो भारत की विधिक प्रणाली के भीतर प्राकृतिक न्याय, प्रक्रियात्मक निष्पक्षता और न्यायिक पदानुक्रम के सिद्धांतों को मूर्त रूप देता है।