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सांविधानिक विधि

आरक्षित निर्णय

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 23-Apr-2025

परिचय: आरक्षित निर्णयों का अर्थ 

आरक्षित निर्णय भारतीय न्यायपालिका की एक परंपरा को दर्शाता है, जिसमें न्यायाधीश किसी वाद की सुनवाई पूर्ण करने के पश्चात् अंतिम निर्णय सुनाने को स्थगित कर देते हैं, जिससे तथ्यों, साक्ष्यों तथा लागू विधिक प्रावधानों पर समुचित विचार-विमर्श एवं मनन के लिये पर्याप्त समय प्राप्त हो सके 

आरक्षित निर्णय के मुख्य पहलू 

  • प्रक्रियात्मक आधार : जब कोई न्यायालय अपना निर्णय "आरक्षित" रखता है, तो इसका अर्थ है कि न्यायाधीश ने सभी पक्षकारों की दलीलें को सुनने की प्रक्रिया पूर्ण कर ली है, किंतु निर्णय सुनाने से पूर्व मामले का विश्लेषण करने के लिये उसे अतिरिक्त समय की आवश्यकता है। 
  • विधिक ढाँचा : निर्णय सुनाने से संबंधित विधानमंडल का आशय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 353 (1) में उल्लिखित है, जिसके अनुसार निर्णय या तो विचारण के खत्म होने के पश्चात् तुरंत या "बाद में किसी समय" पर पक्षकारों को उचित सूचना के साथ सुनाया जाना चाहियेयद्यपि, यह सत्य है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता या सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के अधीन निर्णय सुनाने के लिये निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। 

उच्च न्यायालय में आरक्षित निर्णय की समय सीमा  

यद्यपि जटिल मामलों में आरक्षित निर्णय की आवश्यकता को स्वीकार किया गया है, तथापि भारतीय न्यायपालिका ने यह भी मान्यता दी है कि निर्णय को आरक्षित रखने की अवधि पर युक्तिसंगत समय-सीमा निर्धारित की जानी चाहिये 

  • उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश:अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001)के ऐतिहासिक मामले में, उच्चतम न्यायालय ने आरक्षित निर्णयों के लिये समय सीमा के संबंध में महत्त्वपूर्ण निर्देश जारी किये: 
    • यदि निर्णय आरक्षित रखे जाने केतीन माहके भीतर नहीं सुनाया जाता है , तो पक्षकार त्वरित निर्णय का अनुरोध करते हुए आवेदन दायर कर सकते हैं।  
    • यदिछह माह बीत जाने के उपरांत भी निर्णय नहीं सुनाया गया हो, तो पक्षकार मुख्य न्यायाधीश के समक्ष याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं, जिसमें मामले को किसी अन्य पीठ को सौंपे जाने की प्रार्थना की जा सकती हैं।  
  • सांविधानिक निहितार्थ : उच्चतम न्यायालय ने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि आरक्षित निर्णय सुनाने में अत्यधिक विलंब से अनुच्छेद 21 के अधीन वादियों के जीवन के अधिकार का उल्लंघन होता है, क्योंकि समय पर न्याय प्रदान करना मौलिक अधिकार माना जाता है। 
  • न्यायालय की निगरानी : 2015 में, उच्चतम न्यायालय ने सभीउच्च न्यायालयों केन्यायाधीशों से अनुरोध किया कि वे आरक्षित रखे जाने के तीन माह पश्चात् भी नहीं सुनाए गए निर्णयों का विवरण प्रस्तुत करें, जो विलंबित निर्णयों के बारे में संस्थागत चिंता को दर्शाता है। 
  • वर्तमान वास्तविकता : इन दिशा-निर्देशों के बावजूद, आरक्षित निर्णयों में गंभीर विलंब आज भी व्याप्त है। उदाहरण के लिये 
    • दिल्ली सरकार द्वारा उपराज्यपाल द्वारा MCD में एल्डरमेन की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका लगभग 15 माह तक आरक्षित रखी गई। 
    • भारतीय जनता पार्टी (BJP) महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के मामले में 17 माहपश्चात् निर्णय सुनाया गया । 
    • नागरिकता अधिनियम की धारा 6क को सांविधानिक चुनौती देने का मामला सात माह से अधिक समय तक लंबित रहा, तथा उस पर निर्णय नहीं दिया गया 
  • उच्चतम न्यायालय का स्वयं-अनुप्रयोग : यद्यपि उच्चतम न्यायालय नियमित रूप से उच्च न्यायालयों को समयबद्ध निर्णयों हेतु नियमित रूप से परामर्श देता है, तथापि उसने अपने ही दिशा-निर्देशों का सुसंगत पालन नहीं किया है। उल्लेखनीय उदाहरण निम्नलिखित हैं: 
    • सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन (2013) (धारा 377 से संबंधित मामला): यह निर्णय लगभग 21 माह तक सुरक्षित रखे जाने के पश्चात् सुनाया गया।  
    • सबरीमाला पुनर्विचार संदर्भ निर्णय: यह निर्णय 8 माह तक आराक्षित रखने के पश्चात् सुनाया गया।  

आरक्षित निर्णय: अच्छा या बुरा? 

लाभ: 

  • गहन विचार : आरक्षित निर्णय न्यायाधीशों को जटिल विधिक विवाद्यकों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने का समय देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सुविचारित निर्णय सामने आते हैं जो न्यायशास्त्र में सार्थक योगदान देते हैं। 
  • त्रुटियों में कमी : विचार-विमर्श प्रक्रिया से त्रुटियों में कमी आएगी तथा विधिक रूप से अधिक ठोस निर्णय लिये जा सकेंगे, जिससे अपीलों में कमी आ सकती है। 
  • जटिल मामले : कुछ मामलों में भारी मात्रा में साक्ष्य, जटिल विधिक तर्क या विधि के नए बिंदु सम्मिलित होते हैं, जिन पर उचित विचार के लिये वास्तव में अतिरिक्त समय की आवश्यकता होती है। 
  • सुसंगति : लिखित आरक्षित निर्णयों को जारी करने से पहले आंतरिक सुसंगति और सुसंगति के लिये जांचा जा सकता है। 

नुकसान: 

  • न्याय में देरी : जैसा कि कानूनी कहावत है, "न्याय में देरी न्याय से इनकार करने के समान है।" अत्यधिक देरी न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कमजोर करती है। 
  • स्मृति क्षय : जैसा किअनिल रायमामले में उल्लेख किया गया है , जब निर्णय को लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जाता है तो न्यायाधीश मामलों के महत्वपूर्ण विवरण भूल जाते हैं, जिससे निर्णयों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। 
  • आर्थिक भार: लंबे समय तक चलने वाले मामलों के कारण वादियों को निरंतर विधिक परामर्श बनाए रखना पड़ता है, जिससे उनके ऊपर सतत् आर्थिक भार पड़ता है। 
  • मनोवैज्ञानिक प्रभाव: निर्णय के लंबे समय तक लंबित रहने से उत्पन्न अनिश्चितता पक्षकारों में अत्यधिक मानसिक तनाव एवं चिंता का कारण बनती है 
  • व्यावहारिक चुनौतियाँ : ऐसे मामलों में जहाँ तत्काल अनुतोष की आवश्यकता होती है, विलंबित निर्णय अंतिम निर्णय को निरर्थक या अप्रभावी बना सकते हैं। 
  • सार्वजनिक अटकलें : जैसा किभगवानदास फतेहचंद एवं अन्य बनाम एच.पी.. इंटरनेशनल एवं अन्य (2000) में उल्लेख किया गया है, निर्णय में अत्यधिक विलंब “पक्षकारों के मन में अनावश्यक अटकलों को जन्म देता है।" 

संतुलनकारी कारक 

आरक्षित निर्णयों पर विचार करते समय न्यायपालिका को विभिन्न परस्पर-विरोधी हितों के मध्य संतुलन स्थापित करना आवश्यक होता है: 

  • न्यायिक कार्यभार : अत्यधिक वादों की संख्या तथा न्यायिक पदों की रिक्तियाँ निर्णयों में विलंब के प्रमुख कारणों में सम्मिलित हैं 
  • मामले की जटिलता : अधिक जटिल मामलों में वास्तव में अतिरिक्त विचार-विमर्श समय की आवश्यकता होती है। 
  • संस्थागत बाधाएँ : न्यायाधीशों के लिये उपलब्ध बुनियादी ढाँचा, स्टाफ और संसाधन समय पर निर्णय देने की उनकी क्षमता को प्रभावित करते हैं। 
  • जवाबदेही तंत्र : प्रभावी निगरानी के बिना, अत्यधिक विलंबित निर्णयों के परिणाम सीमित होते हैं। 

निष्कर्ष 

आरक्षित निर्णय न्यायिक प्रणाली में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि वे जटिल मामलों में न्यायाधीशों को विचारपूर्ण विमर्श की सुविधा प्रदान करते हैं। तथापि, जब निर्णय अत्यधिक अवधि तक "निष्क्रिय अवस्था" में रखे जाते हैं, तो यह समय पर न्याय पाने के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है। 

न्यायपालिका के लिये यह अनिवार्य है कि वह गंभीर विचार और समयबद्ध निपटान के बीच संतुलन स्थापित करे। इसके लिये केवल समय-सीमा संबंधी स्थापित दिशानिर्देशों का पालन पर्याप्त नहीं है, अपितु न्यायिक रिक्तियों, लंबित मामलों की अधिकता तथा प्रक्रिया संबंधी अक्षमताओं जैसे संस्थागत कारणों का समाधान भी आवश्यक है। 

जैसा कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्वयं उल्लेख किया है, न्याय प्रदान करने में विलंब “जनसामान्य को संदेह प्रकट करने का अवसर देता है, जो कभी-कभी वास्तविक भी हो सकता है, और यदि इस पर नियंत्रण न किया जाए, तो यह न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को डगमगा सकता है।” अतः यह अत्यावश्यक है कि आरक्षित निर्णय उचित समयावधि के भीतर दिये जाएँ, जिससे न्यायपालिका में जनविश्वास बना रहे एवं न्याय वितरण प्रणाली की विश्वसनीयता अक्षुण्ण रहे।