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सिविल कानून
मुस्लिम विधि के तहत जनकता और धर्मजत्व
« »27-Oct-2023
परिचय
- 'मातृत्व' माँ और बच्चे के बीच एक विधिक संबंध है और 'पितृत्व' पिता और बच्चे के बीच एक विधिक संबंध है।
- 'जनकता' शब्द का प्रयोग सामान्यतः उस विधिक संबंध के लिये किया जाता है, जो एक बच्चे का अपने माता-पिता के साथ होता है। ये विधिक संबंध कुछ अधिकारों और कर्त्तव्यों से जुड़े हुये हैं, जैसे उत्तराधिकार, अनुरक्षण और संरक्षकता के पारस्परिक अधिकार।
(a) मातृत्व, कैसे स्थापित होता है: सुन्नी कानून के तहत, एक बच्चे का मातृत्व उस महिला से स्थापित किया जाता है, जो बच्चे को जन्म देती है, भले ही जन्म विवाह या ज़िना (व्यभिचार) का परिणाम हो।
1. शिया कानून में, केवल जन्म ही मातृत्व स्थापित करने के लिये पर्याप्त नहीं है; यह भी सत्यापित करना होगा, कि जन्म वैध विवाह का परिणाम था।
(b) पितृत्व कैसे स्थापित होता है: किसी बच्चे का पितृत्व उसके माता-पिता के बीच विवाह से ही स्थापित हो सकता है। विवाह वैध या अनियमित हो सकता है, लेकिन वह विवाह रिक्त नहीं होना चाहिये। इसकी पहचान बच्चे की माँ के पति रूप में होती है।
मुस्लिम विधि के तहत धर्मजत्व
- मुस्लिम विधि के तहत धर्मजत्व और जनकता का विवाह से गहरा संबंध है। इसलिये, एक बच्चा तभी वैध माना जाएगा जब वह वैध विवाह से उत्पन्न हुआ हो। इसका अर्थ यह है कि गर्भधारण के समय बच्चे के पिता (वाहक) और माता (जन्मदाता) का वैध विवाह होना चाहिये।
- तब बच्चे को प्रलेखित पितृत्व और मातृत्व के साथ एक वैध बच्चा माना जाएगा।। इसलिये मुस्लिम विधि के तहत, बच्चे को जन्म देने वाले के बीच केवल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विवाह ही बच्चों का धर्मजत्व स्थापित कर सकता है।
- यदि उक्त लोगों के बीच वैध और प्रत्यक्ष विवाह नहीं है, तो अप्रत्यक्ष विवाह स्थापित किया जा सकता है यदि:
- इसमें पिता और माता सहवास में रहते है।
- बच्चे का पिता माँ को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता है।
- पिता बच्चे को अपना मानता है। इसलिये, यदि पिता और माता के बीच विवाह साबित नहीं किया जा सकता है, या बच्चे के पितृत्व के बारे में संदेह है, तो पिता बच्चे को अपने बच्चे के रूप में स्वीकार कर सकता है। यह पुत्र और पुत्री दोनों के लिये सत्य है। इसे इकरार-ए-नसाब के नाम से भी जाना जाता है। साथ ही ऐसी अभिस्वीकृति को व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं होती है, यह आचरण से भी निहित हो सकता है।
- वैध विवाह से जन्मे व्यक्ति को पति-पत्नी की वैध संतान कहा जाता है। इसलिये, किसी बच्चे के धर्मजत्व के मामले में मुख्य बिंदु उसके माता-पिता के बीच विवाह है।
धर्मजत्व कानून (भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872)
- भारत में, किसी भी बच्चे का धर्मजत्व, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 द्वारा तय किया जाता है। इस अधिनियम में कहा गया है, कि एक बच्चा वैध होगा यदि:
- बच्चे की माँ और किसी अन्य पुरुष (बच्चे का पिता होना जरूरी नहीं) के बीच वैध विवाह की निरंतरता में उत्पन्न हुआ है।
- विवाह-विच्छेद के 280 दिन (लगभग 9 माह) के बाद जन्म होता है जब तक कि माँ ने इतने समय में पुनर्विवाह न किया हो।
पितृत्व की अभिस्वीकृति (इकरार-ए-नसाब)
- किसी व्यक्ति द्वारा पितृत्व की अभिस्वीकृति का अर्थ यह है कि उसने स्वयं को एक बच्चे के पिता के रूप में स्वीकार कर लिया है, जहाँ किसी बच्चे का धर्मजत्व न तो साबित होता है और न ही अस्वीकृत माना जाता है, किसी व्यक्ति द्वारा पितृत्व की स्वीकृति एक वैध विवाह के अस्तित्व को स्थापित कर सकती है और बच्चे की वैधानिकता भी स्थापित कर सकती है। .
- यह किसी ऐसे बच्चे के मामले में व्यक्त या निहित हो सकता है जो किसी तीसरे व्यक्ति की संतान या नाजायज साबित हो, अभिस्वीकृति में कोई दबाव नहीं होगा।
वैध अभिस्वीकृति की शर्तें-
I. अभिस्वीकृति धर्मजत्व का दर्जा प्रदान करने के विशिष्ट आशय से होनी चाहिये।
II. अभिस्वीकृति देने वाले की उम्र अभिस्वीकृति देने वाले व्यक्ति से कम-से-कम साढ़े बारह वर्ष अधिक होनी चाहिये।
III. इस प्रकार अभिस्वीकृत बच्चा किसी दूसरे का बच्चा नहीं होना चाहिये।
IV. यदि बच्चा वयस्क है तो उसे इसकी पुष्टि करनी होगी या अभिस्वीकृति देनी होगी।
V. यह दिखाना आवश्यक है कि अभिस्वीकृतकर्त्ता और बच्चे की माँ के बीच एक वैध विवाह संभव है और बच्चा जारकर्म संबंध का परिणाम नहीं है।
VI. अभिस्वीकृतकर्त्ता वयस्क और समझदार होना चाहिये।
अभिस्वीकृति के प्रभाव:-
पितृत्व की अभिस्वीकृति दोतरफा धारणा को जन्म देती है
1. बच्चे के दावेदार के पक्षकार के रूप में: यह प्राकृतिक पितृत्व के सभी विधिक प्रभाव उत्पन्न करता है और बच्चे को अभिस्वीकृति से विरासत का अधिकार प्रदान करता है।
2. पत्नी के पक्षकार के रूप में (अर्थात, एक अभिस्वीकृत बच्चे की माँ): इसका प्रभाव उसे विधिक पत्नी का दर्जा देने और विरासत का अधिकार देने से संबंधित है।
निर्णयज विधि:
- हबीबुर रहमान बनाम अल्ताफ अली (1918):
- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना कि किसी बच्चे का धर्मजत्व पूर्ण रूप से विवाह द्वारा स्थापित किया जा सकता है। ज़िना में, भले ही नाजायज़ बच्चे के माता-पिता भविष्य में वैध रूप से एक-दूसरे से विवाह कर सकते हैं, लेकिन उसके बाद इसे वैध बच्चा नहीं माना जा सकता है।
- ज़मीन अली बनाम अज़ीज़ निसा (1939):
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि मृत पिता का एक बयान (अभिस्वीकृति) कि उसने बच्चे की माँ से विवाह किया था, एक वैध विवाह का साक्ष्य है, जिससे बच्चे के धर्मजत्व का अनुमान लगाया जा सकता है।