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सिविल कानून
दहीबेन बनाम अरविंदभाई कल्याणजी भानुसाली (गजरा)(मृत)
« »14-Aug-2024
परिचय:
यह मामला इस अवधारणा से संबंधित है कि परिसीमा अवधि की गणना उस तिथि से की जानी चाहिये, जब वाद संस्थित करने का अधिकार पहली बार प्राप्त होता है।
तथ्य:
- विवादित भूमि भूमि राजस्व संहिता (LRC) की धारा 73AA के अनुसार प्रतिबंधित कब्ज़े के अंतर्गत कृषि भूमि थी।
- वादी ने प्रतिवादी को संपत्ति बेचने के लिये कलेक्टर के समक्ष एक आवेदन किया, जिसमें कहा गया कि उन्हें इसे बेचने पर कोई आपत्ति नहीं है।
- कलेक्टर ने LRC की धारा 73AA में निहित नियमों एवं शर्तों के अधीन विक्रय की अनुमति दी।
- बाद में, प्रतिवादी ने उसी संपत्ति को अन्य प्रतिवादियों को विक्रय कर दिया।
- वादीगण ने मूल क्रेता अर्थात् प्रतिवादी सं. 1 के विरुद्ध प्रधान सिविल न्यायाधीश के समक्ष विशेष सिविल वाद संस्थित किया तथा बाद के क्रेताओं अर्थात् प्रतिवादी सं. 2 एवं 3 को भी प्रतिवादी के रूप में शामिल किया।
- वादीगण ने प्रार्थना की कि प्रतिवादी (मूल क्रेता) द्वारा बाद में की गई विक्रय को रद्द कर दिया जाए और उसे अवैध, शून्य, अप्रभावी घोषित कर दिया जाए तथा इस आधार पर उन पर बाध्यकारी न माना जाए कि कलेक्टर द्वारा निर्धारित विक्रय प्रतिफल का पूरा भुगतान नहीं किया गया था।
- प्रतिवादी संख्या 2 एवं 3 ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 11 (a) एवं (d) के अंतर्गत शिकायत को खारिज करने के लिये एक आवेदन किया, जिसमें तर्क दिया गया कि वादी द्वारा संस्थित किया गया वाद परिसीमा अवधि द्वारा वर्जित था तथा शिकायत में कार्यवाही का कोई कारण नहीं बताया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने माना कि वादी द्वारा संस्थित वाद परिसीमा अवधि द्वारा वर्जित था तथा CPC के आदेश VII नियम 11 (d) के अंतर्गत आवेदन की अनुमति दी।
- ट्रायल कोर्ट के आदेश से व्यथित होकर वादीगण ने गुजरात उच्च न्यायालय में अपील दायर की।
- गुजरात उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की तथा प्रतिवादी एवं अन्य प्रतिवादियों के मध्य हुए विक्रय विलेख को वैध ठहराया।
- इससे व्यथित होकर वादीगण ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
शामिल मुद्दे:
- क्या परिसीमा अवधि की गणना उस तिथि से की जाती है जब वाद संस्थित करने का अधिकार पहली बार प्राप्त हुआ था?
- क्या मूल बिक्री विलेख का भुगतान न किये जाने के कारण बाद के विक्रय विलेखों को अमान्य माना गया?
टिप्पणी:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CPC के आदेश VII नियम 11(d) में यह प्रावधान है कि जहाँ वाद में किये गए कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी विधि द्वारा वर्जित है, तो वाद को खारिज कर दिया जाएगा।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि भले ही वादी के कथनों को सही मान लिया जाए कि वास्तव में पूरी विक्रय राशि का भुगतान नहीं किया गया है- यह विक्रय विलेख को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वादीगण के पास शेष राशि की वसूली के लिये विधि में अन्य उपाय हो सकते हैं, लेकिन उन्हें पंजीकृत विक्रय विलेख को रद्द करने की राहत नहीं दी जा सकती।
- उच्चतम न्यायालय ने बताया कि वाद-पत्र को चतुराई से तैयार करके वादीगण ने भ्रामक कारण बनाने एवं बीमा को परिसीमा अवधि के अंदर लाने का प्रयास किया।
- वाद का कारण उस समय उत्पन्न हुआ जब प्रतिवादी द्वारा वादी को दिये गए चेक फर्ज़ी पाए गए तथा भुगतान समय पर नहीं किया गया, न कि तब जब प्रतिवादी ने वाद की संपत्ति अन्य प्रतिवादियों को विक्रय कर दी।
- कथित वाद के कारण उत्पन्न होने के बाद 5½ वर्ष से अधिक विलंब से पता चलता है कि वाद स्पष्ट रूप से परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 59 के अनुसार परिसीमा द्वारा वर्जित था।
निष्कर्ष:
उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय एवं अधीनस्थ न्यायालय के आदेश की पुष्टि की तथा कहा कि वाद परिसीमा अवधि के अंतर्गत वर्जित है।