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वाणिज्यिक विधि
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138
« »11-Sep-2025
एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक "भले ही परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 142 के अधीन विलंब को क्षमा किया जा सकता है, न्यायालय को पहले विलंब को नोट करना चाहिये, परिवादकर्त्ता के कारणों का आकलन करना चाहिये, और उसके बाद ही संज्ञान और समन पर निर्णय लेना चाहिये।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और के विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने एक चेक अनादरण परिवाद को खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 142(ख) के अधीन 30 दिन की समय-सीमा अनिवार्य है। उन्होंने कहा कि विलंब को केवल वैध कारणों के साथ औपचारिक आवेदन के माध्यम से ही क्षमा किया जा सकता है, न कि उपधारणा या स्वतः क्षमा के माध्यम से।
- उच्चतम न्यायालय ने एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- वर्तमान मामला मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक द्वारा एच.एस. ओबेरॉय बिल्डटेक प्राइवेट लिमिटेड और इसके निदेशकों एच.एस. ओबेरॉय और मनवीर सिंह ओबेरॉय के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अधीन दर्ज चेक अनादरण के परिवाद से उत्पन्न हुआ।
- प्रत्यर्थी मेसर्स एम.एस.एन. वुडटेक ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत परक्राम्य लिखत (चेक) के अनादरण का आरोप लगाते हुए एक परिवाद दर्ज कराया। यद्यपि, यह परिवाद अधिनियम की धारा 142(ख) के अधीन निर्धारित 30 दिनों की सांविधिक परिसीमा काल से पाँच दिन बाद दर्ज की गई थी।
- परिवाद दर्ज करने में हुई विलं की बात स्वीकार करने के बावजूद, विचारण न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं को समन जारी किया। विचारण न्यायालय ने अपने आदेश में गलती से यह दर्ज कर दिया कि परिवाद समय-सीमा के भीतर दर्ज किया गया था, जो तथ्यात्मक रूप से गलत था।
- अपीलकर्त्ताओं ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- उच्च न्यायालय ने समन जारी करने के विचारण न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा, तथा कहा कि विचारण न्यायालय को अधिनियम की धारा 142(ख) के अधीन विलंब को क्षमा करने का अधिकार है और विलंब को क्षमा करने के लिये औपचारिक आवेदन दायर करना कोई सांविधिक आदेश नहीं है।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ताओं ने विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसे आपराधिक अपील में परिवर्तित कर दिया गया।
- प्रत्यर्थी के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि विलंब की क्षमा के लिये आवेदन तैयार किया गया था, परंतु अनजाने में उसे परिवाद के साथ दायर नहीं किया गया, तथा ऐसा आवेदन अभी भी विचारण न्यायालय में लंबित है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत परिसीमा काल की अनिवार्य प्रकृति और विलंब की क्षमा की प्रक्रिया के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं:
- न्यायालय ने कहा कि जब किसी संविधि में परिवाद दर्ज करने के लिये अनिवार्य समय सीमा विहित कर दी जाती है, तो उसमें कोई विचलन नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि परिवाद के साथ उचित आवेदन दायर किया जाए, जिसमें विलंब के लिये क्षमा मांगी जाए और विलंब के कारणों का प्रकटन किया जाए।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि न्यायालय के लिये यह अनिवार्य है कि वह परिसीमा से परे इस तरह के दाखिलों पर ध्यान दे तथा किसी विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले स्वतंत्र रूप से प्रकट किये गए कारणों पर विचार करे कि उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में, क्षमा न्यायोचित है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विशुद्ध रूप से विधिक दृष्टिकोण से, जहाँ यह तथ्य स्वीकार किया जाता है कि परिवाद विधि के अधीन विहित काल के बाद दायर किया गया था, वहाँ विलंब के लिये स्वतः या प्रकल्पित क्षमा नहीं हो सकती।
- न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय ने यह मानते हुए गलत उपधारणा की थी कि परिवाद परिसीमा काल के भीतर दायर किया गया था, जबकि यह निश्चित रूप से विहित समय सीमा से पाँच दिन बाद दायर किया गया था।
- न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 142 के अधीन न्यायालय को विलंब को क्षमा करने की शक्ति होने पर भी, प्रथम आवश्यकता यह है कि न्यायालय को इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिये कि विलंब हुआ है और उसके बाद जांच करनी चाहिये कि क्या परिवादकर्त्ता द्वारा दिये गए कारण ऐसे विलंब को क्षमा करने के लिये पर्याप्त हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय की यह राय कि विलंब की माफी के लिये आवेदन दायर करना अधिनियम की धारा 142(ख) के अधीन सांविधिक आदेश नहीं है, विधि की दृष्टि से गलत है।
- न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में उचित प्रक्रिया का बिल्कुल भी पालन नहीं किया गया है, क्योंकि न तो परिवाद के साथ विलंब के लिये माफी का कोई औपचारिक आवेदन दायर किया गया था, न ही विचारण न्यायालय ने संज्ञान लेने से पहले विलंब के कारणों की न्यायिक जांच की थी।
- उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि संज्ञान लेने और समन जारी करने के आदेश में हस्तक्षेप की आवश्यकता है और इसे विधि में कायम नहीं रखा जा सकता।
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 और 142 क्या है?
धारा 138 - अपराध के तत्त्व:
बारे में:
- धारा 138 अपर्याप्त धनराशि या निर्धारित राशि से अधिक होने के कारण चेक के अनादरण को सांविधिक अपराध बनाती है।
- इस धारा के अंतर्गत अपराध गठित करने के लिये आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं:
- प्राथमिक आवश्यकता : किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को धन के संदाय के लिये बैंक में अपने खाते पर लिखे गए चेक को अपर्याप्त धनराशि या निर्धारित ओवरड्राफ्ट सीमा से अधिक धनराशि होने के कारण बैंक द्वारा बिना संदाय के वापस कर दिया जाना चाहिये।
परंतुक के अंतर्गत तीन अनिवार्य शर्तें:
- लिखे जाने की तिथि से छह मास के भीतर या इसकी वैधता अवधि के भीतर, जो भी पहले हो, बैंक को प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- चेक पाने वाला या धारक को बैंक से चेक के अवैतनिक वापस आने की सूचना प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर लेखीवाल को लिखित मांग नोटिस जारी करना होगा।
- मांग नोटिस प्राप्त होने के पंद्रह दिनों के भीतर लेखीवाल को चेक राशि का संदाय करने में असफल होना होगा ।
- दण्ड का उपबंध : इन शर्तों की पूर्ति होने पर, चेक के लेखिवाल द्वारा अपराध किया जाता है जिसके लिये दो वर्ष तक का कारावास या चेक राशि के दोगुने तक का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
- परिसीमा का विस्तार : ऋण या दायित्त्व विधिक रूप से प्रवर्तनीय होना चाहिये जैसा कि धारा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट किया गया है।
धारा 142 - संज्ञान के लिये प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ
धारा 142, धारा 138 के अंतर्गत अपराधों का संज्ञान लेने के लिये अनिवार्य प्रक्रियात्मक ढाँचा निर्धारित करती है:
- परिवाद-आधारित अधिकारिता : न्यायालय केवल चेक पाने वाले या धारक द्वारा चेक जारी करने के समय दायर किये गए लिखित परिवाद पर ही संज्ञान ले सकते हैं।
- परिसीमा काल : धारा 138 के उपबंध के खण्ड (ग) के अधीन वाद-हेतुक उत्पन्न होने के एक मास के भीतर परिवाद दर्ज किया जाना चाहिये, जिसका अर्थ है पंद्रह दिन की नोटिस अवधि की समाप्ति से एक मास के भीतर।
- क्षमा उपबंध : धारा 142(ख) का परंतुक न्यायालयों को विहित एक मास की अवधि के पश्चात् दायर परिवादों का संज्ञान लेने का अधिकार देता है, बशर्ते परिवादकर्त्ता न्यायालय को विलंब के लिये पर्याप्त कारण बता दे।
- न्यायालय पदानुक्रम : केवल महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट को ही ऐसे अपराधों का विचारण करने का अधिकार है।
- प्रादेशिक अधिकारिता : धारा 142(2) में निर्दिष्ट किया गया है कि अपराध का विचारण केवल उन न्यायालयों द्वारा किया जाएगा जिनकी अधिकारिता में या तो चेक पाने वाले की बैंक शाखा (खाते के माध्यम से संग्रहण के लिये) या ऊपरवाल की बैंक शाखा (प्रत्यक्ष प्रस्तुति के लिये) स्थित है।