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आपराधिक कानून
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अग्रिम जमानत
«04-Sep-2025
शाजन स्करिया बनाम केरल राज्य हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 18 के अधीन अग्रिम जमानत पर रोक केवल तभी लागू होती है जब प्रथम दृष्टया अपराध बनता है, और विधायक पी.वी. श्रीनिजिन के विरुद्ध कथित अपमानजनक टिप्पणी से जुड़े मामले में पत्रकार शजन स्कारिया को अग्रिम जमानत दे दी। न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने निर्णय दिया कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 18 के अधीन अग्रिम जमानत पर रोक केवल तभी लागू होती है जब प्रथम दृष्टया अपराध बनता है, और विधायक पी.वी. श्रीनिजिन के विरुद्ध कथित अपमानजनक टिप्पणी से जुड़े एक मामले में पत्रकार शजन स्कारिया को अग्रिम जमानत दे दी।
- उच्चतम न्यायालय ने शाजन स्कारिया बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
शाजन स्कारिया बनाम केरल राज्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह आपराधिक अपील अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधीन कार्यवाही से उत्पन्न हुई, जिसमें अग्रिम जमानत और अधिनियम के अधीन अपराधों के निर्वचन के विवाद्यक सम्मिलित थे।
- यह मामला मलयालम यूट्यूब चैनल मारुनदान मलयाली के संपादक शाजन स्करिया द्वारा प्रकाशित और प्रसारित एक समाचार से उठा।
- समाचार खंड में जिला खेल परिषद के अध्यक्ष के रूप में विधायक पी.वी. श्रीनिजिन द्वारा संचालित खेल छात्रावास के कथित कुप्रशासन की आलोचना की गई।
- परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि स्कारिया की टिप्पणी में श्रीनिजिन के विरुद्ध अपमानजनक बातें थीं, जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के प्रावधानों के अंतर्गत आती हैं।
- आरोपों से पता चलता है कि कथनों से जातिगत पहचान के कारण अपमान हुआ, जिससे यह मामला विशेष विधि के दायरे में आ गया।
- परिवाद के आधार पर, आपराधिक कार्यवाही शुरू की गई और स्कारिया के विरुद्ध अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराध दर्ज किया गया।
- गिरफ्तारी की आशंका के चलते स्कारिया ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन अग्रिम जमानत के लिये आवेदन किया।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 विशेष रूप से इस विधि के अधीन दर्ज अपराधों में अग्रिम जमानत के आवेदन पर रोक लगाती है।
- अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि एक बार जब अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराध का आरोप लग जाता है, तो विधायी प्रतिबंध के मद्देनजर अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती।
- दूसरी ओर, स्कारिया ने तर्क दिया कि आरोपों में अधिनियम के अधीन अपराध गठित करने के लिये आवश्यक तत्त्व का अभाव है।
- केरल उच्च न्यायालय ने जून 2023 में स्कारिया की अग्रिम जमानत याचिका यह कहते हुए अस्वीकार कर दी कि विधिक प्रतिबंध (Bar) लागू होता है।
- उच्च न्यायालय के इंकार से व्यथित होकर स्कारिया ने भारत के उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
- न्यायालय के समक्ष मुख्य विवाद्यक यह था कि क्या अग्रिम जमानत दी जा सकती है, जब परिवाद में प्रथम दृष्टया अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराध का होना सिद्ध नहीं होता।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा: "यदि परिवाद में उल्लिखित सामग्री और स्वयं परिवाद को प्रथम दृष्टया पढ़ने पर अपराध के गठन के लिये आवश्यक तत्त्व नहीं पाए जाते हैं, तो धारा 18 का प्रतिबंध लागू नहीं होगा और न्यायालयों के लिये यह खुला होगा कि वे गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देने की याचिका पर उसके गुण-दोष के आधार पर विचार करें।"
- न्यायालय ने कहा: "धारा 18 केवल उन मामलों में अग्रिम जमानत के उपचार पर रोक लगाती है, जहाँ अभियुक्त व्यक्ति की दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के साथ धारा 60 क के अनुसार वैध गिरफ्तारी की जा सकती है।"
- न्यायालय ने घोषणा की: "मामले के प्रथम दृष्टया अस्तित्व को निर्धारित करने का कर्त्तव्य न्यायालयों पर डाला गया है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि अभियुक्त को कोई अनावश्यक अपमान न हो। न्यायालयों को यह निर्धारित करने के लिये प्रारंभिक जांच करने से नहीं कतराना चाहिये कि क्या परिवाद/प्रथम सूचना रिपोर्ट में तथ्यों का वर्णन वास्तव में अधिनियम, 1989 के अधीन अपराध का गठन करने के लिये आवश्यक तत्त्वों का प्रकटन करता है।"
- न्यायालय ने स्पष्ट किया: "अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(द) के अधीन अपराध केवल इस तथ्य पर स्थापित नहीं होता है कि परिवादकर्त्ता अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, जब तक कि ऐसे सदस्य को इस कारण से अपमानित करने का आशय न हो कि वह उस समुदाय से संबंधित है।"
- न्यायालय ने कहा: "अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय के किसी सदस्य का साशय किया गया हर अपमान या धमकी जाति-आधारित अपमान की भावना का कारण नहीं बनती। केवल उन्हीं मामलों में साशय अपमान या धमकी या तो अस्पृश्यता की प्रचलित प्रथा के कारण होती है या फिर ऐतिहासिक रूप से स्थापित विचारों जैसे 'उच्च जातियों' की 'निम्न जातियों/अछूतों' पर श्रेष्ठता को मजबूत करने के लिये होती है, जिन्हें अधिनियम, 1989 द्वारा परिकल्पित अपमान या धमकी कहा जा सकता है।"
- न्यायालय ने कहा: "केवल इस तथ्य की जानकारी होना कि पीड़ित अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(द) को आकर्षित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति के विरुद्ध अपराध इस आधार पर या इस कारण से किया गया होगा कि वह व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया: "दण्डात्मक विधि को कठोरता से परिभाषित किया जाना चाहिये। सांविधिक निर्वचन का सिद्धांत विधि की नीति को मूर्त रूप देता है, जो बदले में लोक नीति पर आधारित होती है।"
- न्यायालय ने कहा: "हमने अधिनियम, 1989 की धारा 18 की व्याख्या सांविधिक निर्माण के उपरोक्त सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए की है। हमारा मानना है कि हमारे द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण के अलावा कोई अन्य दृष्टिकोण अपनाना अनुचित, दमनकारी होगा और हमारे संविधान के पवित्र सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा।"
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अग्रिम जमानत क्या थी?
- मुख्य निषेध
- धारा 18, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अंतर्गत सभी अपराधों के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन अग्रिम ज़मानत पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती है। इस उपबंध में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करने के आरोप में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी से संबंधित किसी भी मामले में संहिता की धारा 438 की कोई भी बात लागू नहीं होगी।"
- प्रमुख विधिक कथन:
- पूर्ण विधायी प्रतिबंध: धारा 18 अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के मामलों में गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देने के न्यायिक विवेकाधिकार को समाप्त कर देती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि अभियुक्त व्यक्ति गिरफ्तारी से बच नहीं सकेंगे।
- सांविधानिक वैधता: उच्चतम न्यायालय ने निरंतर इस उपबंध को सांविधानिक रूप से वैध और कमजोर समुदायों की सुरक्षा के लिये आवश्यक माना है।
- संवर्धित संरक्षण (धारा 18क): 2018 के संशोधन ने स्पष्ट रूप से यह कहकर प्रतिबंध को मजबूत किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 "किसी भी न्यायालय के किसी भी निर्णय या आदेश या निदेश के होते हुए भी, इस अधिनियम के अधीन किसी मामले पर लागू नहीं होगी।"
- न्यायिक निर्वचन - शाजन स्कारिया सिद्धांत: उच्चतम न्यायालय ने एक सूक्ष्म दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया कि धारा 18 का प्रतिबंध केवल तभी लागू होता है जब:
- प्रथम दृष्टया ऐसी सामग्री विद्यमान है जो अपराध किये जाने की ओर संकेत करती है।
- अपराध गठित करने के लिये आवश्यक सामग्री तैयार की गई है।
- धारा 41 के साथ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 60क के अधीन वैध गिरफ्तारी की जा सकती है।
- तुच्छ मामलों के लिये अपवाद: यदि प्रथम दृष्टया यह पता चलता है कि अपराध के तत्त्व नहीं बनते हैं, तो धारा 18 का प्रतिबंध लागू नहीं होता है, जिससे न्यायालयों को गुण-दोष के आधार पर अग्रिम जमानत पर विचार करने की अनुमति मिल जाती है।
- विधायी उद्देश्य: धारा 18 अधिनियम के निवारक प्रभाव को बनाए रखने और अभियुक्त व्यक्तियों को गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के माध्यम से परिणामों से बचने से रोकने के विधायी आशय को दर्शाती है, जबकि हालिया न्यायिक निर्वचन प्रथम दृष्टया परीक्षण आवश्यकता के माध्यम से दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा सुनिश्चित करती है।