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वाणिज्यिक विधि
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि
« »03-Sep-2025
ज्ञान चंद गर्ग बनाम हरपाल सिंह एवं अन्य "एक बार जब परिवादकर्त्ता ने डिफ़ॉल्ट राशि के पूर्ण और अंतिम निपटान में राशि को स्वीकार करते हुए समझौता विलेख पर हस्ताक्षर कर दिये हैं, तो परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन कार्यवाही नहीं चल सकती है, इसलिये, निचले न्यायालयों द्वारा दी गई समवर्ती दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया जाना चाहिये।" न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और संदीप मेहता ने निर्णय दिया कि एक बार परिवादकर्त्ता द्वारा पूर्ण समझौते को स्वीकार करते हुए समझौता विलेख पर हस्ताक्षर करने के बाद परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती है। उन्होंने उच्च न्यायालय के उस आदेश को अपास्त कर दिया, जिसमें अभियुक्त के संशोधन के आवेदन को खारिज कर दिया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने ज्ञान चंद गर्ग बनाम हरपाल सिंह एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
ज्ञान चंद गर्ग बनाम हरपाल सिंह एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- हरपाल सिंह ने ज्ञान चंद गर्ग के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन परिवाद दर्ज कराया, जिसमें अभिकथित गया कि अपीलकर्त्ता ने 5,00,000 रुपए की राशि उधार ली थी।
- उधार ली गई राशि के पुनर्भुगतान के लिये, अपीलकर्त्ता ने एक चेक (Ex. C-1) जारी किया, जिसे प्रस्तुत करने पर, "धन अपर्याप्त है" (Ex. C-2) के समर्थन के साथ वापस कर दिया गया।
- परिवादकर्त्ता ने सांविधिक प्रावधानों के अधीन अपीलकर्त्ता को विधिक नोटिस (Ex. C-4) जारी किया।
- यह परिवाद परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अधिकारिता प्राप्त मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर की गई थी।
- सुनवाई के पश्चात्, अपीलकर्त्ता को आपराधिक मामला संख्या 90/2009 में प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) द्वारा दिनांक 21.04.2010 के आदेश द्वारा दोषी ठहराया गया। अपीलकर्त्ता को छह माह के साधारण कारावास और 1,000 रुपए के जुर्माने का दण्ड दिया गया, जबकि व्यतिक्रम की दशा में उसे पंद्रह दिन के साधारण कारावास का दण्ड दिया गया।
- अपर सेशन न्यायाधीश ने दिनांक 14.09.2010 के आदेश द्वारा आपराधिक अपील संख्या 67/2010 में दोषसिद्धि की पुष्टि की । तत्पश्चात, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने दिनांक 27.03.2025 के आदेश द्वारा आपराधिक पुनरीक्षण याचिका संख्या 2563/2010 में पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी।
- पुनरीक्षण याचिका खारिज होने के बाद, दोनों पक्षकारों ने 06 अप्रैल 2025 को समझौता/ निपटान करार किया। इस समझौते के अधीन, परिवादकर्त्ता ने अपीलकर्त्ता द्वारा दोषमुक्त किये जाने की मांग पर कोई आक्षेप नहीं किया।
- समझौता निम्नलिखित बातों पर विचार करते हुए किया गया:
- दो डिमांड ड्राफ्ट संख्या 004348 दिनांक 04 अप्रैल 2025 और 004303 दिनांक 11.02.2025, प्रत्येक 2.5 लाख रुपए के।
- तीन चेक संख्या 354412 दिनांक 10 मई 2025, 354413 दिनांक 10.06.2025, तथा 354414 दिनांक 10.07.2025, प्रत्येक 1 लाख रुपए के।
- अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के 27 मार्च 2025 के आदेश में संशोधन की मांग करते हुए एक आवेदन (CRM No. 15127/2025) दायर किया, किंतु उच्च न्यायालय ने 09 अप्रैल 2025 को अग्रहणीयता (non-maintainability) के आधार पर इस आवेदन को खारिज कर दिया ।
- परिणामस्वरूप, अपीलकर्त्ता ने विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 8050/2025 के माध्यम से उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अपराध मुख्यतः एक सिविल अपराध है , जिसे परक्राम्य लिखतों की विश्वसनीयता को मजबूत करने के लिये आपराधिक परिणामों से युक्त किया गया है।
- न्यायालय ने कहा कि 2002 के संशोधन द्वारा सम्मिलित परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 147, धारा 138 के अंतर्गत अपराध को विशेष रूप से समझौता योग्य बनाती है, जिससे पक्षकारों को कार्यवाही के किसी भी चरण में विवादों को निपटाने की अनुमति मिलती है।
- न्यायालय ने धारा 138 के अपराधों को "आपराधिक भेड़ की पोशाक में सिविल भेड़" के रूप में वर्णित करने की बात दोहराई, तथा संकेत दिया कि यद्यपि इस उपबंध में आपराधिक दण्ड का उपबंध है, किंतु अंतर्निहित विवाद अनिवार्य रूप से निजी सिविल प्रकृति के हैं।
- न्यायालय ने कहा कि जब पक्षकार स्वेच्छा से समझौता करते हैं, तो वे ऐसा खुली आँखों से करते हैं, जोखिमों और लाभों को समझते हुए। ऐसे समझौते मूल परिवाद को समाहित कर लेते हैं और मूल और बाद के दोनों परिवादों पर कार्रवाई करके उन्हें उलटा नहीं किया जा सकता।
- न्यायालय ने कहा कि जब पक्षकार अपराधों को कम करने तथा मुकदमेबाजी की प्रक्रिया से स्वयं को बचाने के लिये करार करते हैं, तो न्यायालय ऐसे शमन को रद्द नहीं कर सकते तथा पक्षकारों के स्वैच्छिक निर्णय के विरुद्ध अपनी इच्छा नहीं थोप सकते।
- न्यायालय ने कहा कि एक बार जब परिवादकर्त्ता विवादित राशि के पूर्ण और अंतिम निपटान के रूप में एक राशि स्वीकार करते हुए समझौता विलेख पर हस्ताक्षर कर देता है, तो परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन कार्यवाही जारी नहीं रह सकती है, और समवर्ती दोषसिद्धि को अपास्त किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि विधायिका ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 147 के माध्यम से, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों के होते हुए भी, ऐसे अपराधों के शमन की स्पष्ट अनुमति दी है, विशेषकरत: जब पक्षकार स्वेच्छा से समझौता कर लेते हैं।
- न्यायालय ने विशेष रूप से उल्लेख किया कि इस मामले में समझौता बिना किसी दबाव के, स्वेच्छया से तथा परिवादकर्त्ता की स्वयं की इच्छा से किया गया था, जिससे यह विधिक रूप से बाध्यकारी और प्रभावी है।
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 क्या है ?
बारे में:
- धारा 138 के अधीन अपराध की श्रेणी में तब आता है जब किसी व्यक्ति द्वारा किसी बैंक में अपने खाते से किसी अन्य व्यक्ति को संदाय के लिये निकाला गया चेक अपर्याप्त धनराशि या सहमत ओवरड्राफ्ट सीमा से अधिक होने के कारण बिना संदाय के वापस कर दिया जाता है, जिससे लेखिवाल पर आपराधिक अभियोजन चलाया जा सकता है।
- लेखिवाल को दो वर्ष तक के कारावास या चेक की राशि के दोगुने तक के जुर्माने या ऐसे कारावास और जुर्माने दोनों से दण्डित किया जाएगा।
- चेक जारी होने की तिथि से छह मास के भीतर या इसकी वैधता अवधि के भीतर, जो भी पहले हो, बैंक को प्रस्तुत किया जाना चाहिये, अन्यथा इस धारा के अधीन कोई अपराध नहीं माना जाएगा।
- अपराध सिद्ध होने के लिये, चेक पाने वाला या धारक को बैंक से चेक अनादरण के संबंध में सूचना प्राप्त होने के तीस दिन के भीतर संदाय की मांग करते हुए, चेक लेखिवाल को लिखित सूचना देनी होगी।
- मांग नोटिस प्राप्त होने के बाद संदाय करने के लिये आहर्ता को पंद्रह दिन का समय दिया जाना चाहिये, तथा इस अवधि के भीतर संदाय न करने पर ही धारा 138 के अधीन आपराधिक दायित्त्व लागू होता है।
- यह धारा केवल विधिक रूप से लागू ऋण या अन्य देयता के भुगतान के लिये जारी किये गए चेकों पर लागू होती है, तथा यह सुनिश्चित करती है कि उपबंध वास्तविक वाणिज्यिक संव्यवहार की बात करता है, न कि अनावश्यक संदाय को।
निर्णय विधि:
- मेसर्स मीटर्स एंड इंस्ट्रूमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम कंचन मेहता (2018):
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अपराध मुख्यतः एक सिविल अपराध है और 2002 के संशोधन द्वारा सम्मिलित परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 147 द्वारा इसे विशेष रूप से शमनीय बनाया गया है। इस संविधि का उद्देश्य कारबार के संव्यवहार के सुचारू संचालन को सुगम बनाना था क्योंकि चेक के अनादरण से पाने वाले को अपूरणीय क्षति होती है और कारबार के संव्यवहार की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।
- मोहनराज एवं अन्य बनाम मेसर्स शाह ब्रदर्स इस्पात प्राइवेट लिमिटेड (2021):
- न्यायालय ने धारा 138 परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत अपराध को "आपराधिक भेड़ की खाल में सिविल भेड़" कहा। इस उपबंध के अंतर्गत पक्षकारों द्वारा उठाए गए विवाद्यक निजी प्रकृति के होते हैं, जिन्हें परक्राम्य लिखतों की विश्वसनीयता मज़बूत करने के लिये आपराधिक अधिकारिता के दायरे में लाया जाता है।
- मेसर्स जिम्पेक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम मनोज गोयल (2021):
- जब पक्षकार स्वेच्छया से समझौता करार करते हैं, तो उन्हें मूल परिवाद और गैर-अनुपालन से उत्पन्न होने वाले बाद के परिवाद, दोनों पर कार्रवाई करके परिणामों को उलटने की अनुमति नहीं दी जा सकती। समझौता करार मूल परिवाद को समाहित कर लेता है, और परिवादकर्त्ता खुली आँखों से संबंधित जोखिमों को उठाते हुए समझौता करते हैं।
- वी. शेषैया बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य (2023):
- जब पक्षकार करार करते हैं और अपराध का शमन करते हैं, तो वे ऐसा मुकदमेबाजी की प्रक्रिया से स्वयं को बचाने के लिये करते हैं। जब विधि ऐसे शमन की अनुमति दिति है, तो न्यायालय ऐसे शमन को रद्द नहीं कर सकतीं और पक्षकारों के स्वैच्छिक निर्णय के विरुद्ध अपनी इच्छा नहीं थोप सकते।