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पारिवारिक कानून
यदि पुत्र जीवित है तो पुत्री 1956 से पूर्व की मिताक्षरा संपत्ति की हकदार नहीं है
« »17-Oct-2025
श्रीमती रागमानिया (मृत) एल.आर.एस .बनाम जगमेत एवं अन्य "यह विधि का सुव्यवस्थित एवं स्थापित सिद्धांत है कि मिताक्षरा विधि के अनुसार, अधिनियम, 1956 के प्रवर्तन से पूर्व पुत्री अपने पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त नहीं करती थी। मिताक्षरा विधि के अधीन, किसी पुरुष की स्व-अर्जित संपत्ति भी केवल उसकी पुरुष संतान पर ही अवलंबित होती थी, तथा ऐसी पुरुष संतान के अभाव में ही वह अन्य उत्तराधिकारियों को स्थानांतरित होती थी। उत्तराधिकार के नियमों के अनुसार, किसी पुरुष की स्व-अर्जित संपत्ति उसके पुरुष उत्तराधिकारियों को ही प्राप्त होती थी, और केवल ऐसी संतान के अभाव में वह अन्य उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित की जाती थी।" न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार व्यास |
स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार व्यास ने यह अभिप्रेत किया कि मिताक्षरा विधि के अधीन, यदि किसी हिंदू पिता की मृत्यु वर्ष 1956 से पूर्व हो गई हो, तो उसकी पुत्री उस संपत्ति में उत्तराधिकारी नहीं होगी, यदि उसका कोई पुत्र जीवित है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि पुरुष उत्तराधिकारी के अभाव में पुत्री संपत्ति पर अधिकार का दावा कर सकती है, परंतु हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में वर्ष 2005 द्वारा किया गया संशोधन, 1956 से पूर्व की उत्तराधिकार संबंधी स्थितियों पर भूतलक्षी रूप से लागू नहीं होगा।
- छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने रागमानिया (मृत) थ्रू एल.आर.एस. बनाम जगमेत एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
श्रीमती रागमानिया (मृत) बनाम जगमेत एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अपीलकर्त्ता श्रीमती रागमनिया बैगादास की बहन थीं, दोनों सुधीनराम की संतान थी।
- रागमानिया की मृत्यु के पश्चात्, उनके विधिक उत्तराधिकारी करीमन दास को अपीलकर्त्ता के रूप में प्रतिस्थापित किया गया।
- प्रत्यर्थियों में जगमेत (बैगादास का पुत्र), बुधियारो (बैगादास की विधवा) और छत्तीसगढ़ राज्य सम्मिलित थे।
- परिवार हिंदू धर्म का पालन करता था और हिंदू विधि द्वारा शासित था।
- विवादित संपत्ति में छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के पुहपुत्रा गाँव की कृषि भूमि सम्मिलित थी।
- शुरुआत में यह जमीन सुधीनराम और उनके भाई बुधौ के नाम पर संयुक्त रूप से दर्ज थी।
- सुधीनराम की मृत्यु लगभग 1950-51 में हो गई थी, जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अधिनियमित होने से पहले की बात है।
- सुधीनराम की मृत्यु के समय अपीलकर्त्ता की आयु लगभग 10 वर्ष थी।
- सुधीनराम की मृत्यु के पश्चात्, बैगादास को संपूर्ण संपत्ति का अधिकार प्राप्त हो गया।
- बैगादास ने राजस्व अभिलेखों में अपना नामांतरण करा लिया।
- अपीलार्थी का विवाह बैगादास द्वारा उनके पिता की मृत्यु के बाद तय किया गया था।
- बैगादास ने अपनी पुत्री जगमीत के पक्ष में संपत्ति के नामांतरण के लिये नायब तहसीलदार के समक्ष आवेदन दायर किया।
- अपीलकर्त्ता को समाचार पत्र प्रकाशन के माध्यम से म्यू नामांतरण टेशन आवेदन के बारे में पता चला।
- अपीलकर्त्ता ने राजस्व वाद संख्या 13-ए-27/2002-03 में आपत्तियाँ दायर कीं, तथा अपने उचित अंश का दावा किया।
- बैगादास ने स्वीकार किया कि अपीलकर्त्ता उसकी बहन है, परंतु तर्क दिया कि विवाह के बाद उसका कोई अधिकार नहीं रह जाता।
- तहसीलदार ने 23 अगस्त 2003 को अपीलकर्त्ता की आपत्ति को खारिज कर दिया।
- अपीलकर्त्ता ने 6 अक्टूबर 2005 को सिविल वाद संख्या 181-A/2005 दायर किया जिसमें स्वामित्व और विभाजन की घोषणा की मांग की गई।
- प्रत्यर्थियों ने दलील दी कि सुधीनराम की मृत्यु हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से पहले 1950-51 में हो गई थी।
- प्रत्यर्थियों ने तर्क दिया कि उत्तराधिकार पुरानी मिताक्षरा विधि द्वारा शासित होगा।
- प्रत्यर्थियों ने तर्क दिया कि मिताक्षरा विधि के अधीन, जब तक पुरुष उत्तराधिकारी जीवित है, विवाहित पुत्री को कोई अधिकार नहीं है।
- अपीलकर्त्ता ने अपने वादपत्र में यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया कि सुधीनराम की मृत्यु कब हुई।
- साक्षी PW-3 ने प्रतिपरीक्षा में स्वीकार किया कि सुधीन की मृत्यु 17 अक्टूबर 2008 से 60 वर्ष पहले हो गई थी।
- इस स्वीकृति से यह स्थापित हो गया कि सुधीन की मृत्यु 1948-49 के आसपास हुई थी।
- विचरण न्यायालय ने 26 दिसंबर 2008 के निर्णय के अधीन वाद खारिज कर दिया।
- विचरण न्यायालय ने माना कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू नहीं होता क्योंकि मृत्यु 1956 से पहले हो गई थी।
- प्रथम अपीलीय न्यायालय ने 23 जनवरी 2014 को निर्णय की पुष्टि की।
- अपीलकर्त्ता ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील संख्या 178/2014 दायर की।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि निचले न्यायालयों ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के संशोधन की अनदेखी की है।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि चूँकि वादी सुधीन की मृत्यु के समय अभिवचन देने में असफल रहा तथा उसने प्रतिवादी के इस विशिष्ट अभिवचन का खंडन नहीं किया कि मृत्यु 1950-51 में हुई थी, तथा साथ ही PW-3 ने स्वीकार किया कि सुधीन की मृत्यु 2008 से 60 वर्ष पूर्व हो गई थी, इसलिये यह निश्चायक रूप से स्थापित हो गया कि सुधीन की मृत्यु हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से पूर्व, 1948-49 के आसपास हुई थी।
- न्यायालय ने कहा कि चूँकि सुधीन की मृत्यु 1956 से पहले हो गई थी, इसलिये उत्तराधिकार पुराने हिंदू विधि के अधीन शुरू हुआ और पक्षकार मिताक्षरा विधि द्वारा शासित होंगे, जिससे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और इसका 2005 का संशोधन इस मामले में पूरी तरह से अनुपयुक्त हो गया।
- न्यायालय ने इसे एक सुस्थापित विधि माना कि 1956 से पहले मृत व्यक्तियों पर लागू मिताक्षरा विधि के अधीन, एक पुत्री अपने पिता की संपत्ति, चाहे वह पैतृक हो या स्व-अर्जित, उत्तराधिकार पाने की हकदार नहीं है, क्योंकि ऐसी संपत्ति पूरी तरह से पुरुष संतान पर हस्तांतरित होती है, और केवल पुरुष संतान की अनुपस्थिति में ही पत्नी या पुत्री उत्तराधिकार प्राप्त कर सकती है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि हिन्दू उत्तराधिकार विधि (संशोधन) अधिनियम, 1929 ने शास्त्रीय हिंदू विधि की मौलिक अवधारणाओं को संशोधित नहीं किया है या पिता की संपत्ति में पुत्र के पूर्ण अधिकार को प्रभावित नहीं किया है, अपितु केवल उत्तराधिकारियों के दायरे को बढ़ाया है, जो पुरुष संतान न होने पर कुछ महिला उत्तराधिकारियों को सम्मिलित करके उत्तराधिकार प्राप्त कर सकते हैं।
- न्यायालय ने अर्शनूर सिंह बनाम हरपाल कौर (2020) और अरुणाचल गौंडर बनाम पोन्नुसामी (2022) में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर व्यापक रूप से विश्वास किया, जिसमें कहा गया कि यदि उत्तराधिकार 1956 से पहले पुराने हिंदू विधि के अधीन खुलता है, तो पक्षकार मिताक्षरा विधि द्वारा शासित होंगे, जिसमें लड़की केवल लड़के की अनुपस्थिति में ही अधिकार का दावा कर सकती है।
- न्यायालय ने निश्चित रूप से यह माना कि जब मिताक्षरा विधि द्वारा शासित किसी हिंदू की मृत्यु 1956 से पहले हो जाती है, तो उसकी पृथक् संपत्ति पूरी तरह से उसके पुत्र को अंतरित हो जाती है, और तदनुसार, सुधीन की मृत्यु पर उसकी संपत्ति पूरी तरह से बैगादास को हस्तांतरित हो जाती है, जिन्होंने सही ढंग से अपने अधिकारों को प्रतिवादियों को हस्तांतरित कर दिया।
- न्यायालय ने प्रतिवादियों के पक्ष में नामांतरण के आदेश में कोई अवैधता नहीं पाई तथा यह माना कि संपत्ति विभाज्य नहीं है, जिससे वादी-अपीलकर्त्ता के विरुद्ध विधि के सभी तीन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर मिल गया, तथा परिणामस्वरूप लागत के संबंध में कोई आदेश दिये बिना द्वितीय अपील को खारिज कर दिया गया।
मिताक्षरा विधि और पुत्रियों के उत्तराधिकार अधिकार के संबंध में क्या जानकारी दी गई?
- हिंदू विधि की मिताक्षरा स्कूल:
- मिताक्षरा विधि, प्राचीन शास्त्रीय ग्रंथों और स्मृतियों पर आधारित, 1956 से पहले उत्तराधिकार को नियंत्रित करने वाली हिंदू विधि की प्राचीन पद्धति है।
- मिताक्षरा विधि के अधीन, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र जन्म के समय पैतृक संपत्ति में अधिकार प्राप्त कर लेते हैं, जिससे सहदायिकी अधिकार का निर्माण होता है।
- पुत्र को अपने पिता की संपत्ति में अंश जन्म से ही मिलता है, पिता की मृत्यु या उत्तराधिकार से नहीं।
- जब कोई पुरुष अपने पूर्वजों से तीन डिग्री तक की संपत्ति विरासत में प्राप्त करता है, तो उसके तीन डिग्री नीचे तक के पुरुष उत्तराधिकारियों को स्वतः ही समान सहदायिकी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं।
- हिंदू उत्तराधिकार विधि (संशोधन) अधिनियम, 1929:
- 1929 का अधिनियम सबसे पहला सांविधिक विधायन था, जिसमें कुछ महिला उत्तराधिकारियों को सम्मिलित करके हिंदू महिलाओं को उत्तराधिकार योजना में सम्मिलित किया गया।
- 1929 के अधिनियम की धारा 1 केवल पुरुषों की उस संपत्ति पर लागू होती है जो सहदायिकी नहीं है और जिसका वसीयत द्वारा निपटान नहीं किया गया है।
- धारा 2 में पिता के पिता के बाद उत्तराधिकार क्रम में पुत्र की पुत्री, पुत्री की पुत्री, बहन और बहन के पुत्र को सम्मिलित किया गया, किंतु पुत्रियों को पुत्रों के समान दर्जा नहीं दिया गया।
- धारा 3 में उपबंध है कि 1929 के अधिनियम के अधीन महिलाओं को मिताक्षरा विधि के अधीन महिलाओं के पास विद्यमान संपत्ति से अधिक संपत्ति नहीं दी जाएगी।
- 1929 के अधिनियम ने उत्तराधिकार के अधिकारों में कोई परिवर्तन किये बिना कुछ महिला उत्तराधिकारियों का वर्गीकरण 'बंधुओं' से बदलकर 'गोत्र सपिंडों' में कर दिया।
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956:
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 ने हिंदुओं के बीच बिना वसीयत के उत्तराधिकार विधियों को संहिताबद्ध और सुधार कर क्रांतिकारी परिवर्तन लाया।
- धारा 8 ने पुरानी स्थिति को परिवर्तित कर दिया जिसके अनुसार 1956 के बाद विरासत में मिली स्व-अर्जित संपत्ति सहदायिक संपत्ति नहीं बनती।
- 1956 का अधिनियम केवल इसके प्रारंभ होने के बाद आरंभ होने वाले उत्तराधिकारों पर लागू होता है, अर्थात् जहाँ मृतक की मृत्यु 17 जून 1956 को या उसके बाद हुई हो।
- धारा 6 को 2005 में संशोधित किया गया था, जिससे पुत्रियों को समान सहदायिकी अधिकार प्रदान किये गए, किंतु यह केवल भावी रूप से लागू होता है, 1956 से पूर्व के उत्तराधिकारियों पर नहीं।
- धारा 14 ने विधवाओं के सीमित हित को पूर्ण स्वामित्व में परिवर्तित कर दिया, किंतु यह केवल वहीं लागू होता है जहाँ विधवा अधिनियम के लागू होने के बाद भी जीवित रही हो।
- 1956 अधिनियम की प्रयोज्यता उत्तराधिकार खुलने के समय (मृत्यु की तिथि) पर निर्भर करती है, न कि अधिकारों का दावा करने या वाद दायर करने की तिथि पर।
- हिंदू महिला अधिकार और स्वामित्व अधिकार अधिनियम, 1937:
- 1937 के अधिनियम की धारा 3 के अनुसार विधवाओं को पति की संपत्ति में केवल सीमित अधिकार दिया गया, पूर्ण स्वामित्व नहीं।
- यदि विधवा ने 1956 के बाद भी कब्जा जारी रखा तो धारा 14 के अधीन भूमिस्वामी के रूप में उसका सीमित अधिकार पूर्ण अधिकार में परिवर्तित हो जाता है।
- 1956 से पहले और 1956 के बाद के कानून के बीच अंतर:
- 1956 से पहले के कानून के तहत पैतृक पुरुष पूर्वजों से विरासत में मिली संपत्ति सहदायिक संपत्ति बनी रही, जिससे पुरुष वंशजों को अधिकार प्राप्त हुए।
- 1956 के बाद, पैतृक पूर्वजों से विरासत में प्राप्त स्व-अर्जित संपत्ति, सह-दायित्व वाली संपत्ति न होकर स्व-अर्जित संपत्ति बन जाती है।
- संपत्ति की प्रकृति और उत्तराधिकार के अधिकार उत्तराधिकार खुलने पर लागू कानून द्वारा निर्धारित होते हैं, न कि बाद में होने वाले विधायी परिवर्तनों द्वारा।
- विभिन्न विधिक व्यवस्थाओं के अधीन पुत्रियों के अधिकार:
- 1956 से पहले मिताक्षरा विधि के अधीन, यदि पुत्र जीवित हो तो पुत्री को उत्तराधिकार का कोई अधिकार नहीं था, क्योंकि संपत्ति केवल पुरुष के अंश में ही आती थी।
- पुत्री पिता की पृथक् संपत्ति का उत्तराधिकार केवल तभी प्राप्त कर सकती है जब कोई पुत्र न हो, उत्तराधिकार क्रम में उसका स्थान पाँचवाँ है।
- 1929 के अधिनियम के बाद भी, यदि पिता की मृत्यु 1956 से पहले हो जाती थी तो पुत्रियों को पुत्रों के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे।
- पुत्रियों के अधिकारों को 1956 के बाद बढ़ाया गया तथा 2005 के संशोधन द्वारा और मजबूत किया गया, किंतु ये केवल संबंधित अधिनियमन तिथियों के बाद शुरू होने वाले उत्तराधिकारों पर ही लागू होते हैं।