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सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 7 नियम 11
« »17-Oct-2025
करम सिंह बनाम अमरजीत सिंह और अन्य "तत्संबंधी वादपत्र के नामंजूर करने पर विचार करते समय, केवल वादपत्र में दिये गए कथनों पर ही विचार किया जाना है, अन्य किसी बात पर नहीं, जिससे यह पता लगाया जा सके कि वाद विधि द्वारा वर्जित है या नहीं। इस स्तर पर, बचाव पक्ष पर विचार नहीं किया जाना है। इस प्रकार, वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है या नहीं, इसका अवधारण वादपत्र में दिये गए कथनों के आधार पर किया जाना है।" न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने स्पष्ट किया है कि सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 7 नियम 11 के अधीन किसी वादपत्र का नामंजूर करना केवल वादपत्र के कथनों पर आधारित होना चाहिये, प्रतिवादी की प्रतिरक्षा या बाहरी साक्ष्य पर विचार किये बिना। पीठ ने इस बात पर बल दिया कि कोई वाद विधि द्वारा वर्जित है या नहीं, इसका अवधारण केवल वादपत्र से ही होना चाहिये, न कि प्रतिवादी द्वारा उठाए गए तथ्यों से।
- उच्चतम न्यायालय ने करम सिंह बनाम अमरजीत सिंह एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
करम सिंह बनाम अमरजीत सिंह एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अपीलकर्त्ता ने दिलबाग सिंह के साथ मिलकर एक सिविल वाद दायर किया, जिसमें कृषि भूमि पर स्वामित्व की घोषणा, उस पर कब्जा, अंत:कालीन लाभ और प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थायी व्यादेश की मांग की गई।
- इस भूमि के मूल स्वामी रौनक सिंह उर्फ रौनाकी थे, जिनकी 5 अक्टूबर 1924 को बिना वसीयत के मृत्यु हो गई थी, तथा वे अपने पीछे विधवा करतार कौर को छोड़ गए थे।
- करतार कौर और चिंकी व निक्की, जो रौनक सिंह की बहनें और वादी पक्ष की हित-पूर्ववर्ती थीं, के बीच उत्तराधिकार का विवाद उत्पन्न हुआ।
- उत्तराधिकार विवाद के लंबित रहने के दौरान, करतार कौर ने कथित तौर पर वादग्रस्त संपत्ति के संबंध में हरचंद नामक व्यक्ति के पक्ष में एक दान विलेख निष्पादित किया।
- रौनक सिंह की बहनों ने सिविल न्यायालय में दान विलेख की वैधता को चुनौती दी।
- 22 मार्च 1935 को सिविल न्यायालय ने इस आधार पर दान विलेख को अवैध घोषित कर दिया कि करतार कौर के पास संपत्ति पर केवल सीमित अधिकार थे।
- 11 सितंबर 1975 के आदेश द्वारा दान विलेख को अपास्त कर दिया गया तथा करतार कौर को विवादित भूमि का स्वामी घोषित कर दिया गया।
- इस आदेश के परिणामस्वरूप, 13 मई 1976 को करतार कौर के पक्ष में नामांतरण स्वीकृत किया गया।
- नामांतरण की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान 28 दिसंबर 1983 को करतार कौर की मृत्यु हो गई।
- उनकी मृत्यु के बाद, प्रतिवादियों ने 15 दिसंबर 1976 की एक रजिस्ट्रीकृत वसीयत प्रस्तुत की, जिसे कथित तौर पर करतार कौर ने उनके पक्ष में निष्पादित किया था, और उसके आधार पर नामांतरण का दावा किया।
- 29 अप्रैल 1984 के आदेश द्वारा राजस्व प्राधिकारियों ने प्राकृतिक उत्तराधिकार के आधार पर रौनक सिंह की बहन के विधिक प्रतिनिधियों के पक्ष में नामांतरण का आदेश दिया, तथा वसीयत के आधार पर प्रतिवादियों के दावे को खारिज कर दिया।
- प्रतिवादियों द्वारा दायर अपील को कलेक्टर ने 15 अप्रैल 1985 के आदेश द्वारा खारिज कर दिया।
- प्रतिवादियों ने मुकदमेबाजी के लगातार दौर के माध्यम से नामांतरण मामले को उच्च न्यायालयों तक पहुँचाया।
- नामांतरण की कार्यवाही से उत्पन्न मुकदमेबाजी अंततः 20 जुलाई 2017 को वादी के विरुद्ध समाप्त हो गई।
- तत्पश्चात्, वादियों ने 31 मई 2019 को वर्तमान में वाद दायर किया, जिसमें उन्होंने स्वयं को रौनक सिंह की बहनों के माध्यम से करतार कौर का स्वाभाविक उत्तराधिकारी होने का दावा किया।
- वादियों ने 15 दिसंबर 1976 की वसीयत को अकृत और शून्य और कपटपूर्ण कृत्य बताते हुए चुनौती दी तथा अपने स्वामित्व की घोषणा की मांग की।
- प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11(घ) के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें इस आधार पर वादपत्र को नामंजूर करने की मांग की गई कि वाद परिसीमा द्वारा वर्जित है।
- प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि चूँकि वसीयत 1983 में बनाई गई थी और वादियों को नामांतरण की कार्यवाही के दौरान इसके अस्तित्व के बारे में पूरी जानकारी थी, इसलिये वसीयत को चुनौती देने वाली घोषणा के लिये वाद दायर करने पर तीन वर्ष की परिसीमा के कारण वर्जित था।
- प्रतिवादियों ने वादी संख्या 1 के पिता द्वारा दायर सिविल वाद संख्या 648/2012 के संबंध में महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाने का भी आरोप लगाया, जिसमें वसीयत को चुनौती दिये बिना ही नामांतरण आदेश को चुनौती दी गई थी, और वादपत्र को 17 मई 2013 के आदेश के अधीन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन नामंजूर कर दिया गया था।
- प्रतिवादियों ने दावा किया कि वर्तमान वाद पूर्ववर्ती वाद के कारण सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 2 नियम 2 द्वारा वर्जित है।
- विचारण न्यायालय ने 7 जनवरी 2020 के आदेश के अधीन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन प्रतिवादियों के आवेदन को नामंजूर कर दिया, जिसमें कहा गया कि वाद पूर्व दृष्टया परिसीमा द्वारा वर्जित नहीं था और परिसीमा का प्रश्न विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न था।
- इससे व्यथित होकर प्रतिवादियों ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष सिविल पुनरीक्षण याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय ने 27 जनवरी 2022 के एकपक्षीय आदेश के अधीन पुनरीक्षण को अनुमति दे दी और वाद को नामंजूर कर दिया।
- वादी द्वारा दायर रिकॉल आवेदन को 4 जुलाई 2022 के आदेश द्वारा खारिज कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 7 नियम 11(घ) के अधीन किसी वादपत्र को नामंजूर करने पर विचार करते समय, केवल वादपत्र में दिये गए कथनों पर विचार किया जाना चाहिये जिससे यह पता लगाया जा सके कि क्या वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है, और इस स्तर पर प्रतिपक्ष को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि न वादपत्र और न ही अभिलेख में विद्यमान किसी दस्तावेज़ से यह संकेत मिलता है कि करतार कौर द्वारा कथित रूप से निष्पादित वसीयत की जांच की गई थी या इसकी वैधता का परीक्षण किया गया था और नियमित सिविल कार्यवाही में इसे बरकरार रखा गया था।
- नामांतरण प्रविष्टियाँ स्वामित्व प्रदान नहीं करती हैं तथा इनका उद्देश्य केवल उस व्यक्ति से कर वसूलना होता है जिसका नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज है।
- वादपत्र में यह दर्शाया गया है कि नामांतरण की कार्यवाही 2017 में पूरी हो गई थी और उसके तीन वर्ष के भीतर वाद संस्थित कर दिया गया था।
- यह वाद केवल वसीयत को अकृत और शून्य घोषित करने के लिये नहीं था, अपितु स्वामित्व के आधार पर कब्जे के लिये भी था।
- जहाँ कोई वाद स्वामित्व के आधार पर अचल संपत्ति के कब्जे के लिये है, वहाँ परिसीमा काल बारह वर्ष है, जब प्रतिवादियों का कब्जा वादी के प्रतिकूल हो जाता है, जैसा कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 65 के अनुसार है।
- प्रतिवादियों ने प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से अपना स्वामित्व पूर्ण किया है या नहीं, यह विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है और इसका समाधान केवल साक्ष्य प्रस्तुत किये जाने के बाद ही किया जा सकता है, तथा इसे वादपत्र को प्रारंभ में ही नामंजूर करने का आधार नहीं बनाया जा सकता।
- जहाँ किसी वाद में कई अनुतोष मांगे जाते हैं, यदि उनमें से कोई भी परिसीमा काल के भीतर है, तो वादपत्र को सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11(घ) के अधीन विधि द्वारा वर्जित होने के कारण नामंजूर नहीं किया जा सकता है।
- यद्यपि स्वामित्व की घोषणा के लिये वाद दायर करने की परिसीमा तीन वर्ष है, किंतु स्वामित्व के आधार पर कब्जे की वसूली के लिये परिसीमा उस तिथि से बारह वर्ष है, जिस तिथि से कब्जा प्रतिकूल हो जाता है।
- चूँकि हितबद्ध पूर्ववर्ती द्वारा दायर प्रथम वाद का विचारण नहीं हुआ था और वादपत्र को सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन नामंजूर कर दिया गया था, इसलिये उचित अनुतोष के साथ एक नया वाद सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 2 नियम 2 द्वारा प्रथम दृष्टया वर्जित नहीं किया जा सकता है।
- उच्च न्यायालय ने वादपत्र के कथनों पर समग्रता से विचार नहीं किया तथा केवल इस तथ्य से प्रभावित हुआ कि वसीयत छत्तीस वर्ष पुरानी थी, तथा इस बात को नजरअंदाज कर दिया कि वसीयत की वैधता पर नामांतरण कार्यवाही के दौरान प्रश्न उठाए गए थे, जिसका निपटारा 2017 में हुआ था।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया तथा विचारण न्यायालय के आदेश को बहाल कर दिया, तथा विचारण न्यायालय को वाद को आगे बढ़ाने का निदेश दिया तथा स्पष्ट किया कि उसकी टिप्पणियों को विवाद्यकों के गुण-दोष पर राय के रूप में नहीं लिया जाएगा।
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 7 नियम 11 - वादपत्र की नामंजूरी क्या है?
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 में इसके अंतर्गत उल्लिखित विशिष्ट परिस्थितियों में वादपत्र को नामंजूर करने का उपबंध है।
- खण्ड (क) के अनुसार, जहाँ वाद-हेतुक प्रकट नहीं गया है, वहाँ वादपत्र को नामंजूर कर दिया जाएगा।
- खण्ड (ख) में उन मामलों में नामंजूरी का उपबंध है, जहाँ दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन कम किया गया है और वादी मूल्यांकन को ठीक करने के लिये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किये जाने पर उस समय के भीतर जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है।
- खण्ड (ग) उन मामलों से संबंधित है जहाँअनुतोष राहत का उचित मूल्यांकन किया गया है, किंतु वादपत्र पर पर्याप्त स्टाम्प नहीं लगा है, और वादी विहित समय के भीतर अपेक्षित स्टाम्प-पेपर उपलब्ध कराने में असफल रहता है।
- खण्ड (घ) के अनुसार, जहाँ वादपत्र में के कथन से यह प्रतीत होता है कि वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है।
- खण्ड (ङ) में उस स्थिति में नामंजूरी का उपबंध है, जब वादपत्र दो प्रतियों में दाखिल नहीं किया गया हो।
- खण्ड (च) में उस स्थिति में नामंजूरी का उपबंध है, जहाँ वादी नियम 9 के उपबंधों का अनुपालन करने में असफल रहता है।
- परंतुक में यह उपबंध है कि मूल्यांकन की शुद्धि के लिये या अपेक्षित स्टाम्प पत्र के देने के लिये न्यायालय द्वारा नियत समय तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा जब तक कि न्यायालय का अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से यह समाधान हो जाता है कि वादी किसी असाधारण कारण से, न्यायालय द्वारा नियत समय के भीतर, यथास्थिति, मूल्यांकन की शुद्धि करने या अपेक्षित स्टांप-पत्र के देने से रोक दिया गया था और ऐसे समय के बढ़ाने से इंकार किये जाने से वादी के प्रति गंभीर अन्याय होगा।
- आदेश 7 नियम 11 के अधीन किसी वादपत्र को नामंजूर करने की शक्ति एक असाधारण शक्ति है और इसका प्रयोग बहुत सावधानी और सतर्कता के साथ किया जाना चाहिये।
- खण्ड (घ) के अंतर्गत न्यायालय को वादपत्र में दिये गए कथनों से ही यह अवधारित करना होगा कि क्या वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है, जिसमें परिसीमा विधि भी सम्मिलित है।
- आदेश 7 नियम 11(घ) के अधीन जांच का दायरा वाद्प्त्र और उसके साथ संलग्न या उसमें संदर्भित दस्तावेज़ों तक सीमित है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन आवेदन पर निर्णय करते समय प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत प्रतिरक्षा पर विचार नहीं किया जा सकता।
- इस शक्ति का प्रयोग केवल स्पष्ट और प्रत्यक्ष मामलों में ही किया जाना चाहिये, जहाँ वादपत्र पूर्वदृष्टया वर्जित हो।
- जहाँ परिसीमा अवधारण के लिये साक्ष्य की जांच या विधि और तथ्य के मिश्रित प्रश्नों पर विचार की आवश्यकता होती है, वहाँ वादपत्र को खण्ड (घ) के अधीन नामंजूर नहीं किया जा सकता।
- आदेश 7 नियम 11 के अधीन नामंजूरी के लिये आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय वादपत्र की चारदीवारी से आगे नहीं जा सकता।
- जहाँ कई अनुतोषों का दावा किया गया हो और यहाँ तक कि एक अनुतोष भी परिसीमा के भीतर हो, तो वादपत्र को विधि द्वारा वर्जित होने के कारण पूरी तरह से नामंजूर नहीं किया जा सकता।
- इस उपबंध का उपयोग केवल तकनीकी आधार पर, योग्यता के आधार पर पूर्ण निर्णय लिये बिना, वास्तविक दावों को खारिज करने के लिये नहीं किया जाना चाहिये।