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वाणिज्यिक विधि
माध्यस्थम् पंचाटों में ब्याज के उपबंध
« »05-Sep-2025
ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स जी. एंड टी. बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड “किसी भी विलंबित संदाय/विवादित दावे पर ONGC द्वारा कोई ब्याज देय नहीं होगा।” न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने यह निर्णय दिया कि यदि किसी संविदा में स्पष्ट रूप से निषेध न हो, तो माध्यस्थम् अधिकरण वादकालीन ब्याज प्रदान कर सकता है। न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया कि विलंबित संदायों पर ब्याज को निषिद्ध करने वाली संविदात्मक धारा, इस अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करती। इस संदर्भ में ओ.एन.जी.सी. (ONGC) की अपील को निरस्त कर दिया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स एसजी एंड टी बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स एस.जी. एंड टी बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड (ONGC) ने ड्रिलिंग सेवाओं के लिये मेसर्स जी. एंड टी. बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड के साथ एक संविदा की। इस संविदा के अधीन, जी. एंड टी. बेकफील्ड ने प्रदान की गई सेवाओं के लिये कई चालान जारी किये, किंतु ONGC ने विभिन्न आधारों पर संदाय रोक दिया।
- संविदा में धारा 18.1 सम्मिलित थी, जिसमें निर्दिष्ट किया गया था कि ONGC उचित रूप से प्रमाणित चालान प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर संदाय की व्यवस्था करेगी। इस धारा में यह भी उपबंध था कि यदि ONGC किसी चालान में किसी भी मद पर प्रश्न उठाती है, तो वह विवादित राशि का संदाय मामले के समाधान तक रोक सकती है, किंतु विवादित न होने वाली राशि का संदाय निर्धारित अवधि के भीतर किया जाना था। महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस धारा में कहा गया था: "किसी भी विलंबित संदाय/विवादित दावे पर ONGC द्वारा कोई ब्याज देय नहीं होगा।"
- जब लगभग 6,56,272.34 अमेरिकी डॉलर के अवैतनिक चालानों पर विवाद उत्पन्न हुआ, तो मामला 12 दिसंबर 1998 को तीन सदस्यीय माध्यस्थम् अधिकरण को सौंप दिया गया। जी. एंड टी. बेकफील्ड ने ड्रिलिंग कार्यों में खोए गए औजारों के लिये शुल्क, विमुद्रीकरण शुल्क सहित विभिन्न चालानों के लिये संदाय का दावा किया, और अनुचित रूप से काटे गए निष्पादित बंधपत्र की राशि को जारी करने की मांग की।
- माध्यस्थम् अधिकरण ने 21 नवंबर 2004 के अपने निर्णय में जी. एंड टी. बेकफील्ड के अधिकांश दावों को स्वीकार कर लिया, किंतु प्रत्येक वाद-हेतुक की तिथि से व्यक्तिगत चालानों पर ब्याज के दावों को खारिज कर दिया। यद्यपि, अधिकरण ने 12 दिसंबर 1998 (वह तिथि जब दावे का विवरण अधिकरण के समक्ष पुष्टि किया गया था) से वसूली तक कुल निर्धारित राशि पर 12% प्रति वर्ष की दर से ब्याज और 5 लाख रुपए का जुर्माना लगाया।
- ONGC ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अधीन जिला न्यायाधीश के समक्ष इस निर्णय को चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि यह निर्णय तर्कहीन था और धारा 18.1 किसी भी ब्याज संदाय पर रोक लगाती है। जिला न्यायाधीश ने ONGC की अर्जी स्वीकार कर ली और इन आधारों पर माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त कर दिया।
- इसके बाद जी. एंड टी. बेकफील्ड ने अधिनियम की धारा 37(1)(ग) के अधीन गुवाहाटी उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने जिला न्यायाधीश के निर्णय को पलट दिया और माध्यस्थम् पंचाट को पूरी तरह से बरकरार रखा। इसके बाद ONGC ने एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय का रुख किया, जिसमें केवल इस प्रश्न तक सीमित सूचना दी गई थी कि क्या कुल दी गई राशि पर ब्याज दिया जा सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि माध्यस्थम् अधिकरण वादकालीन ब्याज (माध्यस्थम् के दौरान) प्रदान कर सकते हैं, जब तक कि संविदात्मक करार अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से ऐसे पंचाटों को प्रतिबंधित न करें।
- माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 31(7) के अधीन, अधिकरणों को तीन अलग-अलग अवधियों के लिये ब्याज अधिनिर्णय देने का अधिकार है: पूर्व-संदर्भ (माध्यस्थम् से पहले), वादकालीन (माध्यस्थम् के दौरान), और पंचाट के पश्चात्। जबकि पूर्व-संदर्भ और वादकालीन ब्याज पक्षकारों के करारों के अधीन हैं, पंचाट के पश्चात् का ब्याज सांविधिक है और पक्षकार इससे बाहर नहीं निकल सकते।
- न्यायालय ने पाया कि धारा 18.1 केवल ONGC को विलंबित भुगतानों पर ब्याज देने से रोकती है, किंतु अधिकरण की लंबित ब्याज देने की सांविधिक शक्ति को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं करती। अधिकरण ने विभिन्न प्रकार के ब्याज के बीच उचित रूप से अंतर किया था - पूर्व-संदर्भ ब्याज को अस्वीकार करते हुए, किंतु दावा दायर करने की तिथि से लंबित ब्याज देना।
- न्यायालय ने इसे सईद अहमद एंड कंपनी और THDC जैसे मामलों जैसे पूर्व निर्णयों से अलग बताया, जहाँ व्यापक निषेधों में "किसी भी तरह से" या "किसी भी शीर्षक के अंतर्गत" जैसे वाक्यांशों का प्रयोग किया गया था। इन मामलों में केवल विलंबित भुगतान परिदृश्यों से परे स्पष्ट संविदात्मक प्रतिबंध सम्मिलित थे।
- न्यायालय ने कहा कि 12% ब्याज दर उचित थी, जो उस समय की 18% वार्षिक की सांविधिक दर से कम थी। अधिकरण द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग विधिक सीमाओं के भीतर पाया गया।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि माध्यस्थम् अधिकरणों को लंबित ब्याज देने के उनके अधिकार से तभी वंचित किया जा सकता है जब करारों में स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थों के आधार पर ऐसे निर्णयों को प्रतिबंधित किया गया हो। केवल विलंबित संदयों पर ब्याज पर रोक लगाने वाले खण्ड को लंबित ब्याज पर रोक लगाने के रूप में आसानी से नहीं समझा जाएगा।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि धारा 18.1 में अधिकरण के सांविधिक विवेक को सीमित करने के लिये आवश्यक व्यापक निषेधात्मक भाषा का अभाव था, तथा इसमें माध्यस्थम् पंचाट में न्यायिक हस्तक्षेप की कोई त्रुटि नहीं पाई गई।
माध्यस्थम् पंचाटों में ब्याज उपबंध क्या हैं ?
- बारे में :
- माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 31(7) मौद्रिक माध्यस्थम् पंचाटों में ब्याज देने के लिये व्यापक उपबंध स्थापित करती है, जिसमें पंचाट-पूर्व और पंचाट-पश्चात् ब्याज गणना दोनों सम्मिलित हैं।
- पंचाट-पूर्व- ब्याज [उपधारा 7(क)]:
- जब तक कि पक्षकार अन्यथा सहमत न हों, माध्यस्थम् अधिकरणों के पास धन संबंधी पंचाटों पर ब्याज सम्मिलित करने का विवेकाधीन अधिकार होता है।
- अधिकरण संपूर्ण राशि या उसके किसी भाग पर, जो वह उचित समझे, ब्याज दर पर, वाद-हेतुक उत्पन्न होने से लेकर निर्णय की तिथि तक की अवधि की बात करते हुए, ब्याज दे सकता है।
- यह उपबंध विवाद समाधान कार्यवाही के दौरान धन के समय मूल्य के लिये प्रतिकर को सुनिश्चित करता है।
- पंचाट-पश्चात ब्याज [उपधारा 7(ख)]:
- एक बार माध्यस्थम् पंचाट हो जाने पर, किसी भी निदेशित भुगतान पर निर्णय की तिथि से लेकर वास्तविक भुगतान तक स्वचालित रूप से ब्याज लग जाता है, जब तक कि निर्णय में विशेष रूप से अन्यथा निदेश न दिया गया हो।
- ब्याज दर सांविधिक रूप से पंचाट तिथि पर प्रचलित वर्तमान ब्याज दर से दो प्रतिशत अधिक निर्धारित की गई है।
- यह अनिवार्य उप्बंह पंचाटों के शीघ्र अनुपालन को प्रोत्साहित करता है तथा विलंबित संदाय के लिये सफल पक्षकारों को प्रतिकर देता है।
- प्रमुख विशेषताएँ:
- पंचाट-पूर्व ब्याज विवेकाधीन है और इसके लिये अधिकरण के निर्णय की आवश्यकता होती है।
- पंचाट के पश्चात् ब्याज स्वतः प्राप्त होता है जब तक कि स्पष्ट रूप से अपवर्जित न किया गया हो।
- प्रत्येक चरण के लिये अलग-अलग दर तंत्र लागू होते हैं।
- अधिकरणों को पंचाट-पूर्व ब्याज गणना में लचीलापन प्राप्त है।
- पंचाट के पश्चात् की दरें मानकीकृत और बाजार से जुड़ी होती हैं।
- ये उपबंध न्यायिक विवेकाधिकार को सांविधिक निश्चितता के साथ संतुलित करते हैं, उचित प्रतिकर सुनिश्चित करते हुए समय पर निर्णय के अनुपालन को प्रोत्साहित करते हैं। यह दोहरा दृष्टिकोण कार्यवाही के दौरान प्रतिकर के लिये भिन्न-भिन्न नीतिगत विचारों और प्रवर्तन चरणों को मान्यता देता है।