होम / करेंट अफेयर्स
सांविधानिक विधि
प्रथम सूचना रिपोर्ट और आरोप-पत्र रद्द करने की अधिकारिता
«09-Sep-2025
प्रज्ञा प्रांजल कुलकर्णी बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य "जब तक अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाता, तब तक अनुच्छेद 226 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR)/आरोप पत्र को रद्द करने के लिये रिट या आदेश जारी किया जा सकता है; यद्यपि, एक बार संज्ञान लेने का न्यायिक आदेश हस्तक्षेप करता है, तो अनुच्छेद 226 के अधीन शक्ति का प्रयोग करने के लिये उपलब्ध नहीं होने पर भी, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528, के अधीन शक्ति का प्रयोग करने के लिये उपलब्ध है।" न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और प्रशांत कुमार मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने प्रज्ञा प्रांजल कुलकर्णी बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया और विभिन्न विधिक प्रावधानों के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), आरोप-पत्र और संज्ञान आदेशों को रद्द करने के लिये अधिकारिता संबंधी ढाँचे को स्पष्ट किया।
प्रज्ञा प्रांजल कुलकर्णी बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता ने भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के अधीन बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 के साथ धारा 420, 406 और 409 के अधीन दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग की गई।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) 12 सितंबर, 2024 को एम.आई.डी.सी. पुलिस थाने, सोलापुर में दर्ज की गई, जिसका C.R. No. 648/2024 था।
- रिट याचिका के लंबित रहने के दौरान, पुलिस ने अन्वेषण पूर्ण किया और 14 मई, 2025 को विचारण न्यायालय के समक्ष आरोप-पत्र दायर किया।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने 1 जुलाई, 2025 को रिट याचिका को खारिज कर दिया , यह कहते हुए कि आरोप-पत्र दाखिल होने के बाद यह निष्फल हो गया था, और उसने नीता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विश्वास किया।
- उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के पक्ष में विचारण न्यायालय में आरोपमुक्ति आवेदन दायर करने का उपचार सुरक्षित रखा।
- याचिकाकर्त्ता ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
मुख्य अवलोकन:
- उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान मामले और नीता सिंह के बीच "स्पष्ट तथ्यात्मक असमानता" का उल्लेख किया, तथा इस बात पर बल दिया कि बॉम्बे उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने "नीता सिंह (सुप्रा) को गलत पढ़ा, अनजाने में ऊपर बताई गई तथ्यात्मक असमानता को नोटिस करना छोड़ दिया और परिणामस्वरूप, इस तरह के निर्णय के अनुपात को गलत तरीके से लागू किया।"
- न्यायालय ने कहा कि नीता सिंह मामले में रिट याचिका संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन ही दायर की गई थी और आपराधिक न्यायालय द्वारा पहले ही संज्ञान ले लिया गया था, जिससे याचिका निष्फल हो गई।
- यद्यपि, वर्तमान मामले में, याचिका में अनुच्छेद 226 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 दोनों का आह्वान किया गया था, और यह स्पष्ट नहीं था कि मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिया गया था या नहीं।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "चूँकि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन उसकी अधिकारिता का भी उपयोग किया गया था और दावा किये गए अनुतोष को उचित रूप से ढाला जा सकता था, बशर्ते कि न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो कि तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर रद्द करने का आदेश उचित है।"
- न्यायालय ने कहा कि बॉम्बे उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप "न्याय की विफलता" हुई।
प्रमुख विधिक सिद्धांत:
पूर्व-संज्ञान चरण:
- संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिये जाने से पहले प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) और आरोप-पत्र रद्द किये जा सकते हैं।
- इस स्तर पर ऐसी याचिकाओं की जांच करने का उच्च न्यायालय को स्पष्ट अधिकार है।
संज्ञान के पश्चात् का चरण:
- एक बार संज्ञान ले लिये जाने के पश्चात्, न्यायिक आदेशों को चुनौती देने के लिये अनुच्छेद 226 की अधिकारिता अनुपलब्ध हो जाती है।
- यद्यपि, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 (पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के समतुल्य) अभी भी उपलब्ध है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन, न्यायालय न केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट/आरोप पत्र को रद्द कर सकती हैं, अपितु संज्ञान आदेश को भी रद्द कर सकती हैं।
- इसके लिये उचित अभिवचन और रद्द करने के लिये मजबूत मामला आवश्यक है।
अधिकारिता रूपरेखा:
- न्यायालयों को याचिका को निष्फल घोषित करने से पहले यह जांच करनी चाहिये कि याचिका में किन अधिकारिताओं का प्रयोग किया गया है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 अकेले अनुच्छेद 226 की तुलना में व्यापक उपचारात्मक शक्तियां प्रदान करती है।
- संज्ञान आदेशों को प्रभावी ढंग से चुनौती देने के लिये उचित अभिवचन आवश्यक हैं।
न्यायालय का निदेश:
- उच्चतम न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया और मामले को नए सिरे से विचार के लिये भेज दिया।
- रिट याचिका को विधि के अनुसार बॉम्बे उच्च न्यायालय की रोस्टर बेंच द्वारा नए सिरे से विचार करने के लिये पुनर्जीवित करने का आदेश दिया गया।
- विशेष अनुमति याचिका को प्रत्यर्थियों को नोटिस दिये बिना ही प्रवेश चरण पर निपटा दिया गया।
- संबंधित आवेदन बंद कर दिये गए।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 226 क्या है?
बारे में:
- अनुच्छेद 226 संविधान के भाग 5 में स्थित है और उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।
प्रमुख उपबंध:
अनुच्छेद 226(1) : प्रत्येक उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने और अन्य उद्देश्यों के लिये किसी भी व्यक्ति या सरकार को रिट और आदेश (बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा, उत्प्रेषण) जारी कर सकता है।
अनुच्छेद 226(2) : उच्च न्यायालय निम्नलिखित व्यक्तियों/प्राधिकारियों को रिट जारी कर सकते हैं:
- अपने राज्यक्षेत्रों की अधिकारिता के भीतर, या
- यदि वाद-हेतुक पूर्णतः या भागत: उनके राज्यक्षेत्र के भीतर उत्पन्न होता है तो यह उनकी अधिकारिता से बाहर होगा।
अनुच्छेद 226(3) : जब कोई उच्च न्यायालय अंतरिम आदेश (व्यादेश, रोक आदि) पारित करता है, तो प्रभावित पक्ष ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये आवेदन कर सकता है, जिसका निपटारा दो सप्ताह के भीतर किया जाना चाहिये।
अनुच्छेद 226(4) : यह शक्ति अनुच्छेद 32(2) के अधीन उच्चतम न्यायालय के अधिकार को कम नहीं करती है।
मुख्य विशेषताएँ:
- किसी भी व्यक्ति, प्राधिकारी या सरकार के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।
- यह एक सांविधानिक अधिकार है (मौलिक अधिकार नहीं)।
- आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता।
- मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये अनिवार्य।
- अन्य प्रयोजनों के लिये विवेकाधीन।
- मौलिक अधिकारों और अन्य विधिक अधिकारों दोनों को लागू करता है।
संक्षेप में : अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को व्यापक रिट अधिकारिता के साथ सांविधानिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में सशक्त बनाता है, जो अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय की भूमिका का पूरक है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 क्या है?
बारे में:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 528 उच्च न्यायालयों की अंतर्निहित शक्तियों को संरक्षित करती है।
प्रमुख उपबंध:
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित नहीं करता है:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अंतर्गत किसी भी आदेश को प्रभावी करने के लिये आवश्यक आदेश देना।
- किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकें।
- अन्य परिस्थितियों में न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करें।
आवश्यक विशेषताएँ :
- व्यावृति खण्ड - उच्च न्यायालय की विद्यमान शक्तियों की रक्षा करता है।
- नये आपराधिक प्रक्रिया संहिता के होते हुए अंतर्निहित अधिकारिता बरकरार है।
- न्याय प्रदान करने के लिये व्यापक उपचारात्मक शक्तियां।
- न्यायालय की प्रक्रियाओं के दुरुपयोग को रोकने के लिये दुरुपयोग-विरोधी तंत्र।
- लचीला अनुप्रयोग - उन स्थितियों की बात करता है जिनके लिये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में विशेष रूप से उपबंध नहीं किया गया है।