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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483

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 05-Sep-2025

फिरेराम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 

उन्होंने कहा, "लोक अभियोजकों द्वारा न्यायालयों से यह आग्रह करना कि वे साक्षियों को धमकाने या डराने वाले अभियुक्तों के विरुद्ध जमानत रद्द करने की मांग करने के बजाय साक्षियों या परिवादकर्त्ताओं को साक्षी संरक्षण योजना के अधीन आवेदन करने के लिये निदेशित करें, इसे अत्यधिक अनुचित बताया।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवालाऔरन्यायमूर्ति संदीप मेहता नेइलाहाबाद उच्च न्यायालय के कई आदेशों पर चिंता व्यक्त की, जिनमें साक्षी संरक्षण योजना को जमानत रद्द करने के विकल्प के रूप में गलत तरीके से माना गया था और इसे एक वैकल्पिक उपचार बताया गया था। न्यायालय ने कहा कि पिछले वर्ष कम से कम चालीस ऐसे समान, साइक्लोस्टाइल आदेश पारित किये गए थे, जो दो वर्षों से भी अधिक समय से जारी हैं, और इस दृष्टिकोण की कड़ी निंदा की।  

  • उच्चतम न्यायालय ने फिरेराम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

फिरेराम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • फिरेराम ने अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 302 (हत्या), 201 (साक्ष्यों का विलोपन), 364 (व्यपहरण), 120-ख (आपराधिक षड्यंत्र) के साथ धारा 34 (सामान्य आशय) के अधीन अपराधों के लिये उत्तर प्रदेश के जिला गौतम बुद्ध नगर के सूरजपुर पुलिस थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 137/2022 दर्ज की। 
  • अभियुक्तों कोगिरफ्तार किया गया और बाद में 29 अप्रैल 2024 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित शर्तों के साथ जमानत दे दी गई: 
  • साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ न करना, साक्षियों या परिवादकर्त्ता को धमकी न देना, न्यायालय की कार्यवाही में उपस्थित होना, जमानत की स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करना, तथा मामले के तथ्यों से परिचित किसी भी व्यक्ति को न डराना। 
  • जमानत के बाद, दूसरे प्रत्यर्थी ने कथित तौर पर कमंत की शर्तों का उल्लंघन करते हुए साक्षियों को धमकाया। साक्षी चाहत राम ने सूरजपुर पुलिस थाने में दो नई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) (संख्या 262/2024 और संख्या 740/2024) दर्ज कराईं, जिनमें अभियुक्तों द्वारा धमकाने का आरोप लगाया गया। 
  • फिरेराम ने साक्षियों को डराने-धमकाने के माध्यम से जमानत शर्तों के उल्लंघन के कारण जमानत रद्द करने की मांग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 439(2) के अधीन आपराधिक विविध जमानत रद्दीकरण आवेदन संख्या 93/2025 दायर किया। 
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 11 अप्रैल 2025 कोआवेदन का निपटारा करते हुएपरिवादकर्त्ता को जमानत रद्द करने की योग्यता की परीक्षा करने के बजाय साक्षी संरक्षण योजना, 2018 के अधीन उपचार तलाशने का निदेश दिया। 
  • इस आदेश से व्यथित होकर, फिरेराम ने उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 9082/2025 दायर की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि साक्षी संरक्षण योजना, 2018 उपचारात्मक प्रकृति की है और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 और 439 के अधीन जमानत रद्द करने के प्रावधानों का विकल्प नहीं है। यह योजना साक्षियों की भेद्यता की मनोवैज्ञानिक जटिलताओं का समाधान करती है, जिनका समाधान केवल जमानत विधि नहीं कर सकती 
  • न्यायालय ने इस बात में अंतर किया कि साक्षियों की सुरक्षा राज्य का एक उपचारात्मक दायित्त्व है, जबकिजमानत रद्द करना एक निवारक न्यायिक कार्य है।साक्षी संरक्षण योजना का अस्तित्व जमानत रद्द करने से इंकार करने का आधार नहीं हो सकता, जब साक्षियों को धमकाने का प्रथम दृष्टया साक्ष्य हो। 
  • न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि जमानत शर्तसहित स्वतंत्रता है, न कि असीमित अथवा निरंकुश स्वतंत्रता। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437(3) अथवा धारा 439(2) [भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483] के अंतर्गत आरोपित शर्तें वास्तविक दायित्त्व का स्वरूप रखती हैं। न्यायालयों पर यह पर्यवेक्षी दायित्त्व निहित है कि शर्तों के उल्लंघन की स्थिति में जमानत निरस्त की जा सके। 
  • जमानत की शर्तों का उल्लंघन न्यायिक कर्त्तव्य के रूप में जमानत रद्द करने का आधार बनता है। न्यायालय साक्षी संरक्षण योजनाओं के अस्तित्व के बहाने इस भूमिका से बच नहीं सकतीं। 
  • उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के चालीस हालिया आदेशों की पड़ताल की, जिनमें साक्षी संरक्षण योजना को जमानत रद्द करने के विकल्प के रूप में माना गया था। ये शब्दशः साइक्लोस्टाइल्ड टेम्पलेट (cyclostyled template) आदेश थे, जो दो वर्षों से चली आ रही एक गलत प्रथा का प्रतिनिधित्व करते थे। 
  • न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि लोक अभियोजकों ने न्यायालयों से अनुरोध किया था कि वे परिवादकर्त्ताओं को साक्षी संरक्षण योजनाओं के अंतर्गत भेज दें, न कि अभियुक्त द्वारा साक्षियों को डरा-धमकाकर जमानत की शर्तों का उल्लंघन करने पर जमानत रद्द करने की जांच करें। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब निष्पक्ष विचारण में बाधा डालने वाले कारक हों, तो जमानत रद्द करने के लिये गंभीर परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। विशिष्ट आधारों में साक्षियों को धमकाना, साक्ष्यों से छेड़छाड़, अन्वेषण में हस्तक्षेप और जमानत की छूट का दुरुपयोग सम्मिलित हैं। 
  • न्यायालय ने बल देते हुए कहा कि निष्पक्ष विचारण के लिये राज्य की पहल और न्यायिक सतर्कता, दोनों की आवश्यकता होती है। न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने के लिये प्रहरी की भूमिका निभानी चाहिये कि विचारण बिना किसी भय के आगे बढ़ें। जमानत के स्पष्ट उल्लंघनों की अनदेखी करते हुए साक्षियों से वैकल्पिक उपचार अपनाने के लिये कहना घोर अन्यायपूर्ण और स्थापित विधिक सिद्धांतों के विपरीत होगा। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483 क्या है? 

  • उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय के पासधारा 480 की उपधारा (3) के अधीन निर्दिष्ट अपराधों के लिये आवश्यक शर्तें अधिरोपित करने के अधिकार के साथ, अभिरक्षा में किसी भी अभियुक्त व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने का निदेश देने की विशेष शक्तियां हैं। 
  • इन उच्च न्यायालयों के पास किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ते समय मजिस्ट्रेट द्वारा पूर्व में अधिरोपित की गई किसी भी जमानत शर्त को अपास्त करने या संशोधित करने की विवेकाधीन शक्ति है। 
  • सेशन न्यायालय द्वारा विशेष रूप से विचारणीय या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराधों के लिये जमानत देने से पहले, उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय को लोक अभियोजक को नोटिस देना होगा, जब तक कि वह लिखित रूप में यह अभिलिखित न कर दे कि ऐसा नोटिस देना अव्यावहारिक है। 
  • भारतीय न्याय संहिता की धारा 65 या धारा 70 की उपधारा (2) के अधीन अपराधों के लिये, न्यायालय को जमानत आवेदन प्राप्त होने के पंद्रह दिनों के भीतर लोक अभियोजक को नोटिस देना होगा। 
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023  की धारा 65 या धारा 70 की उपधारा (2) के अंतर्गत अपराधों के लिए जमानत की सुनवाई के दौरान सूचना देने वाले या उसके अधिकृत प्रतिनिधि की उपस्थिति अनिवार्य है। 
  • उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय को इस अध्याय के अधीन पहले जमानत पर छोड़े गए किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी और अभिरक्षा में सौंपने का निदेश देने की निरंतर अधिकारिता बनाए रखते हैं 
  • यह उपबंध एक पर्यवेक्षी तंत्र स्थापित करता है, जिसके अधीन उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा तय किये गए जमानत मामलों में संशोधन या रद्द करने की शक्तियों के माध्यम से हस्तक्षेप कर सकते हैं। 
  • यह धारा गंभीर अपराधों के लिये विशिष्ट प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय बनाती है, जिसमें अभियोजन पक्ष की सूचना और जमानत कार्यवाही के दौरान इत्तिलाकर्त्ता की उपस्थिति को अनिवार्य किया गया है, जिससे राज्य के हितों और पीड़ितों की चिंताओं का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है।