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आपराधिक कानून

विनुभाई हरिभाई मालवीय एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2019)

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 04-Jun-2025

परिचय

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट की जाँच का आदेश देने की शक्ति, संज्ञान-पूर्व चरण तक सीमित नहीं है। 

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति वी. रामसुब्रमण्यम, न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन की तीन सदस्यीय पीठ ने दिया।

तथ्य   

  • 22 दिसंबर 2009 को नितिनभाई मंगूभाई पटेल ने रमनभाई और शंकरभाई पटेल (विदेश में रहने वाले) की ओर से FIR दर्ज कराई, जिसमें सूरत के पास जमीन को लेकर विनुभाई हरिभाई मालवीय द्वारा ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया गया। 
  • 8296 वर्ग मीटर की यह जमीन कथित तौर पर पटेलों ने 1975 में भीखाभाई एवं भीकीबेन से खरीदी थी। 
  • 7 जून 2008 को भीखाभाई के उत्तराधिकारियों ने विनुभाई एवं मनुभाई मालवीय के साथ मिलकर पटेलों पर जमीन हड़पने का आरोप लगाते हुए एक नोटिस प्रकाशित किया। 
  • विनुभाई ने कथित तौर पर विवाद के निपटान के लिये 2.5 करोड़ रुपये की मांग की तथा जमीन पर दावा करने के लिये जाली दस्तावेजों का प्रयोग किया। 
  • भीखाभाई के उत्तराधिकारियों ने 12 जून 2008 को पुरानी राजस्व प्रविष्टियों को रद्द करने के लिये आवेदन किया। 
  • मजिस्ट्रेट ने 23 अप्रैल 2010 को IPC की धाराओं 420, 465 एवं 384 के अंतर्गत संज्ञान लिया।
  • अभियुक्तों द्वारा डिस्चार्ज और अतिरिक्त अंवेषण के लिये आवेदन (10 और 14 जून 2011 को दायर) 24 अगस्त 2011 और 21 अक्टूबर 2011 को खारिज कर दिये गए थे। 
  • CrPC की धारा 156 (3) के अंतर्गत FIR के लिये अनुरोध (26 जुलाई 2011 को दायर) 9 सितंबर 2011 को खारिज कर दिया गया था। 
  • 10 जनवरी 2012 को, सत्र न्यायालय ने अतिरिक्त अंवेषण की अनुमति दी; विवेचना अधिकारी आर.ए. मुंशी ने 6 मार्च 2012 को कार्यभार संभाला तथा 9 मार्च एवं 10 अप्रैल 2012 को रिपोर्ट दायर की। 
  • उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय के आदेश और जाँच रिपोर्ट को रद्द कर दिया, 13 जून 2012 को निर्णय दिया कि मजिस्ट्रेट के पास संज्ञान के बाद अतिरिक्त अंवेषण का आदेश देने की कोई शक्ति नहीं थी। 
  • उच्च न्यायालय ने एक पुनरीक्षण मामले को वापस भेज दिया; 23 अप्रैल 2016 को सत्र न्यायालय ने CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदन को खारिज कर दिया। 
  • इस अस्वीकृति को विशेष आपराधिक आवेदन संख्या 3085/2016 में चुनौती दी गई है, जो लंबित है। 

शामिल मुद्दे  

  • क्या पुलिस द्वारा आरोप-पत्र दाखिल किये जाने के बाद मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त अंवेषण का आदेश देने का अधिकार है, और यदि हाँ, तो आपराधिक कार्यवाही के किस चरण तक?

टिप्पणी 

  • पुलिस को CrPC की धारा 173(8) के अधीन चार्जशीट दाखिल करने के बाद भी ट्रायल शुरू होने तक अतिरिक्त अंवेषण करने का अधिकार है।
  • CrPC की धारा 2(h) के अधीन “जाँच” की परिभाषा के आधार पर CrPC की धारा 173(2) के अधीन पुलिस रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त अंवेषण का आदेश देने का भी अधिकार है।
  • CrPC की धारा 156(3) मजिस्ट्रेट को “ऐसी जाँच” का आदेश देने की अनुमति देता है, जिसमें धारा 173(8) के अधीन अतिरिक्त अंवेषण शामिल है, तथा यह संज्ञान-पूर्व चरण तक सीमित नहीं है।
  • मजिस्ट्रेट निष्पक्ष सुनवाई और पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त अंवेषण का निर्देश दे सकता है, विशेषकर जब नए तथ्य सामने आते हैं।
  • CrPC में कोई भी प्रावधान मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त अंवेषण का आदेश देने से स्पष्ट रूप से नहीं रोकता है, तथा ऐसी शक्ति को धारा 173(8) में पढ़ा जाना चाहिये।
  • यह न्यायिक औचित्य का मामला है कि पुलिस को अतिरिक्त अंवेषण करने और पूरक आरोप-पत्र दाखिल करने से पहले न्यायालय की अनुमति लेनी चाहिये।
  • प्रक्रिया जारी करने के बाद मजिस्ट्रेट की शक्ति को प्रतिबंधित करने वाले पहले के निर्णय खारिज कर दिये गए हैं, विशेष रूप से अमृतभाई शंभूभाई पटेल, अतुल राव और विकास रंजन राउत के मामलों में।
  • अतिरिक्त अंवेषण का आदेश देने के लिये मजिस्ट्रेट के विवेक का प्रयोग प्रत्येक मामले के तथ्यों और विधि के अनुसार विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये।
  • पर्याप्त न्याय एवं सत्यता को प्रकटित करना विलंब के विषय में चिंताओं पर प्राथमिकता लेता है, विशेषकर जब नए तथ्य जो दोषी या निर्दोषता को प्रभावित करते हैं, सामने आते हैं।

निष्कर्ष 

  • न्याय सुनिश्चित करने और सत्यता को प्रकटित करने के लिये, पुलिस रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद भी, CrPC की धारा 173(8) के अधीन मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त अंवेषण का निर्देश देने का विधिक अधिकार है। 
  • इस शक्ति का प्रयोग प्रत्येक मामले के तथ्यों और निष्पक्ष एवं पूर्ण आपराधिक अभियोजन का वाद के अंतिम लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये।