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सिविल कानून
के.डी. कामथ एंड कंपनी बनाम CIT (1971) 2 SCC 873
« »04-Dec-2023
परिचय:
यह मामला भारतीय भागीदारी अधिनियम (Indian Partnership Act), 1932 की धारा–4 और भागीदारी के निर्माण की आवश्यक शर्तों से संबंधित है।
तथ्य:
- अपीलकर्त्ता एक भागीदारी फर्म है जिसने 1 अक्तूबर, 1958 को एक साथ व्यवसाय शुरू किया था।
- आधिकारिक तौर पर 20 मार्च, 1959 को भागीदारी फर्म बनाई गई और 11 अगस्त, 1959 में इसे भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 के तहत पंजीकृत किया गया।
- हालाँकि जब उन्होंने 31 मार्च, 1959 को समाप्त होने वाले वर्ष हेतु आयकर पंजीकरण के लिये आवेदन किया, तो आयकर अधिकारी (Income-tax Officer) ने पंजीकरण इस आधार पर खारिज़ कर दिया कि भागीदारी वास्तव में नहीं बनी थी तथा व्यवसाय को एक भागीदार, के.डी. कामथ का एकमात्र सरोकार माना जाना चाहिये।
- अपीलीय सहायक आयुक्त ने 5 मई, 1961 को इस निर्णय को बरकरार रखा।
- लेकिन अपीलीय न्यायाधिकरण ने भागीदारी विलेख की समीक्षा करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि साझेदारी के लिये ज़रूरी आवश्यकताएँ, जैसे– लाभ साझा करने का समझौता और प्रत्येक पक्ष का अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करना, पूरी की गईं।
- उन्होंने आयकर अधिकारी को निर्देश दिया कि वह फर्म को आयकर अधिनियम (Income Tax Act), 1932 की धारा–26A के तहत पंजीकृत करे।
- हालाँकि उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए असहमति जताई कि अपीलकर्त्ता फर्म को निर्धारण वर्ष 1959-60 के लिये आयकर अधिनियम, 1932 की धारा–26A के तहत पंजीकृत नहीं किया जा सकता है।
- इसलिये अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
शामिल मुद्दे:
- क्या तथ्यों और मामले की परिस्थितियों के आधार पर मेसर्स के.डी. कामथ एंड कंपनी को मूल्यांकन वर्ष 1959-60 के लिये भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा–26A के तहत पंजीकरण की अनुमति दी जा सकती है?
टिप्पणियाँ:
- उच्चतम न्यायालय ने एक भागीदारी विलेख की जाँच की और पाया कि इसने के.डी. कामथ के व्यक्तिगत व्यवसाय को अन्य कामकाजी भागीदारों को शामिल करके भागीदारी फर्म में बदल दिया।
- विलेख में कामथ को मुख्य वित्तदाता और प्रबंधक के रूप में निर्दिष्ट किया गया था, अन्य लोगों ने इसमें श्रम का योगदान दिया था।
- साझेदार तय किये गए नामों के तहत विभिन्न स्थानों पर व्यवसाय चलाने के लिये सहमत हुए।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विलेख भागीदारी की प्रमुख आवश्यकताओं को पूर्ण करता है, जैसे कि भागीदारों के बीच लाभ व हानि को आनुपातिक रूप से साझा करना।
- न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि किसी दस्तावेज़ का केवल नामकरण ही यह मानने के लिये पर्याप्त नहीं है कि विचाराधीन दस्तावेज़ भागीदारी में से एक है। संतुष्ट होने वाली दो आवश्यक शर्तें हैं:
(1) व्यावसायिक लाभ के साथ-साथ हानि को भी साझा करने का समझौता होना चाहिये।
(2) भागीदारी अधिनियम की धारा–4 के तहत "भागीदारी" (Partnership) की परिभाषा के अर्थ के भीतर, व्यवसाय को सभी या उनमें से किसी एक द्वारा, सभी के लिये कार्य करते हुए चलाया जाना चाहिये।
- एक भागीदार के पास प्रमुख नियंत्रण होने के बावजूद, जब तक ये आवश्यक शर्तें पूर्ण नहीं हुईं, उसने भागीदारी को अस्वीकार नहीं किया।
- न्यायालय ने प्रदान की गई भागीदारी विलेख के तहत एक वैध भागीदारी के अस्तित्व की पुष्टि की और कराधान उद्देश्यों के लिये फर्म के पंजीकरण के संबंध में उच्च न्यायालय के फैसले से असहमति जताई।
- न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि भागीदारों का संबंध भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा–4 में उल्लिखित "भागीदार" की परिभाषा के अनुरूप है और यदि यह संबंध उस धारा में उल्लिखित शर्तों को पूरा करता है, तो विधिक निष्कर्ष यह होगा कि भागीदारी स्थापित हो गई है।
निष्कर्ष:
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के पक्ष में फैसला सुनाया, यह निर्धारित करते हुए कि भागीदारी विलेख एक भागीदारी फर्म के लिये सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करता है।
- उच्च न्यायालय की राय कि अपीलकर्त्ता-फर्म मूल्यांकन वर्ष 1959-60 के लिये आयकर अधिनियम, 1932 की धारा–26A के तहत पंजीकरण के लिये अयोग्य है, खारिज़ कर दी गई।
नोट:
भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा–4: "भागीदारी", "भागीदार", "फर्म" और "फर्म नाम" की परिभाषा।
"भागीदारी" उन व्यक्तियों के बीच का संबंध है जो सभी के लिये काम करने वाले या उनमें से किसी एक द्वारा किये गए व्यवसाय के लाभ को साझा करने के लिये सहमत हुए हैं। जो व्यक्ति एक-दूसरे के साथ भागीदारी में प्रवेश करते हैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से "भागीदार" (Partner) और सामूहिक रूप से एक "फर्म" (Firm) कहा जाता है तथा जिस नाम के तहत उनका व्यवसाय किया जाता है उसे "फर्म नाम (Firm Name)" कहा जाता है।