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आपराधिक कानून

आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिये आशय की आवश्यकता है

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 19-Aug-2025

अभिनव मोहन डेलकर बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य 

"भले ही लंबे समय तक निरंतर उत्पीड़न का आरोप हो; तथापि धारा 306 को धारा 107 के साथ पढ़कर उसके आवश्यक अवयव स्थापित करने हेतु यह अनिवार्य है कि कोई ऐसा निकटवर्ती पूर्ववर्ती कृत्य हो, जिससे स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकले कि आत्महत्या उस सतत उत्पीड़न का प्रत्यक्ष परिणाम थी, तथा अंतिम निकटवर्ती घटना ने ही अंततः पीड़ित को जीवन-लीला समाप्त करने जैसे चरम कदम उठाने के लिये विवश कर दिया।” 

भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन

स्रोत:उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंभारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन नेयह निर्णय दिया कि केवल उत्पीड़न, यदि उसका प्रत्यक्ष एवं निकटतम संबंध स्थापित न हो, तो वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत दायित्व आकर्षित करने के लिये पर्याप्त नहीं है 

  • उच्चतम न्यायालय ने अभिनव मोहन डेलकर बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया। 

अभिनव मोहन डेलकर बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • मोहनभाई डेलकर सात बार संसद सदस्य रहे, जिन्होंने 22 फरवरी 2021 कोआत्महत्या कर ली। वह अनुसूचित जनजाति समुदाय से एक स्वतंत्र उम्मीदवार थे। 
  • मृतक ने दादरा और नगर हवेली के प्रशासक और अन्य अधिकारियों द्वारा उन्हें बदनाम करने और उनके राजनीतिक करियर को खत्म करने कीसुनियोजित षड्यंत्र का परिवाद किया था। प्रमुख घटनाओं में मुक्ति दिवस समारोह (अगस्त 2020) में आमंत्रित न किया जाना और एक केंद्रीय मंत्री के कार्यक्रम (दिसंबर 2020) से बाहर रखा जाना सम्मिलित  है। 
  • सांसद नेलोकसभा की विशेषाधिकारसमिति से संपर्क किया। 12 फरवरी 2021 को समिति ने उन्हें अन्वेषण और सुरक्षा उपायों का आश्वासन दिया। 
  • दस दिन बाद, सांसद ने मुंबई की यात्रा की और आत्महत्या कर ली, उन्होंने एक सुसाइड नोट छोड़ा जिसमें उन्होंने कुछ अधिकारियों के नाम लिये तथा उद्दापन और उनके ट्रस्ट के कॉलेज पर कब्जा करने के प्रयत्न के अतिरिक्त आरोप लगाए। 
  • मृतक के पुत्र ने 9 मार्च 2021 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई। अभियुक्त ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन मामले को रद्द करने की मांग की, जिसे बॉम्बे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन आत्महत्या के अपराध के लिये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उकसानातथा इस कृत्य को दुष्प्रेरित करने की आपराधिक मनःस्थिति होनी चाहिये 
  • यहाँ तक कि निरंतर उत्पीड़न के आरोप होने पर भी कोई ऐसा निकटवर्ती पूर्ववर्ती कृत्य होना आवश्यक है – अर्थात्वह अंतिम बिंदु जिसने पीड़ित को तोड़ दिया”जिससे आत्महत्या का प्रत्यक्ष कारण-संबंध स्थापित हो सके। 
  • वास्तविक परीक्षा यह है कि क्या अभियुक्त का आशय अपनी कार्रवाई से पीड़ित को आत्महत्या के लिये उकसाने का था। अभियुक्त का सचेत आशय मायने रखता है, न कि सिर्फ़ पीड़ित की व्यक्तिपरक संवेदनाएँ। 
  • न्यायालय ने सुसाइड नोट को संदिग्ध पाया, क्योंकि इसमें उद्दापन और षड्यंत्र के आरोप थे, जिनका उल्लेख स्पीकर या विशेषाधिकार समिति को दी गई पूर्व के परिवादों में कभी नहीं किया गया था। 
  • न्यायालय नेसमिति के आश्वासन (12 फरवरी) और आत्महत्या (22 फरवरी) के बीचकोई निकट संबंध नहीं पाया। 
  • अगस्त और दिसंबर 2020 की घटनाएँ इतनी दूर की थीं कि उनसे निकटस्थ कारण-कार्य संबंध स्थापित नहीं हो पाया। उच्च न्यायालय के निरस्तीकरण आदेश को बरकरार रखा गया। 

आत्महत्या के लिये उकसाना क्या है ? 

विधिक परिभाषा और रूपरेखा: 

  • आत्महत्या के लिये उकसाने को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 107 (अब भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 45) के अधीन परिभाषित किया गया है। 
  • इस अपराध में जानबूझकर किये गए ऐसे कार्य सम्मिलित हैं जो किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं या सुविधा प्रदान करते हैं। 

दुष्प्रेरण के तीन आवश्यक घटक: 

  • प्रत्यक्ष दुष्प्रेरण: इसमें किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करना, उकसाना या विवश करना सम्मिलित है, चाहे वह शब्दों, संकेतों या आचरण द्वारा हो, जो पीड़ित को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित कर सके।  
  • षड्यंत्र: यह तब होता है जब दो या दो से अधिक व्यक्ति आत्महत्या को सुविधाजनक बनाने के लिये षड्यंत्र में सम्मिलित होते हैं, और उस षड्यंत्र के अनुसरण में कोई कार्य या अवैध लोप घटित होता है। 
  • साशय सहायता: इसमें किसी ऐसे कार्य या अवैध लोप के माध्यम से सहायता प्रदान करना सम्मिलित है जो व्यक्ति को आत्महत्या करने में सहायता करता है, जिसमें जानबूझकर दुर्व्यपदेशन या भौतिक तथ्यों को छिपाना सम्मिलित है। 

विधिक उपबंध और दण्ड: 

भारतीय न्याय संहिता की धारा 108 (पूर्ववर्ती धारा 306, भारतीय दण्ड संहिता) के अधीन आत्महत्या के दुष्प्रेरण में निम्नलिखित सम्मिलित हैं: 

  • किसी भी प्रकार से 10 वर्ष तक का कारावास। 
  • आर्थिक दण्ड के रूप में अतिरिक्त जुर्माना। 
  • यह अपराध संज्ञेय, अजमानतीय और अशमनीय है। 
  • मामलों का विचारण सेशन न्यायालयों में किया जाता है। 

असुरक्षित व्यक्तियों के लिये विशेष उपबंध 

  • भारतीय न्याय संहिता की धारा 107 के अधीन, यदि पीड़ित बालक, विकृत चित्त व्यक्ति, मत्तता की अवस्था वाला व्यक्ति हो, तो वर्धित दण्ड का उपबंध है। ऐसे मामलों में, दण्ड मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास, या दस वर्ष तक का कारावास और जुर्माने तक हो सकता है। 

सबूत के भार की आवश्यकताएँ: 

  • प्रत्यक्ष कारण-कार्य संबंध: अभियुक्त के कार्यों को पीड़ित के आत्महत्या करने के निर्णय से जोड़ने वाले स्पष्ट साक्ष्य होने चाहिये 
  • विनिर्दिष्ट आशय: अभियुक्त का आशय व्यक्ति को आत्महत्या के लिये प्रेरित करना होना चाहिये, न कि केवल सामान्य कष्ट पहुँचाना। 
  • निकटतम संबंध: न्यायालयों को आत्महत्या के समय घटित होने वाले ऐसे कृत्यों के साक्ष्य की आवश्यकता होती है, जिसने पीड़ित को सीधे तौर पर यह चरम कदम उठाने के लिये विवश किया हो। 
  • सक्रिय भागीदारी: केवल निष्क्रिय उपस्थिति या सामान्य उत्पीड़न पर्याप्त नहीं है; इसमें उकसाना या सहायता के सकारात्मक कार्य होने चाहिये 

प्रमुख विधिक अंतर: 

  • आत्महत्या का दुष्प्रेरण क्या है: आत्महत्या के आशय से सक्रिय उकसावा, आत्महत्या को सुविधाजनक बनाने के लिये षड्यंत्र, या आत्महत्या करने में जानबूझकर सहायता करना। 
  • क्या उकसावे में नहीं आता है: सामान्य उत्पीड़न, विशिष्ट आत्मघाती आशय के बिना व्यावसायिक दबाव, कार्यस्थल पर तनाव, बिना किसी उकसावे के वैवाहिक कलह, या सामान्य जीवन संघर्षों से भावनात्मक संकट। 

निर्णय विधि: 

मदन मोहन सिंह बनाम गुजरात राज्य (2010): 

  • इस मामले में, अभियुक्त पर मृतक को निरंतर परेशान करने और अपमानित करने का अभियोग था। मृतक एक ड्राइवर था, जिसने एक सुसाइड नोट छोड़ा था जिसमें उसने अपने नियोक्ता पर निरंतर उत्पीड़न और अपमानजनक व्यवहार के कारण उसे आत्महत्या के लिये विवश करने का आरोप लगाया था। 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त नियोक्ता को सीधे तौर पर दोषी ठहराने वाले सुसाइड नोट के अस्तित्व के होते हुए भी, सुसाइड नोट या प्रथम सूचना रिपोर्ट में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध के रूप में दूर से भी देखा जा सके। 
  • न्यायालय ने यह स्थापित किया कि केवल निरंतर उत्पीड़न और अपमान के आरोप, भले ही आत्महत्या नोट में दर्ज हों, आत्महत्या के लिये उकसाने के अपराध की स्थापना के लिये अपर्याप्त हैं, जब तक कि उकसावे के विशिष्ट कृत्यों के कारण सीधे तौर पर यह चरम कदम न उठाया गया हो। 

अमलेंदु पाल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2010): 

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने आत्महत्या के लिये उकसाने के मामलों में निकटतम कारण-कार्य की आवश्यकता के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत निर्धारित किया। 
  • न्यायालय ने कहा कि "केवल उत्पीड़न के आरोप के आधार पर, घटना के समय अभियुक्त की ओर से कोई सकारात्मक कार्रवाई न किये जाने के कारण, जिसके कारण व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये विवश होना पड़ा, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती।" 
  • इस निर्णय ने यह स्थापित किया कि अभियुक्त के कार्यों और आत्महत्या के बीच एक स्पष्ट लौकिक संबंध होना चाहियेन्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि केवल उत्पीड़न के आरोपों के आधार पर, आत्महत्या के समय के आसपास घटित किसी भी सकारात्मक कृत्य के बिना, जिसने पीड़िता को प्रत्यक्षत: यह चरम कदम उठाने के लिये विवश किया हो, उकसाने के लिये दोषसिद्धि को पुष्ट नहीं किया जा सकता। 
  • दोनों मामलों ने इस सिद्धांत को मजबूत किया कि अभियोजन पक्ष को न केवल उत्पीड़न, अपितु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन आत्महत्या के दुष्प्रेरण को साबित करने के लिये निकटतम कारण के साथ उकसावे के विशिष्ट कृत्यों को भी स्थापित करना होगा।