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विवाह अनुष्ठान की आवश्यकताएँ

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 14-Oct-2025

विवेक नागरथ बनाम दिव्या गोगलानी और अन्य 

"उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम के वैधानिक ढांचे को दरकिनार करने वाली चालाक अभिवचनों के माध्यम से विवाह को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।" 

न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर और न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल 

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

दिल्ली उच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर और न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल की खंडपीठ के माध्यम सेविवेक नागरथ बनाम दिव्या गोगलानी (2025)के मामले में वैवाहिक अनुतोष और हिंदू विवाहों को नियंत्रित करने वाले वैधानिक ढांचे को संबोधित करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। 

  • न्यायालय ने दोनों पति-पत्नी की उस अपील को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने इस आधार पर अपने विवाह को शून्य करने की मांग की थी कि यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 7 के अनुसार संपन्न नहीं हुआ था। 

विवेक नागरथ बनाम दिव्या गोगलानी (2025) के मामलेकी पृष्ठभूमिक्याथी ? 

तथ्यात्मक सारांश: 

  • दोनों पक्षकारों, विवेक नागरथ (पति) और दिव्या गोगलानी (पत्नी) ने पारस्परिक सम्मति से 30.01.2024 कोआर्य समाज मंदिर में विवाह संस्कार आयोजित करने का निर्णय लिया था। 
  • आर्य समाज मंदिर विवाह बंधन ट्रस्ट (पंजीकृत) द्वारा 30.01.2024 को विवाह प्रमाण पत्र जारी किया गया। 
  • दंपत्ति ने 02.02.2024 को जिला मजिस्ट्रेट, शाहदरा, नई दिल्ली के समक्षअपने विवाह का पंजीकरण करायातथा शपथपत्र प्रस्तुत कर संपुष्टि की, कि विवाह हिंदू रीति-रिवाजों और संस्कारों के अनुसार संपन्न हुआ है। 
  • दोनों पक्षकारों ने प्रारंभ में 20.04.2024 को पूरे पारंपरिक अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों के साथ एक विस्तृत विवाह अनुष्ठान आयोजित करने का आशय किया था। 
  • निर्धारित विस्तृत समारोह से पहले, दोनों पक्षकारों के बीच गंभीर मतभेद उत्पन्न हो गए, जिसके कारण उन्होंने पारस्परिक सम्मति से 07.02.2024 को विवाह की तैयारियां बंद करने का निर्णय लिया। 
  • सप्तपदी (हिंदू परंपरा के अधीन अनिवार्य सात चरणों का संस्कार) न किये जाने का हवाला देते हुए, दोनों पक्षकारों ने 25.07.2024 को कुटुंब न्यायालय, साकेत के समक्ष हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के अधीन एक संयुक्त याचिका दायर की, जिसमेंयह घोषित करने की मांग की गई कि उनका विवाह शून्य और अकृत है। 

अवर न्यायालय का निर्णय: 

  • कुटुंब न्यायालय ने दिनांक 04.10.2024 के निर्णय द्वारासंयुक्त याचिका को खारिज कर दिया,तथा कहा कि पक्षकार उस विवाह की वैधता को चुनौती नहीं दे सकते, जिसे उन्होंने स्वयं स्वेच्छा से पंजीकृत कराया है तथा वैध प्रमाणित कराया है। 
  • न्यायालय ने विवंध (एस्टोपल) के सिद्धांत को लागू करते हुए कहा कि दोनों पक्षकारों ने सक्षम प्राधिकारी के समक्ष शपथ पत्र प्रस्तुत कर संपुष्टि की थी कि विवाह हिंदू रीति-रिवाजों और संस्कारों के अनुसार संपन्न हुआ था। 

अपील का कारण: 

  • पक्षकारों ने कुटुंब न्यायालय के फैसले को खारिज करने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें तर्क दिया गया कि सप्तपदी की अनुपस्थिति ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के अधीन विवाह को प्रारंभ से ही अवैध बना दिया। 

न्यायालय की टिप्पणियांक्या थीं ? 

हिंदू विवाह अधिनियम की सांविधिक योजना पर: 

  • न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो पक्षकारों को यह घोषित करने का अधिकार देता हो कि कोई विवाह इस आधार पर अवैध है कि वह धारा 7 के अनुसार कभी संपन्न ही नहीं हुआ। 
  • अधिनियम के सभी प्रावधान, जो शून्य, शून्यकरणीय या विघटित विवाहों की घोषणा से संबंधित हैं (धारा 11, 12, 13, 13क और 13), केवल उन विवाहों पर लागू होते हैं जो विधिपूर्वक संपन्न हो चुके हैं।इसलिये, यह याचिका वैधानिक ढांचे के अंतर्गत विचारणीय नहीं थी। 

धारा 11 (अकृतता का आदेश) के दायरे पर: 

  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 न्यायालयों को केवल तभी विवाह को अमान्य घोषित करने का अधिकार देती है, जब विवाह, विधिवत् संपन्न होने के बावजूद, धारा 5 के विशिष्ट खंडों (अस्तित्व में रहने वाले पति-पत्नी, प्रतिषिद्ध नातेदारी या सपिंड नातेदारी से संबंधित) के अंतर्गत निर्धारित आवश्यक शर्तों का उल्लंघन करता हो। 
  • माँगा गया अनुतोष - विवाह न होने के आधार पर अमान्य करना - धारा 11 के दायरे में नहीं आती, क्योंकि यह प्रावधान विवाह संपन्न होने की पूर्वकल्पना करता है। 

विबंध (एस्टोपल) के सिद्धांत पर: 

  • वर्तमान संदर्भ में विबंध की विधि भी प्रासंगिक होगी जो एक विधिक सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति को ऐसी किसी बात से इंकार करने या दावा करने से रोकता है जो उसके द्वारा पहले कही गई या सहमति के विपरीत हो, जब ऐसे कथन या करार पर किसी अन्य पक्ष द्वारा विश्वास किया गया हो। 

पूर्वापेक्षा के रूप में अनुष्ठान: 

  • हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत सभी उपचार—चाहे वे शून्य विवाह, शून्यकरणीय विवाह, तलाक (विवाह विच्छेद) या न्यायिक पृथक्करण से संबंधित हों—अनुष्ठानित विवाह के अस्तित्व को पूर्वधारणा करते हैं। किसी विवाह को केवल इस आधार पर शून्य घोषित करने का कोई वैधानिक उपचार नहीं है कि अनुष्ठानिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया गया था। 

वैवाहिक उपचारों का कठोर निर्माण: 

  • हिंदू विवाह अधिनियम का निर्वचन कठोरता से किया जाना चाहिये, और वैवाहिक अनुतोष केवल उन्हीं आधारों पर उपलब्ध होना चाहिये जो विधि में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट हों। न्यायालय ऐसेनए आधार या उपाय नहीं बना सकते जिनकी विधि में परिकल्पना नहीं की गई है। 

अंतिम निर्णय: 

  • न्यायालय नेअपील को पूरी तरह से खारिज कर दियाऔर पाया कि वह बेबुनियाद है। न्यायालय ने कहा कि कुटुंब न्यायालय में दायर याचिका और उच्च न्यायालय में दायर अपील, दोनों ही "सरासर चालाकी, एक पूर्ण दुस्साहस और स्थापित विधि को उलटने की एक गुमराह करने वाली कोशिश" थीं। 

हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) की धारा 7 क्या है? 

  • विवाह तभी वैध माना जाता है, जब यह हिंदू दम्पति के बीच हिंदूविवाह अधिनियम की धारा 7 में उल्लिखित प्रत्येक पक्षकार या उनमें से किसी एक के प्रथागत संस्कार और रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न होता है।   
  • धारा 7 – हिंदू विवाह के लिए कर्मकांड | 
    (1) हिंदू विवाह उसके पक्षकारों में से किसी को भी रूढ़िगत रीतियों और कर्मकांड के अनुसार अनुष्ठापित किया जा सकेगा। 
    (2) जहां कि ऐसी रीतियों और कर्मकांड के अन्तर्गत सप्तपदी (अर्थात् अग्नि के समक्ष वर और वधू द्वारा संयुक्ततः सात पद चलना) आती हो वहां विवाह पूर्ण और आबद्धकर तब होता है जब सातवां पद चल लिया जाता है।  
  • रूढ़िगत रीतियों और अनुष्ठानों का अर्थ है कि विवाह समुदाय के रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न हो सकता है। उदाहरण के लिये, एक समुदाय केवल मालाओं के आदान-प्रदान का प्रावधान कर सकता है, जबकि दूसरा समुदाय अधिक विस्तृत यज्ञ अनुष्ठान की अपेक्षा कर सकता है। अधिनियम इन अंतरों को ध्यान में रखता है।