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वाणिज्यिक विधि
न्यासी के विरुद्ध चेक अनादरण का परिवाद पोषणीय
« »10-Oct-2025
शंकर पदम थापा बनाम विजयकुमार दिनेशचंद्र अग्रवाल "जब चेक के कथित अनादरण के कारण वाद-हेतुक उत्पन्न होता है और परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन परिवाद प्रारंभ किया जाता है, तो वह चेक पर हस्ताक्षर करने वाले न्यासी के विरुद्ध पोषणीय होता है, बिना न्यास को अभियुक्त बनाए।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की न्यायपीठ ने निर्णय दिया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन चेक अनादरण का परिवाद उस न्यासी (trustee) के विरुद्ध पोषणीय है जिसने न्यास (trust) की ओर से चेक पर हस्ताक्षर किये हैं, भले ही न्यास को अभियुक्त नहीं बनाया गया हो, क्योंकि न्यास एक न्यायिक व्यक्ति नहीं है और दायित्त्व हस्ताक्षर करने वाले न्यासी पर होता है।
- उच्चतम न्यायालय ने शंकर पदम थापा बनाम विजयकुमार दिनेशचंद्र अग्रवाल (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
शंकर पदम थापा बनाम विजयकुमार दिनेशचंद्र अग्रवाल (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एग्रीकल्चर क्राफ्ट्स ट्रेड्स एंड स्टडीज ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस (ACTS Group) के स्वामित्व वाली विलियम कैरी यूनिवर्सिटी गंभीर वित्तीय संकट से जूझ रही थी। ACTS Group ने 12 अक्टूबर 2017 को ओरियन एजुकेशन ट्रस्ट (Orion) के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये, जिसके अधीन विश्वविद्यालय का प्रबंधन और प्रशासन ओरियन को सौंप दिया गया।
- प्रत्यर्थी ओरियन एजुकेशन न्यास (ट्रस्ट) के अध्यक्ष थे। अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने अपीलकर्त्ता को सरकारी अधिकारियों के साथ संपर्क स्थापित करने और विश्वविद्यालय के प्रशासनिक हस्तांतरण को ACTS समूह से ओरियन में सुगम बनाने के लिये प्राधिकृत किया था।
- इस व्यवस्था के अनुसार, प्रत्यर्थी ने, ओरियन के प्राधिकृत हस्ताक्षरकर्त्ता के रूप में, अपीलकर्त्ता के पक्ष में प्रदान की गई सेवाओं के लिये 13 अक्टूबर 2018 को ₹5,00,00,000/- (पाँच करोड़ रुपए) का चेक जारी किया। यह चेक कोटक महिंद्रा बैंक, वडोदरा शाखा के नाम से जारी किया गया था।
- जब अपीलकर्त्ता ने 7 दिसंबर 2018 को अपनी ICICI बैंक शाखा, शिलांग में चेक प्रस्तुत किया, तो इसे "अपर्याप्त निधि" लिखकर अनादरण कर दिया गया।
- अपीलकर्त्ता ने 19 दिसंबर 2018 को परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अधीन एक विधिक नोटिस जारी किया, जो प्रत्यर्थी को 27 दिसंबर 2018 को प्राप्त हुआ। इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 और 142 और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन अपराधों के लिये विचारण न्यायालय के समक्ष परिवाद मामला संख्या 44 (S) / 2019 दायर किया।
- प्रत्यर्थी ने आवश्यक पक्षकारों के शामिल न होने के आधार पर परिवाद की ग्राह्यता को चुनौती दी और तर्क दिया कि ओरियन एजुकेशन ट्रस्ट, एक न्यायिक संस्था और मुख्य अभियुक्त होने के नाते, पक्षकार के रूप में सम्मिलित नहीं किया गया था। उन्होंने तर्क दिया कि ट्रस्ट को अभियुक्त के रूप में नामित किये बिना, उन पर कोई प्रतिनिधि दायित्त्व नहीं लगाया जा सकता।
- मेघालय उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्थी की याचिका स्वीकार कर ली और 11 फ़रवरी 2019 के परिवाद और समन आदेश को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि ट्रस्ट को अभियुक्त बनाया जाना चाहिये। तत्पश्चात् अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय न्यास अधिनियम, 1882 के अंतर्गत परिभाषित एक न्यास एक दायित्त्व है, न कि कोई विधिक इकाई या न्यायिक व्यक्ति। किसी कंपनी के विपरीत, एक न्यास का कोई पृथक् विधिक अस्तित्व नहीं होता है और वह अपने नाम से वाद नहीं कर सकता या उस पर वाद नहीं चलाया जा सकता। न्यास अधिनियम की धारा 13 के अनुसार, वादों को चलाने और प्रतिरक्षा का दायित्त्व न्यासियों पर है, न कि स्वयं न्यास पर। एक न्यास केवल अपने न्यासियों के माध्यम से ही संचालित होता है, जो न्यास की संपत्ति के प्रबंधन के लिये उत्तरदायी विधिक संस्थाएँ हैं।
- न्यायालय ने एस.एम.एस. फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड बनाम नीता भल्ला (2005) और के.के. आहूजा बनाम वी.के. वोरा (2009) के सिद्धांतों को दोहराते हुए कहा कि अनादरण चेक पर हस्ताक्षर करने वाला व्यक्ति स्पष्ट रूप से उस अपराध के लिये उत्तरदायी है और परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 के अंतर्गत आता है। जब कोई व्यक्ति अध्यक्ष या प्रबंध निदेशक जैसे पद पर होता है और चेक पर हस्ताक्षर करता है, तो वह प्रथम दृष्टया दैनिक कार्यों के लिये उत्तरदायी होता है और अपने विशिष्ट उत्तरदायित्त्वों के बारे में ठोस कथन दिये बिना भी उस पर अभियोजन चलाया जा सकता है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जब किसी चेक के अनादरण के कारण वाद-हेतुक उत्पन्न होता है और परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत परिवाद दर्ज किया जाता है, तो चेक पर हस्ताक्षर करने वाले न्यासी के विरुद्ध परिवाद पोषणीय होता है, और न्यास को अभियुक्त बनाने की आवश्यकता नहीं है। चूँकि न्यास की ओर से किये गए कार्यों के लिये केवल न्यासी ही उत्तरदायी और जवाबदेह होते हैं, इसलिये परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही में न्यास को पक्षकार बनाने की कोई विधिक आवश्यकता नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली, उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया और प्रत्यर्थी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को विचारण न्यायालय में बहाल कर दिया। न्यायालय ने उच्च न्यायालय के कई विपरीत निर्णयों को खारिज कर दिया, जिनमें न्यास को परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन अभियोजन योग्य एक न्यायिक व्यक्ति माना गया था, और स्पष्ट किया कि ऐसे निर्णय गलत तरीके से न्यास को कंपनी के समान मानते थे।
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 और 141 क्या है?
- परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138
- परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138, खातों में अपर्याप्त निधियों, आदि के कारण चेक के अनादरण के अपराध से संबंधित है।
- यह उपबंध, 1988 में अधिनियम के अध्याय 17 में सम्मिलित किया गया, विशेष रूप से उन स्थितियों को संबोधित करता है, जहाँ ऋण चुकाने के लिये जारी किया गया चेक बैंक द्वारा बिना संदाय किये वापस कर दिया जाता है।
- आवश्यक तत्त्व: अपराध तब स्थापित होता है जब चेक अपर्याप्त धनराशि के कारण या बैंक के साथ की गई व्यवस्था से अधिक राशि होने पर अनादरण हो जाता है। अंतर्निहित संव्यवहार की प्रकृति चाहे जो भी हो, लेखीवाल पर आपराधिक दायित्त्व लागू होता है। आवश्यक शर्तों में विधिक रूप से लागू करने योग्य ऋण या देयता का अस्तित्व, उस ऋण के संदाय हेतु चेक जारी करना और उसके बाद चेक का अनादरण होना सम्मिलित है।
- अभियोजन की प्रक्रिया: अनादरण होने पर, पाने वाले को अनादरण की सूचना मिलने के तीस दिनों के भीतर लेखीवाल को एक लिखित सूचना जारी करनी होगी। लेखीवाल के पास सूचना प्राप्त होने के पंद्रह दिनों के भीतर संदाय करने का समय होता है। यदि इस अवधि के भीतर संदाय नहीं किया जाता है, तो पंद्रह दिनों की सूचना अवधि समाप्त होने के एक मास के भीतर परिवाद दर्ज करनी होगा। परिवाद उस न्यायालय में दायर किया जा सकता है जिसकी अधिकारिता में पाने वाले का बैंक स्थित है।
- दण्ड: धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि पर दो वर्ष तक का कारावास और/या चेक या ऋण की राशि से दोगुनी राशि तक का जुर्माना हो सकता है।
- परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 141
- धारा 141, अधिनियम के अधीन कंपनियों द्वारा किये गए अपराधों के लिये प्रतिनिधिक दायित्त्व के सिद्धांत को स्थापित करती है। यह उपबंध किसी कंपनी से संबंधित व्यक्तियों को कंपनी के कार्यों के लिये व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी बनाता है।
- दायित्त्व का दायरा: यदि धारा 138 के अंतर्गत कोई अपराध किसी कंपनी द्वारा किया जाता है, तो कंपनी के कारबार के संचालन के लिये भारसाधक और उत्तरदायी प्रत्येक व्यक्ति दोषी माना जाएगा। स्पष्टीकरण में "कंपनी" की परिभाषा में कोई भी निगमित निकाय, फर्म या व्यक्तियों का अन्य संघ सम्मिलित है।
- दायित्त्व का सबूत: दायित्त्व स्थापित करने के लिये कंपनी के कारबार में सक्रिय भागीदारी और अपराध से प्रत्यक्ष संबंध साबित करना आवश्यक है। केवल निदेशक या नाममात्र प्रमुख के रूप में पदनाम पर्याप्त नहीं है। परिवाद में स्पष्ट रूप से यह बताना होगा कि अभियुक्त कंपनी के कारबार का भारसाधक या उत्तरदायी कैसे था।
- उपधारा (2) में यह उपबंधित है कि यदि अपराध किसी निदेशक, प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी की सहमति, मौनानुकुलता या उपेक्षा के कारण किया गया हो तो ऐसा व्यक्ति भी दोषी माना जाएगा।
- उपलब्ध प्रतिरक्षा: अभियुक्त यह साबित करके दायित्त्व से बच सकता है कि अपराध उसकी जानकारी के बिना किया गया था या उसने इसे रोकने के लिये युक्तियुक्त सावधानी बरती थी। यद्यपि, सबूत पेश करने का भार अभियुक्त पर ही होता है। निदेशक के रूप में सरकारी नामित व्यक्तियों को इस उपबंध के अधीन अभियोजन से छूट प्राप्त है।