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आपराधिक कानून

अपराधिकता के बिना सिविल और आपराधिक मामले

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 01-Aug-2025

"यदि आपराधिकता का अभाव हो, तो एक ही विषयवस्तु पर समानांतर रूप से सिविल एवं आपराधिक कार्यवाहियों का संचालन न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जाएगा तथा ऐसी आपराधिक कार्यवाहियाँ निरस्त की जानी चाहिये।" 

 विजयालक्ष्मी एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने यह निर्णय दिया कि आपराधिकता के अभाव में सिविल तथा आपराधिक कार्यवाहियों को समानांतर रूप से जारी रखना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है, तथा ऐसी परिस्थिति में आपराधिक कार्यवाही को निरस्त किया जाना न्यायोचित है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने विजयलक्ष्मी एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

एस.एन. विजयलक्ष्मी एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • एन. विजयलक्ष्मी, वी.एस. श्रीदेवी, वी.एस. श्रीलेखा और के.वी. कृष्णप्रसाद, बैंगलोर उत्तर तालुक के भूपासंद्रा गाँव में 6 एकड़ कृषि भूमि के संयुक्त स्वामी थे, जिसका स्वामित्व इतिहास 1970 के दशक से जुड़ा हुआ है। 
  • बेंगलुरु विकास प्राधिकरण (BDA) ने 1978-1982 में अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू की और लाभार्थियों को हिस्से आवंटित किये। सरकार ने 1992 में अधिग्रहण को रद्द कर दिया, किंतु आवंटियों ने 1996 में उच्च न्यायालय में इसे सफलतापूर्वक चुनौती दी, और नवंबर 2015 में उच्चतम न्यायालय द्वारा अपीलों को खारिज करने के बाद यह आदेश अंतिम रूप में ले लिया गया। 
  • 30 नवंबर, 2015 को, भूस्वामियों ने परिवादकर्त्ता कीर्तिराज शेट्टी (रविशंकर शेट्टी के नामांकित व्यक्ति) के साथ 3,50,00,000 रुपए का विक्रय करार (एग्रीमेंट टू सेल) निष्पादित किया, साथ ही परिवादकर्त्ता को स्वामित्व मुक्त करने और संपत्ति बेचने के लिये अधिकृत करने हेतु जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी भी दी। 2,00,000 रुपए का अग्रिम संदाय किया गया। 
  • परिवादकर्त्ता ने 2015-2016 में भूमि अधिग्रहण को निरस्त घोषित करते हुए कई रिट याचिकाएँ दायर कीं। इस बीच, भूमि स्वामियों ने दिसंबर 2016 में मेसर्स लिगेसी ग्लोबल रियल्टी के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये, जिसके अधीन उन्हें 2,00,00,000 रुपए मिले, जिनमें से 1,00,00,000 रुपए के.वी. कृष्णप्रसाद को उनके परिवार के सदस्यों के लिये हस्तांतरित किये गए।  
  • अप्रैल 2020 में जब संपत्ति विक्रय योग्य हो गई, तो भूस्वामियों ने पूर्व में निष्पादित विक्रय करार को मान्यता देने से इंकार कर दिया। जून-जुलाई 2022 में उन्होंने परिवादकर्त्ता द्वारा प्रदत्त पावर ऑफ अटॉर्नी को निरस्त कर दिया एवं एस. एन. विजयलक्ष्मी के पक्ष में एक मोचन विलेख (Release Deed) निष्पादित कर संपूर्ण संपत्ति को दान विलेख के माध्यम से के. वी. कृष्णप्रसाद के नाम अंतरण कर दिया।   
  • जुलाई 2022 में, परिवादकर्त्ता ने धारा 405, 406, 415, 417, 418, 420, 504, 506, 384 एवं 120-बी सहपठित धारा 34 भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अंतर्गत अपराधों का आरोप लगाते हुए निजी परिवाद रिपोर्ट दायर की, साथ ही एक सिविल वाद भी दायर किया जिसमें विनिर्दिष्ट पालन की प्रार्थना की गई तथा यह घोषणा भी मांगी गई कि बाद में निष्पादित विलेख उनके लिये बाध्यकारी नहीं हैं।   

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया कि किसी विषयवस्तु पर आपराधिक तत्त्वों के अभाव में दीवानी एवं आपराधिक कार्यवाहियों को समानांतर रूप से जारी रखना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। ऐसे मामलों में जहाँ सिविल उपचार उपलब्ध हैं और कोई आपराधिक कृत्य स्थापित नहीं होता, वहाँ आपराधिक कार्यवाही को निरस्त किया जाना आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने यह पाया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406 (आपराधिक न्यासभंग) तथा धारा 420 (छल ) के आवश्यक घटक इस प्रकरण में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित हैं-क्योंकि अभियुक्तगण स्वयं संपत्ति के वैध स्वामी थे (सौंपे गए पक्ष नहीं) और प्रवंचना के लिये कोई छल विद्यमान नहीं था क्योंकि संपत्ति का कब्जा परिवादकर्त्ता को स्थानांतरित नहीं किया गया था और बिक्री विलेख निष्पादन पर सशर्त बना रहा। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 406 और 420 को एक ही संव्यवहार के लिये एक साथ लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि इनमें परस्पर अनन्य तत्त्व हैं, तथा परिवादकर्त्ता की यह स्वीकृति कि छल केवल "संपत्ति के मूल्य में वृद्धि के बाद" शुरू हुआ, प्रारंभिक आपराधिक आशय के दावों को नष्ट कर देता है। 
  • प्रियंका श्रीवास्तव के दिशानिर्देश अनिवार्य हैं, किंतु यदि मूल आदेशों से पहले इसका समाधान कर लिया जाए, तो सहायक शपथपत्र दाखिल न करने की समस्या में सुधार किया जा सकता है। न्यायालय ने बेंगलुरु में सांविधिक निकायों की कृत्य और लोप के कारण जनहित के साथ समझौता होने पर चिंता व्यक्त की, जिसके कारण पूर्ण न्याय के लिये न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक है। 

स्थापित विधिक सिद्धांत क्या है? 

  • एक साथ कार्यवाही पर विधिक सिद्धांत:उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया है कि आपराधिकता के अभाव में, एक ही विवाद्यक पर सिविल और आपराधिक दोनों मामलों को एक साथ जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। न्यायालयों को ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिये, जहाँ सिविल उपचार उपलब्ध हों और आवश्यक आपराधिक तत्त्व अनुपस्थित हों, आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना चाहिये 
  • सिविल विवादों में आपराधिक रंग की जांच:न्यायालयों को यह परीक्षण करना आवश्यक है कि मूलतः सिविल स्वरूप के विवादों को कहीं कृत्रिम रूप से आपराधिक अपराध का आवरण तो नहीं दिया जा रहा है। जहाँ सिविल उपचार पहले ही अपनाया गया हो तथा धारा 316 (आपराधिक न्यासभंग) एवं धारा 318 (छल) के आवश्यक तत्त्व अनुपस्थित हों, वहाँ ऐसी आपराधिक कार्यवाहियों को न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये निरस्त किया जाना चाहिये 
  • भारतीय न्याय संहिता (आपराधिक न्यासभंग) की धारा 316 के लिये आवश्यक तत्त्वधारा 316 के लागू होने के लिये, अभियुक्त को संपत्ति सौंपी गई हो या संपत्ति पर प्रभुत्व हो और उसने बेईमानी से उसका दुरुपयोग किया हो या उसे परिवर्तित किया हो। जहाँ अभियुक्त संपत्ति के वास्तविक स्वामी हों, वहाँ धारा 316 लागू करने का आधार समाप्त हो जाता है, क्योंकि स्वामी अपनी संपत्ति पर न्यासभंग नहीं कर सकते। 
  • भारतीय न्याय संहिता (धोखाधड़ी) की धारा 318 के लिये आवश्यक तत्त्व:धारा 318 के अधीन यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि अभियुक्त ने प्रवंचना से, कपटपूर्वक या बेईमानी से परिवादकर्त्ता को संपत्ति सौंपने या संपत्ति रखने की सम्मति देने के लिये उत्प्रेरित किया। प्रारंभिक आपराधिक आशय के बिना संविदात्मक दायित्त्वों का पालन न करना इस धारा के अंतर्गत छल नहीं माना जाएगा। 
  • आपराधिक आशय आरंभ से ही मौजूद होना चाहिये:छल के लिये आपराधिक दायित्त्व के लिये वचन देते समय बेईमानी का आशय होना आवश्यक है, न कि बाद में उसे पूरा न करना। संविदा का कार्योत्तर भंग धारा 318 के अधीन पूर्वव्यापी रूप से आपराधिक दायित्त्व नहीं बनाता है, और संपत्ति के मूल्य में वृद्धि के बाद ही परिवादकर्त्ता द्वारा आपराधिक आचरण की स्वयं की स्वीकृति छल के आरोपों के लिये घातक हो जाती है। 
  • पारस्परिक अनन्यता सिद्धांत:एक ही व्यक्ति पर एक ही संव्यवहार के लिये धारा 316 और 318 के अधीन एक साथ आरोप नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि उनके घटक परस्पर अनन्य हैं और एक साथ मौजूद नहीं रह सकते। यह सिद्धांत एक ही व्यवहार के लिये आपराधिक आरोपों के अतिव्यापी होने से रोकता है। 
  • प्रथम दृष्टया आपराधिक मामले में सबूत का भार:प्राथमिकी स्तर पर, परिवादों में प्रथम दृष्टया आपराधिकता के प्रबल तत्त्व प्रकट होने चाहिये। न्यायालयों को तथ्यात्मक आरोपों के आधार पर यह जांच करनी चाहिये कि कथित अपराधों के आवश्यक तत्त्व विद्यमान हैं या नहीं, और जहाँ सिविल विवादों को विद्वेषपूर्वक आपराधिक रंग दिया गया हो, वहाँ ऐसी कार्यवाही रद्द करने योग्य है।  
  • पूर्ण न्याय के लिये न्यायिक हस्तक्षेप:न्यायालयों के पास प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने की अंतर्निहित शक्ति होती है, जहाँ आपराधिक कार्यवाही में कोई दम नहीं होता, जबकि सिविल उपचार विवाद का पर्याप्त समाधान करते हैं। इससे यह सुनिश्चित होता है कि वास्तविक सिविल संविदात्मक विवादों को आपराधिक विधि के माध्यम से हथियार बनाकर पक्षकारों को परेशान न किया जाए या सिविल मुकदमेबाजी में अनुचित लाभ न उठाया जाए। 

संदर्भित मामले 

  • प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) 6 एस.सी.सी. 287:इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अनिवार्य किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत निजी परिवाद दायर करने से पूर्व परिवादकर्त्ता को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक से संपर्क करना आवश्यक है। यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने हेतु पूर्ववर्ती प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करता है। 
  • दिल्ली रेस क्लब (1940) लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 2024 एस.सी.सी. ऑनलाइन एस.सी. 2248:इस निर्णय में न्यायालय ने प्रतिपादित किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406 तथा धारा 420 एक ही संव्यवहार पर समानांतर रूप से लागू नहीं की जा सकतीं, क्योंकि दोनों धाराओं के आवश्यक तत्व परस्पर असंगत हैं एवं एक ही तथ्यपरक परिप्रेक्ष्य में सह-अस्तित्व संभव नहीं। 
  • परमजीत बत्रा बनाम उत्तराखंड राज्य (2013) 11 एस.सी.सी. 673:इस बात पर बल दिया गया कि न्यायालयों को यह जांच करनी चाहिये कि क्या मूलतः सिविल प्रकृति के विवादों को आपराधिक अपराध का आवरण दिया जा रहा है, और न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये ऐसी कार्यवाही को रद्द करने में संकोच नहीं करना चाहिये