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सिविल कानून
निषेधाज्ञा के लिये वाद में प्रतिदावा
« »24-Jun-2025
अब्दुल सत्तार बनाम एम. खालिद "माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उपरोक्त निर्णय में बहुमत के अनुसार विधि की स्थापना बहुत स्पष्ट है कि मुद्दों के निर्धारण के बाद प्रतिदावे की अनुमति नहीं दी जा सकती है।" न्यायमूर्ति विजयकुमार ए. पाटिल |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विजयकुमार ए. पाटिल की पीठ ने कहा कि मुद्दे तय होने के बाद प्रत्युत्तर दावा संस्थित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अब्दुल सत्तार बनाम एम. खालिद (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
अब्दुल सत्तार बनाम एम. खालिद (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता ने प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थायी अनिवार्य निषेधाज्ञा की मांग करते हुए चतुर्थ अतिरिक्त सिविल न्यायाधीश एवं जेएमएफसी, मंगलुरु के समक्ष वाद संस्थित किया था।
- याचिकाकर्त्ता द्वारा माँगा गया अनुतोष प्रतिवादियों को वाद में उल्लिखित संपत्ति के पश्चिमी एवं उत्तरी किनारों पर निर्मित एक अवैध परिसर की दीवार को हटाने का निर्देश देने और अनुपालन न करने की स्थिति में, प्रतिवादियों के व्यय पर न्यायालय के बेलिफ से कार्य करवाने की थी।
- याचिकाकर्त्ता ने प्रतिवादियों को वाद में उल्लिखित संपत्ति पर उनके आवागमन में बाधा डालने से रोकने के लिये निषेधात्मक निषेधाज्ञा भी मांगी थी।
- प्रतिवादियों ने 26 अगस्त 2013 को अपना लिखित कथन प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने शिकायत में लगाए गए आरोपों का खंडन किया।
- वादी का साक्ष्य 15 दिसंबर 2015 को समाप्त हुआ तथा उसके बाद मामले को प्रतिवादियों के साक्ष्य के लिये पोस्ट किया गया।
- प्रतिवादियों ने बार-बार स्थगन की मांग की तथा अंततः ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादियों के साक्ष्य के लिये अंतिम अवसर के रूप में मामले को 13 अक्टूबर 2019 को पोस्ट कर दिया।
- 20 अक्टूबर 2019 को प्रतिवादियों (प्रतिवादी संख्या 1 एवं 2) ने आदेश 6 नियम 17 आर/डब्ल्यू धारा 151 CPC के अंतर्गत आईए संख्या 14 संस्थित किया, जिसमें अपने लिखित कथन को संशोधित करने और पहली बार प्रतिवाद उठाने की मांग की गई।
- मूल लिखित कथन दाखिल करने के छह वर्ष से अधिक समय बाद और वादी के साक्ष्य पहले ही समाप्त हो जाने के बाद संशोधन और प्रतिवाद की मांग की गई थी।
- ट्रायल कोर्ट ने 03 दिसंबर 2019 के आदेश के माध्यम से संशोधन और प्रतिवाद के लिये आवेदन को अनुमति दी, जिसके कारण वर्तमान रिट याचिका दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 8 नियम 6A के अंतर्गत प्रतिवादी को लिखित कथन प्रस्तुत करने के चरण तक या बचाव प्रस्तुत करने के लिये अनुमत समय के अंदर ही प्रतिदावा करने की अनुमति है।
- न्यायालय ने कहा कि प्रतिदावा बचाव प्रस्तुत करने से पहले या बचाव प्रस्तुत करने के लिये अनुमत समय की समाप्ति से पहले उत्पन्न कार्यवाही के कारण पर आधारित होना चाहिये।
- न्यायालय ने अशोक कुमार कालरा बनाम विंग कमांडर सुरेंद्र अग्निहोत्री (2020) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि हालाँकि लिखित कथन के साथ प्रतिदावा संस्थित करना अनिवार्य नहीं है, लेकिन मुद्दों के निर्धारण के बाद इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।
- उपरोक्त मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि लिखित कथन दाखिल करने के बाद प्रतिदावा की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन केवल मुद्दों के निर्धारण के चरण तक और असाधारण मामलों में, वादी के साक्ष्य के प्रारंभ होने तक।
- उच्च न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले में, लिखित कथन के छह वर्ष से अधिक समय बाद तथा वादी के साक्ष्य के समापन के बाद प्रतिदावा दायर किया गया था, जो CPC के अंतर्गत प्रक्रियात्मक समयसीमा तथा अशोक कुमार कालरा में निर्धारित सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि ट्रायल कोर्ट ने विलंब, वादी के प्रति पूर्वाग्रह तथा कार्यवाही के चरण जैसे प्रासंगिक कारकों पर विचार किये बिना इस तरह के विलम्बित प्रतिदावे को अनुमति देकर विवेक का प्रयोग करने में चूक की है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि प्रतिदावे को अनुमति देने के विवेक का प्रयोग न्यायिक रूप से किया जाना चाहिये तथा इसे एक उन्नत चरण में अनुमति देने से त्वरित तथा कुशल न्याय का उद्देश्य विफल हो जाता है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि संशोधन तथा प्रतिदावे को अनुमति देने वाला विवादित आदेश विधिक रूप से अस्थिर है तथा इसे रद्द किया जाना चाहिये।
- उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रतिदावे को अस्वीकार करने से प्रतिवादियों को स्वतंत्र विधिक कार्यवाही के माध्यम से अपने दावे को आगे बढ़ाने से नहीं रोका जाएगा।
- तदनुसार, न्यायालय ने रिट याचिका को अनुमति दे दी, ट्रायल कोर्ट के 03 दिसंबर 2019 के आदेश को रद्द कर दिया, तथा लिखित कथन में संशोधन एवं प्रतिदावे को शामिल करने की मांग करने वाली आईए संख्या 14 को खारिज कर दिया।
प्रतिदावा क्या है?
परिचय:
- CPC के आदेश VIII नियम 6A में प्रतिवादी द्वारा प्रति दावे का प्रावधान है-
- उप-खण्ड (1): प्रति-दावा संस्थित करने का अधिकार
- प्रतिवादी उसी वाद में वादी के विरुद्ध प्रति-दावा संस्थित कर सकता है।
- यह प्रति-दावा किसी भी अधिकार या दावे (जैसे, हर्जाना) के लिये हो सकता है।
- कार्यवाही का कारण प्रतिवादी द्वारा अपना बचाव संस्थित करने से पहले या बचाव संस्थित करने के लिये दी गई समय सीमा समाप्त होने से पहले उत्पन्न होना चाहिये।
- शर्त: प्रति-दावा न्यायालय के आर्थिक अधिकारिता के अंदर होना चाहिये।
- उप-खण्ड (2): प्रति-दावे का प्रभाव
- प्रति-दावे का प्रभाव अलग वाद (क्रॉस-सूट) जैसा ही होगा।
- न्यायालय एक ही मामले में वादी के दावे और प्रतिवादी के प्रति-दावे दोनों को शामिल करते हुए अंतिम निर्णय दे सकता है।
- उप-खण्ड (3): वादी का प्रत्युत्तर देने का अधिकार
- वादी प्रति-दावे के प्रत्युत्तर में लिखित कथन प्रस्तुत कर सकता है।
- न्यायालय वह समय तय करेगी जिसके अंदर यह प्रत्युत्तर प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- उप-खण्ड (4): प्रति-दावे की विधिक स्थिति
- प्रति-दावे को वादपत्र (नया वाद) की तरह माना जाएगा।
- इसमें वही नियम लागू होंगे जो CPC के अंतर्गत वादपत्रों पर लागू होते हैं।
- उप-खण्ड (1): प्रति-दावा संस्थित करने का अधिकार
- आदेश VIII नियम 6B में प्रावधानित किया गया है कि प्रतिदावा इस प्रकार होगा-
- यदि कोई प्रतिवादी प्रति-दावा करना चाहता है, तो उसे अपने लिखित कथन में प्रति-दावा के रूप में इसका स्पष्ट उल्लेख करना चाहिये।
- प्रतिवादी को स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया जाना चाहिये कि वह प्रति-दावा कर रहा है, न कि केवल बचाव।
- आदेश VIII नियम 6C में प्रति दावे के बहिष्कार का प्रावधान है-
- अगर वादी को लगता है कि प्रति-दावे का निर्णय उसी वाद में नहीं, बल्कि एक अलग वाद में किया जाना चाहिये, तो वह न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
- प्रति-दावे के लिये मुद्दे तय होने से पहले ऐसा किया जाना चाहिये।
- इसके बाद न्यायालय तय करेगी कि प्रति-दावे को मौजूदा मामले से अनुमति दी जाए या बाहर रखा जाए।
- आदेश VIII नियम 6D में वाद बंद करने के प्रभाव का प्रावधान है-
- यदि वादी का मुख्य वाद स्थगित कर दिया जाता है, वापस ले लिया जाता है या खारिज कर दिया जाता है, तो प्रतिवादी का प्रति-दावा अभी भी जारी रह सकता है।
- मुख्य वाद समाप्त होने पर प्रति-दावा स्वतः समाप्त नहीं होता है।
- आदेश VIII नियम 6E में प्रतिदावे का उत्तर देने में वादी द्वारा कारित चूक के लिये प्रावधान है-
- यदि वादी प्रतिवादी के प्रति-दावे का प्रत्युत्तर देने में विफल रहता है, तो न्यायालय:
- प्रति-दावे के संबंध में वादी के विरुद्ध निर्णय देना, अथवा
- प्रति-दावे के संबंध में कोई उचित आदेश पारित करना।
- यदि वादी प्रतिवादी के प्रति-दावे का प्रत्युत्तर देने में विफल रहता है, तो न्यायालय:
- आदेश VIII नियम 6F प्रतिवादी को अनुतोष प्रदान करता है जहाँ प्रति दावा सफल होता है।
- यदि प्रति-दावा या सेट-ऑफ सफल होता है, तथा किसी भी पक्ष को बकाया राशि शेष रहती है, तो न्यायालय निम्न कार्य कर सकता है:
- शेष राशि के अधिकारी के पक्ष में निर्णय दिया जाएगा।
- इससे दोनों पक्षों के दावों के बीच उचित समायोजन संभव हो जाता है।
- यदि प्रति-दावा या सेट-ऑफ सफल होता है, तथा किसी भी पक्ष को बकाया राशि शेष रहती है, तो न्यायालय निम्न कार्य कर सकता है:
प्रासंगिक निर्णयज विधि:
- अशोक कुमार कालरा बनाम विंग कमांडर सुरेंद्र अग्निहोत्री एवं अन्य (2020):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि 2002 के संशोधन के अनुसार, प्रतिवादी को समन की तामील की तिथि से 30 दिनों के अंदर लिखित कथन प्रस्तुत करना होगा, जिसे न्यायालय की अनुमति से 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है।
- CPC के आदेश 8 के नियम 6A को कई कार्यवाहियों से बचने और न्यायालय को एक ही वाद में सभी विवादों का निर्णय करने में सक्षम बनाने के लिये प्रस्तुत किया गया था।
- विधि में लिखित कथन के साथ प्रतिवाद संस्थित करने की सख्त आवश्यकता नहीं है, लेकिन परिस्थितियों के आधार पर न्यायालयों के पास इसे बाद में अनुमति देने का विवेक है।
- ट्रायल कोर्ट को विवेक का सावधानीपूर्वक प्रयोग करना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि:
- वादी को कोई क्षति कारित नहीं की गयी है।
- वाद में अनावश्यक विलंब नहीं की गई है।
- CPC संशोधन (कुशल न्याय) का उद्देश्य यथावत रखा गया है।
- न्यायालयों को आम तौर पर मुद्दों के तय हो जाने या वाद काफी आगे बढ़ जाने के बाद प्रतिदावों की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि त्वरित न्याय महत्त्वपूर्ण है, लेकिन सभी पक्षों को प्रभावी न्याय एवं उचित अवसर सुनिश्चित करने की आवश्यकता के साथ इसे संतुलित किया जाना चाहिये।
- न्यायालयों को विलंबित प्रतिदावे की अनुमति देने से पहले विभिन्न कारकों का आकलन करना चाहिये, जैसे:
- (i) विलंब की अवधि
- (ii) कार्यवाही के कारण की सीमा अवधि
- (iii) विलंब के कारण
- (iv) क्या प्रतिवादी ने पहले अधिकार का दावा किया है
- (v) मुख्य वाद और प्रतिदावे के बीच समानता
- (vi) नया वाद संस्थित करने की लागत
- (vii) प्रक्रिया के दुरुपयोग की संभावना
- (viii) वादी के प्रति पूर्वाग्रह
- (ix) समग्र तथ्य एवं परिस्थितियाँ
- (x) सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य, मुद्दों के तैयार होने के बाद नहीं
- न्यायालय ने अंततः निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि नियम 6A लचीलापन प्रदान करता है, लेकिन प्रतिदावा संस्थित करने का अधिकार पूर्ण नहीं है, तथा न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि प्रतिदावा समय पर तथा निष्पक्ष हो।