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सिविल कानून
विलय का सिद्धांत
« »25-Jul-2025
विष्णु वर्धन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य "छल से प्राप्त आदेशों पर विलय का सिद्धांत लागू नहीं होता" न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता एवं उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता एवं उज्ज्वल भुइयाँ ने उच्च न्यायालय के एक आदेश के विरुद्ध सिविल अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि "विलय का सिद्धांत उस स्थिति में लागू नहीं होगा, जहाँ विवादित निर्णय/आदेश छल से प्राप्त किया गया हो।" इस आदेश की पुष्टि पहले ही उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जा चुका है।
- उच्चतम न्यायालय ने विष्णु वर्धन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
विष्णु वर्धन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एक पक्ष ने मामले के गुण-दोष से प्रत्यक्षतः संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाकर वर्ष 2021 में अपने पक्ष में उच्च न्यायालय का आदेश प्राप्त कर लिया।
- वर्ष 2022 में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को छल की सूचना के बिना ही बाद में अनुमोदित कर दिया।
- अपीलकर्त्ता, जिसे मूल कार्यवाही में पक्षकार के रूप में शामिल नहीं किया गया था, ने उच्चतम न्यायालय के वर्ष 2022 के आदेश को चुनौती देने की मांग की।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि रेड्डी द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाए जाने के कारण उच्चतम न्यायालय का आदेश छल के कारण दूषित हो गया था।
- मुख्य विधिक प्रश्न यह था कि क्या अपीलकर्त्ता उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध नियमित सिविल अपील संस्थित कर सकता है या उसे उच्चतम न्यायालय के आदेश के विरुद्ध समीक्षा याचिका संस्थित करनी होगी।
- रेड्डी ने तर्क दिया कि विलय के सिद्धांत के कारण, उच्च न्यायालय का आदेश उच्चतम न्यायालय के आदेश के साथ विलय हो गया है, जिससे उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध कोई भी अपील विचारणीय नहीं रह जाती।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की पीठ ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि विलय का सिद्धांत अपील पर रोक लगाएगा।
- न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने पीठ की ओर से लिखते हुए कहा कि चूँकि उच्च न्यायालय का निर्णय "छल के कारण दूषित था और गुण-दोष के आधार पर नहीं दिया गया था", इसलिये उच्चतम न्यायालय द्वारा बाद में इसकी पुष्टि के परिणामस्वरूप वास्तविक विलय नहीं हुआ।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि उच्चतम न्यायालय की पूर्व पुष्टि के बावजूद, उच्च न्यायालय का आदेश नियमित सिविल अपील के माध्यम से चुनौती देने लिये प्रस्तुत है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "छल सब कुछ प्रकटित कर देती है" तथा न्यायिक कार्यवाही में किसी अन्य वादी द्वारा किये गए छल के कारण किसी भी पक्ष को क्षति नहीं होनी चाहिये।
- न्यायालय ने "एक्टस क्यूरी नेमिनम ग्रेवबिट" (न्यायालय की चूक या किसी अन्य वादी द्वारा किये गए छल के कारण किसी भी पक्ष को हानि नहीं उठाना चाहिये) के सिद्धांत को लागू किया।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के 2021 के आदेश और रेड्डी वीराना मामले में अपने 2022 के निर्णय, दोनों को रद्द कर दिया तथा मामले को नए सिरे से निर्णय के लिये बहाल कर दिया।
विलय के सिद्धांत के पाँच अपवाद:
अपवाद 1: दुर्लभ या विशेष परिस्थितियाँ
- जब किसी पक्ष के अपील के अधिकार को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अत्यंत दुर्लभ या विशेष परिस्थितियों के कारण समाप्त नहीं किया जाना चाहिये।
अपवाद 2: मौलिक सार्वजनिक महत्त्व
- जब अपील में कोई ऐसा मौलिक सार्वजनिक महत्त्व का मुद्दा उठाया जाता है जिसे अपीलकर्त्ता द्वारा मुकदमेबाजी के पहले दौर में उठाया जाना संभव नहीं था, तथा ऐसे मुद्दे का व्यापक सार्वजनिक हित में समाधान अपेक्षित होता है।
अपवाद 3: एक्टस क्यूरीए नेमिनेम ग्रेवबिट
- जब हस्तक्षेप करने से इनकार करने से इस सिद्धांत का उल्लंघन होगा कि किसी भी पक्ष को न्यायालय की चूक या किसी अन्य वादी द्वारा किये गए छल के कारण हानि नहीं उठाना चाहिये।
अपवाद 4: न्यायालय में छल
- जब पहले का अपीलीय निर्णय उस पक्ष द्वारा न्यायालय में छल किये जाने के कारण दूषित हो जाता है जिसके पक्ष में निर्णय दिया गया था।
अपवाद 5: लोक हित का खतरा
- यदि विलय के सिद्धांत के आधार पर आवश्यक हस्तक्षेप को अस्वीकार कर दिया गया तो अपूरणीय परिणामों के कारण सार्वजनिक हित अत्यधिक खतरे में पड़ जाएगा।
स्थापित प्रमुख विधिक सिद्धांत:
- उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य की पुनः पुष्टि की कि छल सभी न्यायिक कार्यवाहियों को दूषित करता है, चाहे वह किसी भी स्तर पर हुई हो।
- वाद के गुण-दोष से सीधे संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छुपाना न्यायालय के साथ छल माना जाता है।
- जब अधीनस्थ न्यायालय का निर्णय छल से प्राप्त किया जाता है, तो उच्च न्यायालय द्वारा उसकी पुष्टि करने से वास्तविक विलय नहीं होता।
- छल के मामलों में, पीड़ित पक्ष समीक्षा याचिकाओं तक सीमित रहने के बजाय छल से प्राप्त आदेश के विरुद्ध नियमित अपील संस्थित कर सकते हैं।
विलय का सिद्धांत क्या है?
परिचय:
- विलय का सिद्धांत भारतीय न्यायशास्त्र में एक सुस्थापित सिद्धांत है जिसके अनुसार, जब कोई उच्च न्यायालय किसी अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय की पुष्टि करता है, तो अधीनस्थ न्यायालय का आदेश उच्च न्यायालय के आदेश में विलीन हो जाता है।
- विलय हो जाने पर, अधीनस्थ न्यायालय का आदेश अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देता है तथा केवल उच्च न्यायालय का आदेश ही प्रवर्तनीय रह जाता है।
- यह सिद्धांत मुकदमेबाजी की अंतिमता सुनिश्चित करता है तथा पक्षों को एक ही आदेश को कई मंचों पर चुनौती देने से रोकता है।
- सामान्यतः, विलय के बाद, पक्ष अधीनस्थ न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील संस्थित नहीं कर सकते, बल्कि उन्हें उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध समीक्षा या अन्य उचित उपचार करने होंगे।
सिद्धांत के पीछे तर्क:
- न्यायिक पदानुक्रम बनाए रखना
- एक ही मामले में परस्पर विरोधी निर्णयों को रोकना
- मुकदमेबाजी में अंतिमता सुनिश्चित करना
- एकाधिक कार्यवाहियों से बचकर न्यायिक मितव्ययिता को बढ़ावा देना
विलय के सिद्धांत पर आधारित ऐतिहासिक मामले कौन से हैं?
- मद्रास राज्य बनाम मदुरै मिल्स कंपनी लिमिटेड (1967)
- इस मामले ने यह स्थापित किया कि जब किसी डिक्री के विरुद्ध अपील की जाती है, तथा अपीलीय न्यायालय उसमें किसी भी प्रकार का संशोधन करता है, तो ट्रायल कोर्ट की डिक्री अपीलीय न्यायालय की डिक्री में समाहित हो जाती है।
- गोजर ब्रदर्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम रतन लाल सिंह (1974)
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि अपील को बिना किसी स्पष्ट आदेश के खारिज कर दिया जाता है, तो भी विलय का सिद्धांत लागू होता है।