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आपराधिक कानून

जमानत रद्द करने के आधार

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 06-Oct-2025

ज़फीर आलम बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. और अन्य 

"यह तर्क कि अभियुक्त या उसके सहयोगियों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वीडियो और स्टेटस संदेश अपलोड करके जमानत पर अपनी रिहाई का जश्न मनाया, परिवादकर्त्ता को किसी विशेष धमकी या भय के बिना जमानत रद्द करने का आधार नहीं हो सकता है।" 

न्यायमूर्ति रविंदर डुडेजा 

स्रोत:दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति रविंदर दुडेजा ने यह निर्णय दिया कि केवल सोशल मीडिया पर जमानत की खुशी मनाना जमानत रद्द करने का आधार नहीं हो सकता, जब तक कि ऐसा उत्सव परिवादकर्त्ता को विशिष्ट धमकी या भयभीत करने के कृत्य से संबंधित न हो। न्यायालय ने गृह-अतिचार के एक मामले में जमानत रद्द करने से इंकार करते हुए उक्त सिद्धांत प्रतिपादित किया 

  • दिल्लीउच्च न्यायालय नेज़फीर आलम बनाम दिल्ली राज्य एवं अन्य (2025) केमामले में यह निर्णय दिया 

ज़फीर आलम बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • परिवादकर्त्ता जफीर आलम ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 483(3) के अधीन एक याचिका दायर की, जिसमें जमानत आवेदन संख्या 891/2025 में सेशन न्यायालय द्वारा अभियुक्त मनीष को दी गई जमानत को रद्द करने की मांग की गई। 
  • यह मामला भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 436, 457, 380 और 34 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये पुलिस थाने नरेला औद्योगिक क्षेत्र में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 193/2025 से संबंधित है। 
  • सेशन न्यायालय ने यह देखते हुए कि अन्वेषण पूर्ण हो चुका है और आरोप पत्र दाखिल हो चुका है, अभियुक्त को जमानत दे दी थी। अभियुक्त 13 मार्च 2025 से अभिरक्षा में था। जमानत कुछ शर्तों के अधीन दी गई थी, जिनमें यह भी सम्मिलित था कि अभियुक्त अभियोजन पक्ष के साक्षियों को धमकाएगा नहीं, सबूतों से छेड़छाड़ नहीं करेगा, या भविष्य में किसी भी आपराधिक क्रियाकलाप में सम्मिलित नहीं होगा। 
  • परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि अभियुक्त ने जमानत की शर्तों का उल्लंघन किया। यह भी कहा गया कि रिहा होने के बाद, अभियुक्त और उसके सह-अभियुक्तों ने सोशल मीडिया पर हथियारों के साथ तस्वीरें पोस्ट करके परिवादकर्त्ता को धमकियाँ देकर कॉलोनी में भय का माहौल उत्पन्न किया। यह भी अभिकथित किया  गया कि एक सह-अभियुक्त गौरव को 12 जून 2025 को परिवादकर्त्ता के घर के सामने देखा गया था। 
  • परिवादकर्त्ता ने दलील दी कि अभियुक्त उसे और उसके परिवार को निरंतर चाकुओं और अन्य घातक हथियारों से धमकाते रहे, जिससे उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई। यह भी कहा गया कि अभियुक्त का परिवादकर्त्ता के प्रति प्रबल हेतुक और व्यक्तिगत दुश्मनी थी, क्योंकि अभियुक्त के एक करीबी सहयोगी की एक घटना में मृत्यु हो गई थी, जिसमें अभियुक्त के साथियों ने परिवादकर्त्ता के पुत्र और उसके दोस्तों पर हमला किया था। इसी दुश्मनी की पृष्ठभूमि को अभियुक्त द्वारा परिवादकर्त्ता और उसके परिवार से बदला लेने का कारण बताया गया। 
  • परिवादकर्त्ता ने आगे तर्क दिया कि अभियुक्त और उसके गुर्गों ने जमानत पर रिहाई का जश्न सोशल मीडिया पर वीडियो और स्टेटस संदेश अपलोड करके मनाया, घातक हथियारों का प्रदर्शन किया और विधि के शासन की खुलेआम अवहेलना करते हुए परिवादकर्त्ता को धमकियाँ दीं। 
  • राज्य सरकार ने आवेदन का विरोध करते हुए दलील दी कि परिवादकर्त्ता ने न तो सेशन न्यायालय में जमानत रद्द करने के लिये कोई आवेदन दायर किया और न ही जमानत मिलने के बाद धमकी या आपराधिक धमकी का कोई परिवाद दर्ज कराया। इसलिये, यह तर्क दिया गया कि आरोप निराधार हैं। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि किसी अजमानतीय मामले में प्रारंभिक प्रक्रम में जमानत की अस्वीकृति और पहले से दी गई जमानत को रद्द करने पर अलग-अलग आधार पर विचार और कार्रवाई की जानी चाहिये। पहले से दी गई जमानत को रद्द करने का निदेश देने वाले आदेश के लिये बहुत ही ठोस और प्रबल परिस्थितियाँ आवश्यक हैं। 
  • न्यायालय ने कहा कि सामान्यतः, जमानत रद्द करने के आधार न्याय प्रशासन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना या हस्तक्षेप करने का प्रयत्न करना, न्याय की प्रक्रिया से बचना या बचने का प्रयत्न करना, या किसी भी तरीके से अभियुक्त को दी गई रियायत का दुरुपयोग करना है। 
  • न्यायालय ने माना कि यह तर्क कि अभियुक्त या उसके सहयोगियों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वीडियो और स्टेटस संदेश अपलोड करके जमानत पर अपनी रिहाई का जश्न मनाया, परिवादकर्त्ता को किसी विशेष धमकी या भय के बिना जमानत रद्द करने का आधार नहीं हो सकता। 
  • न्यायालय ने पाया कि सोशल मीडिया पर पोस्ट किये गए स्क्रीनशॉट रिकॉर्ड में दर्ज किये गए थे, लेकिन इन स्क्रीनशॉट से यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या ये अभियुक्त द्वारा परिवादकर्त्ता को धमकाने के उद्देश्य से पोस्ट किये गए थे। न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये अभियुक्त की जमानत रद्द नहीं की जा सकती क्योंकि सह-अभियुक्तों में से एक को 12 जून 2025 को परिवादकर्त्ता के आवास के सामने देखा गया था। 
  • न्यायालय ने पाया कि अभियुक्तों द्वारा दी गई किसी भी धमकी के संबंध में पुलिस में कोई परिवाद नहीं किया गया था। न्यायालय ने कहा कि पुलिस में कोई परिवाद न किये जाने के कारण, धमकी के आरोप सिद्ध नहीं होते।  
  • न्यायालय ने माना कि अभियुक्त द्वारा दी गई धमकियों के अभिकथनों को प्रमाणित करने के लिये अभिलेख में कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अतः न्यायालय को अभियुक्त की जमानत रद्द करने का कोई उचित कारण नहीं मिला। 
  • परिणामस्वरूप, न्यायालय ने जमानत रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया, क्योंकि इसमें कोई दम नहीं पाया गया। 

जमानत रद्द करने के लिये दिशानिर्देश क्या हैं? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 480(5) और धारा 483(3) के अधीन जमानत रद्द करने की शक्ति का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिये, क्योंकि रद्दीकरण व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। 
  • प्रारंभिक प्रक्रम में जमानत रद्द करना जमानत अस्वीकार करने से भिन्न होता है। पहले से दी गई जमानत रद्द करने के लिये बहुत ही ठोस और प्रबल परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं। 
  • रद्द करने के सामान्य आधारों में मोटे तौर पर न्याय प्रशासन की उचित प्रक्रिया में हस्तक्षेप, न्याय की उचित प्रक्रिया से बचना, या अभियुक्त को दी गई रियायत का दुरुपयोग सम्मिलित है। 
  • जमानत रद्द की जा सकती है यदि अभियुक्त दी गई स्वतंत्रता का दुरुपयोग करता है, अन्वेषण में बाधा डालता है, या अन्वेषण की प्रगति में बाधा डालता है। 
  • यदि अभियुक्त साक्ष्यों से छेड़छाड़ करता है, साक्षियों के काम में हस्तक्षेप करता है, या अभियोजन पक्ष के साक्षियों को धमकाता या डराता है, तो जमानत रद्द करना उचित है 
  • अभियुक्त द्वारा भागने, न्याय से बचने, देश से भागने या न्यायालय की अधिकारिता से फरार होने का प्रयत्न, जमानत रद्द करने का आधार बनता है। 
  • यदि अभियुक्त जमानत पर रिहा होने के बाद भी इसी प्रकार की अवैध क्रियाकलापों में संलिप्त रहता है या आपराधिक क्रियाकलापों में संलिप्त रहता है, तो उसकी जमानत रद्द की जा सकती है 
  • उचित प्रतिफल के बिना या मूल या प्रक्रियात्मक विधि के उल्लंघन में दी गई जमानत को रद्द किया जा सकता है, जहाँ आदेश पूरी तरह से तर्कहीन, अनुचित या विकृत हो। 
  • सेशन न्यायालय और उच्च न्यायालय को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483(3) के अधीन जमानत रद्द करने का समवर्ती अधिकारिता प्राप्त है। 

निर्णय विधि  

  • एस.एस. म्हेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2010) के मामले में, 
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि जमानत के मामलों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के बीच नाजुक संतुलन बनाना महत्त्वपूर्ण है। 
    • यह देखा गया कि प्रत्येक आपराधिक अपराध को समाज के विरुद्ध अपराध माना जाता है, और इसलिये जमानत समाज के लिये महत्त्वपूर्ण महत्त्व रखती है। 
  • सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2022) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि मानक जमानत देना है, और जमानत अस्वीकार करना एक अपवाद है। 
  • महिपाल बनाम राजेश कुमार उर्फ़ पोलिया और अन्य (2019) के मामले में 
    • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि जमानत का निर्णय पूरी तरह से तर्कहीन और अनुचित है, तो दी गई जमानत को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 439(2) का प्रयोग किया जा सकता है। 
    • यह माना गया कि जमानत रद्द करने की शक्ति का प्रयोग मामले के गुण-दोष, स्वतंत्रता के दुरुपयोग या अन्य परिस्थितियों के आधार पर किया जा सकता है। 
    • उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया कि जमानत रद्द करने के प्रमुख कारकों में अभियुक्त का समान अवैध क्रियाकलापों में संलिप्त होना, अन्वेषण की प्रगति में बाधा डालना, या देश से भागने का प्रयत्न करना सम्मिलित है। 
  • रूबीना ज़हीर अंसारी बनाम शरीफ अल्ताफ फर्नीचरवाला (2014) के मामले में, 
    • उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि सेशन न्यायालय के बजाय सीधे उच्चतम न्यायालय में जमानत रद्द करने की याचिका प्रस्तुत करना न्यायिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा। 
    • यह माना गया कि पीड़ित पक्ष को निचले न्यायालयों द्वारा दी गई जमानत को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालयों में जाने का अधिकार है।