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आपराधिक कानून
भारत में लिव-इन रिलेशनशिप और सरोगेसी कानून
« »29-Jul-2025
अमित राम ज़ेंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य “प्रतिफल के बदले सहवास और बालक पैदा करने का करार सरोगेसी के समान है, जो लोक नीति के विरुद्ध है और भारत में वैध नहीं है।” न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी एवं संजय देशमुख |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी एवं न्यायमूर्ति संजय देशमुख ने माना है कि प्रतिफल के बदले में सहवास और बालक पैदा करने का करार सरोगेसी के समान है, जो लोक नीति के विरुद्ध है और बलात्संग की FIR के अभिखण्डन के लिये वैध बचाव नहीं है।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अमित राम ज़ेंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
अमित राम ज़ेंडे बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- उस्मानाबाद के 40 वर्षीय कृषक अमित राम ज़ेंडे ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376(2)(n), 307, 324, 323, 504, 506 के साथ साथ धारा 34 के अधीन अपराधों के लिये आनंदनगर पुलिस स्टेशन में दर्ज FIR अपराध संख्या 185/2022 से संबंधित चार्जशीट संख्या 87/2022 में हो रही कार्यवाही के अभिखण्डन की मांग करते हुए एक आपराधिक आवेदन संस्थित किया।
- अभियोक्ता, एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की अनपढ़ महिला, 26 जून 2022 को FIR दर्ज होने से लगभग पाँच महीने पहले आवेदक द्वारा घरेलू सहायिका के रूप में नियुक्त की गई थी।
- अभियोक्ता के कथन के अनुसार, आरंभ में लगभग एक महीने तक उसके संग उचित व्यवहार नहीं किया गया, जिसके बाद आवेदक ने उसका शारीरिक एवं यौन शोषण करना आरंभ कर दिया। कथित बलात्संग की पहली घटना FIR से चार महीने पहले हुई थी, जब वह उसके नए घर की सफाई कर रही थी।
- अभियोक्ता ने आरोप लगाया कि आवेदक उसे बलपूर्वक बेडरूम में ले गया, उसे धमकाते हुए उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध स्थापित किये और उसे घर से बाहर जाने से रोकते हुए कई अवसरों पर ऐसा करता रहा।
- 24 जून 2022 को, जब अभियोक्ता ने घर छोड़ने की मंशा जताई और अपना वेतन मांगा, तो आवेदक ने कथित तौर पर उसके साथ मारपीट की और उसका गला घोंटने का प्रयास किया। इसके बाद उसकी माँ और एक दोस्त उसे अस्पताल ले गए, जहाँ मेडिकल जाँच में उसके शरीर पर नौ चोटों के निशान पाए गए।
- आवेदक ने तर्क दिया कि प्राथमिकी परोक्ष हेतु के कारण दर्ज की गई थी और दावा किया कि उसके, अभियोक्ता, उसकी माँ एवं उसकी अपनी पत्नी के बीच 17 जनवरी 2022 से 17 जनवरी 2023 तक एक वर्ष के लिये "लिव-इन रिलेशनशिप" के लिये एक लिखित करार हुआ था।
- कथित करार के अनुसार, अभियोक्ता, आवेदक के लिये प्रतिफल राशि के बदले में एक बच्चा पैदा करेगी, तथा पैदा होने वाले बालक का संरक्षण आवेदक को दी जाएगी, जबकि अभियोक्ता बालक पर सभी अधिकार त्याग देगी।
- अभियोक्ता एक विवाहित महिला थी जिसके दो बच्चे थे, जो दांपत्य विवादों के कारण तीन वर्ष से अपने पति से पृथक रह रही थी तथा आर्थिक तंगी में थी, जिससे वह आर्थिक सहायता प्रदान करने की आड़ में शोषण की चपेट में आ गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि पक्षों के बीच कथित करार मूलतः लोक नीति के विरुद्ध था क्योंकि यह मूलतः एक सरोगेसी व्यवस्था के समान था, जो भारत में वैध नहीं है, तथा अवैध दस्तावेज़ के अंतर्गत प्राप्त ऐसी सहमति भारतीय दण्ड संहिता की धारा 90 के अधीन वैध सहमति नहीं मानी जा सकती।
- न्यायालय ने कथित करार की प्रामाणिकता पर गंभीर संदेह व्यक्त किया तथा कहा कि यह विश्वास करना कठिन है कि आवेदक की पत्नी स्वेच्छा से ऐसी व्यवस्था में सहभागी होगी जिससे वह "अपने पति से पृथक हो जाएगी", क्योंकि कोई भी विवेकशील विवाहित महिला ऐसा नहीं करेगी।
- न्यायालय ने अभियोक्ता की कमज़ोर स्थिति को स्वीकार करते हुए कहा कि वह एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की अशिक्षित महिला थी जो अपने पति से पृथक होने के बाद आर्थिक तंगी से जूझ रही थी, जिससे उसे आर्थिक सहायता लेने के कारण शोषण का शिकार होना पड़ा।
- न्यायालय ने माना कि इस मामले में कथित सहमति को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 90 के अधीन परिभाषित स्वतंत्र सहमति नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह एक अवैध दस्तावेज़ के माध्यम से प्राप्त की गई थी जो लोक नीति का उल्लंघन करती थी और इसमें निषिद्ध सरोगेसी व्यवस्था निहित थी।
- न्यायालय ने आवेदक के अधिवक्ता द्वारा उद्धृत विधिक पूर्व निर्णयों, विशेष रूप से डॉ. ध्रुवराम मुरलीधर सोनार बनाम महाराष्ट्र राज्य और अजीत सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, में अंतर स्थापित करते हुए कहा कि उन मामलों की तथ्यात्मक परिस्थितियाँ वर्तमान मामले पर लागू नहीं होतीं।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अधीन सहमति, कृत्य के महत्त्व और नैतिक गुणवत्ता के ज्ञान पर आधारित बुद्धि के प्रयोग के बाद स्वैच्छिक भागीदारी होनी चाहिये, तथा प्रतिरोध एवं सहमति के बीच पूरी तरह से विकल्प चुनने के बाद दी जानी चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि चिकित्सीय साक्ष्य अभियोजन पक्ष के शारीरिक हमले के आरोपों का समर्थन करते हैं, क्योंकि 25 जून 2022 को की गई चिकित्सीय जाँच में उसके शरीर पर नौ चोटों के निशान पाए गए, जो आवेदक के विरुद्ध उसके दावों की पुष्टि करते हैं।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कथित करार की अवैध प्रकृति, पीड़िता की संवेदनशील परिस्थितियों, आवेदक के विरुद्ध प्रथम दृष्टया साक्ष्य, और इस तथ्य को देखते हुए कि भुगतान से संबंधित सरोगेसी व्यवस्थाएँ निषिद्ध हैं तथा लोक नीति के विरुद्ध हैं, वह कार्यवाही के अभिखण्डन करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग नहीं करेगा, और साक्ष्यों की उचित जाँच के लिये मामले की पूरी सुनवाई आवश्यक है।
भारत में लिव-इन रिलेशनशिप और सरोगेसी संबंधी विधि क्या है?
लिव-इन रिलेशनशिप
- संवैधानिक एवं विधिक मान्यता:
- लिव-इन संबंधों को विधिक आधार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 से प्राप्त होता है, जो जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, तथा उच्चतम न्यायालय ने लगातार यह माना है कि सहमति देने वाले वयस्कों को अपनी पसंद के साथी के साथ सहवास करने का मौलिक अधिकार है, जिससे ऐसे संबंध भारतीय विधि के अंतर्गत विधिक रूप से स्वीकार्य हो जाते हैं।
- विधिक संरक्षण ढाँचा:
- घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण का अधिकार, घरेलू हिंसा से सुरक्षा, साझा घरों में संपत्ति का अधिकार, तथा ऐसे संबंधों से जन्मे संतान को वैधता प्रदान करके "विवाह की प्रकृति के संबंधों" में महिलाओं को व्यापक सुरक्षा प्रदान करता है, साथ ही यह भागीदारों को प्रदर्शित योगदान के माध्यम से संपत्ति के अधिकार प्राप्त करने की अनुमति भी देता है।
- न्यायिक प्रगति और राज्य विधान:
- नंदकुमार बनाम केरल राज्य (2018) और शफीन जहान बनाम अशोकन के.एन. (2018) सहित हाल के उच्चतम न्यायालय के निर्णयों ने सामाजिक अपेक्षाओं पर व्यक्तिगत स्वायत्तता पर बल दिया है, जबकि उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता ने लिव-इन रिश्तों के पंजीकरण को अनिवार्य कर दिया है तथा परित्यक्त महिलाओं के लिये देखरेख एवं संतानों के लिये वैधता सहित विशिष्ट अधिकार प्रदान किये हैं।
- LGBTQIA+ समुदाय के लिये चुनौतियाँ:
- नवतेज सिंह जौहर निर्णय के बाद समलैंगिक सहवास विधिक होने के बावजूद, LGBTQIA+ कपल को सुरक्षात्मक विधि में विषमलैंगिक भाषा, स्वचालित उत्तराधिकार और निकटतम संबंधी मान्यता की कमी, अस्पताल में मुलाकात के अधिकार की अस्पष्टता और प्रगतिशील न्यायिक निर्वचनों के बावजूद व्यापक विधायी संरक्षण की अनुपलब्धता के कारण महत्त्वपूर्ण विधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
सरोगेसी संबंधी विधियाँ
- प्रतिबंधात्मक विधिक ढाँचा:
- सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 एक अत्यधिक प्रतिबंधात्मक विधिक ढाँचा स्थापित करता है जो न्यूनतम पाँच वर्ष का विवाह, बांझपन का चिकित्सा प्रमाणन और आयु संबंधी प्रतिबंध सहित विशिष्ट मानदण्डों को पूरा करने वाले विषमलैंगिक विवाहित कपल के लिये केवल परोपकारी सरोगेसी की अनुमति देता है, जबकि वाणिज्यिक सरोगेसी को पूरी तरह से प्रतिबंधित करता है तथा एकल व्यक्तियों, समलिंगी कपल, लिव-इन कपल और विदेशी नागरिकों को इससे बाहर रखता है।
- नियामक संरचना एवं पात्रता:
- अधिनियम में राष्ट्रीय और राज्य सरोगेसी बोर्डों को नियामक प्राधिकरण के रूप में गठित किया गया है तथा यह अनिवार्य किया गया है कि सरोगेट माताएँ 25-35 वर्ष की आयु के ऐसे भावी दम्पतियों की निकट संबंधी होनी चाहिये, जिनकी कम से कम एक जैविक संतान हो, तथा उन्हें केवल एक बार ही सरोगेट के रूप में सेवा करने की अनुमति हो, तथा उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्रावधान है, जिसमें दस वर्ष तक का कारावास एवं 10 लाख रुपये तक का जुर्माना शामिल है।