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आपराधिक कानून

चिकित्सीय उपेक्षा

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 25-Jul-2025

डॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 

" किसी भी चिकित्सीय पेशेवर को, जो अपने पेशे को पूरी लगन और सावधानी के साथ करता है, संरक्षित किया जाना चाहिये, परंतु निश्चित रूप से उन डॉक्टरों को नहीं, जिन्होंने उचित सुविधाओं, डॉक्टरों और बुनियादी ढाँचे के बिना नर्सिंग होम खोल लिये हैं और मरीजों को सिर्फ पैसे ऐंठने के लिये प्रलोभित कर रहे हैं। " 

न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार 

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंन्यायमूर्ति प्रशांत कुमार नेडॉक्टर की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि लाभ के लिये मरीजों को 'गिनी पिग/एटीएम' के रूप में उपयोग  करने वाले निजी अस्पतालों को चिकित्सीय परिश्रम की आड़ में संरक्षित नहीं किया जा सकता।   

  • इलाहाबादउच्च न्यायालय नेडॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह धारित किया गया ।   

डॉ. अशोक कुमार राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • देवरिया के सरौरा गांव के बृजेश पांडे की पत्नी श्रीमती उषा पांडे को 28 जुलाई 2007 को प्रसव के लिये डॉ. अशोक कुमार राय के स्वामित्व वाले सावित्री नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। वह मार्च 2007 से ही उनकी प्रसवपूर्व देखभाल में थीं और उनका पहले भी सिजेरियन ऑपरेशन हो चुका था। 
  • मरीज को 28 जुलाई 2007 को भर्ती किया गया था, 29 जुलाई 2007 को सुबह 11 बजे परिवार के सदस्यों से सिजेरियन सर्जरी के लिये सम्मति प्राप्त की गई थी, परंतु सर्जरी उसी दिन शाम 5:30 बजे की गई, जिसके परिणामस्वरूप भ्रूण की मृत्यु हो गई। 
  • 29 जुलाई 2007 को एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी, जिसमें विलंब से सर्जरी के कारण चिकित्सीय उपेक्षा, विरोध करने पर नर्सिंग होम स्टाफ द्वारा परिवार के सदस्यों पर शारीरिक हमला, तथा उचित डिस्चार्ज दस्तावेज उपलब्ध कराए बिना 8,700 रुपये और अतिरिक्त 10,000 रुपये की मांग के साथ वित्तीय शोषण का आरोप लगाया गया था। 
  • मृत भ्रूण के पोस्टमार्टम परीक्षण से पता चला कि मृत्यु का कारण "लंबे समय तक प्रसव पीड़ा" था, जिससे संकेत मिलता है कि समय पर शल्य चिकित्सा द्वारा मृत्यु को रोका जा सकता था। 
  • मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने एक मेडिकल बोर्ड का गठन किया, जिसने केवल आवेदक के बयान की परीक्षा की और निष्कर्ष निकाला कि कोई लापरवाही नहीं हुई, परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट और विरोधाभासी मेडिकल अभिलेख बोर्ड के समक्ष नहीं रखे गए। 
  • विभिन्न दस्तावेजों में बताए गए प्रवेश के अलग-अलग समय (प्रथम सूचना रिपोर्ट में सुबह 10:30 बजे, मेडिकल बोर्ड में दोपहर 3:30 बजे, क्रॉस-एफआईआर में शाम 7:00 बजे) और दो अलग-अलग ऑपरेशन थियेटर नोट्स सहित कई विसंगतियां सामने आईं, जिससे निर्मित साक्ष्य पर प्रश्न उठे। 
  • अन्वेषण अधिकारी द्वारा मेडिकल बोर्ड के निष्कर्षों के आधार पर मामले को बंद करने की अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, शिकायतकर्ता ने इसे बंद करने को चुनौती देते हुए 15 मार्च 2008 को एक आपत्ति याचिका दायर की। 
  • मजिस्ट्रेट ने अंतिम रिपोर्ट को खारिज कर दिया, प्रथम दृष्टया चिकित्सीय उपेक्षा  का मामला पाया, और डॉ. अशोक कुमार राय के विरुद्ध धारा 304, 315, 323 और 506 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन सम्मन जारी किया, जिसके पश्चात् उन्होंने धारा 482 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन यह आवेदन दायर कर सम्मन और पूरी कार्यवाही को रद्द करने की मांग की। 
  • न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या सर्जरी के लिये सम्मति प्राप्त करने और वास्तव में ऑपरेशन करने के बीच 4-5 घंटे का अस्पष्टीकृत विलंब, जिसके कारण कथित तौर पर लंबे समय तक प्रसव पीड़ा के कारण भ्रूण की मृत्यु हो गई, आपराधिक चिकित्सीय उपेक्षा  का मामला बनता है, जिसके लिये अभियोजन की आवश्यकता है। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि चिकित्सीय पेशेवरों को डॉक्टर-रोगी संबंध बनाए रखने के लिये तुच्छ अभियोजनों से संरक्षण मिलना चाहिये, परंतु ऐसा संरक्षण केवल उन लोगों को ही मिलता है जो उचित परिश्रम और कौशल का प्रयोग करते हैं, तथा उन डॉक्टरों को संरक्षण नहीं दिया जा सकता जो उचित सुविधाओं, डॉक्टरों और बुनियादी ढाँचे के बिना नर्सिंग होम चलाते हैं और केवल पैसा ऐंठने के लिये मरीजों को प्रलोभित हैं। 
  • न्यायालय ने मेडिकल बोर्ड की क्लीन चिट को अविश्वसनीय पाया, क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट जिसमें "लंबे समय तक प्रसव पीड़ा" के कारण मृत्यु दर्शाने वाली बात और ऑपरेशन थियेटर के विरोधाभासी नोट्स शामिल थे, बोर्ड के समक्ष महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए, जिससे उनका अन्वेषण एकतरफा और अधूरा रह गया।  
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि चिकित्सीय उपेक्षा  के मामलों में आपराधिक दायित्व के लिये, लापरवाही की मात्रा गंभीर या बहुत उच्च मात्रा की होनी चाहिये, जिसमें दुराशय भी सम्मिलित हो, जो इसे सिविल उपेक्षा से अलग करता है, और ऐसे आचरण की आवश्यकता होती है जो एक सक्षम चिकित्सीय पेशेवर से अपेक्षित देखभाल के सामान्य मानकों से नीचे हो। 
  • न्यायालय ने पाया कि यह एक "क्लासिक मामला" है, जहां सम्मति दोपहर 12 बजे प्राप्त की गई थी, परंतु बिना किसी उचित कारण के सर्जरी को शाम 4-5 बजे तक के लिये टाल दिया गया, साथ ही लंबे समय तक प्रसव पीड़ा के कारण मृत्यु के पोस्टमार्टम साक्ष्य भी थे, जिससे प्रथम दृष्टया चिकित्सीय उपेक्षा  और मरीज को छल की दुर्भावनापूर्ण आशय की पुष्टि होती है। 
  • न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी की कि निजी अस्पताल और नर्सिंग होम केवल पैसा ऐंठने के लिये मरीजों को "गिनी पिग/एटीएम मशीन" के रूप में मानने लगे हैं, वे पर्याप्त चिकित्सा स्टाफ के बिना काम कर रहे हैं और उचित चिकित्सा बुनियादी ढाँचे को बनाए रखने के बजाय मरीजों को भर्ती करने के बाद ही डॉक्टरों को बुला रहे हैं। 
  • न्यायालय ने मामले को "पूर्णतया दुस्साहस" बताया, जहां डॉक्टर ने मरीज को भर्ती किया, सर्जरी के लिये सम्मति प्राप्त की, परंतु एनेस्थेटिस्ट की कमी के कारण समय पर ऑपरेशन करने में विफल रहे, तथा 4-5 घंटे की अस्पष्ट विलंब प्रत्यक्ष रूप से   आवेदक की अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं के कारण हुई। 
  • न्यायालय ने धारित किया कि प्रवेश के समय, सम्मति और सर्जरी के संबंध में साक्ष्य में भौतिक विरोधाभास, साथ ही दो अलग-अलग ओटी नोट्स और निर्विवाद पोस्टमार्टम निष्कर्षों के अस्तित्व ने तथ्य के विवादित प्रश्न उठाए हैं, जिनका वनिर्णय केवल विचारण के माध्यम से ही किया जा सकता है, जिससे मामला दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन खारिज करने के लिये अनुपयुक्त हो जाता है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आपराधिक कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देने से चिकित्सा जवाबदेही सुनिश्चित करने में व्यापक लोक हित की पूर्ति होती है, तथा यह स्पष्ट संदेश जाता है कि अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं और विलंबित उपचार के परिणामस्वरूप रोगी को होने वाली हानि को विधिक जांच का सामना करना पड़ेगा, जबकि वास्तविक चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा और लापरवाह चिकित्सकों को जवाबदेह ठहराने के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अधीन चिकित्सीय उपेक्षा क्या है? 

  •  भारतीय न्याय संहिता की धारा 106(1) किसी भी उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण किसी ऐसे कार्य से मृत्यु कारित की गई, जो आपराधिक मानव वध की कोटि में नहीं आती है, तथा इसमें चिकित्सा प्रक्रियाओं के दौरान पंजीकृत चिकित्सकों द्वारा की गई सामान्य लापरवाही और विशिष्ट चिकित्सीय उपेक्षा दोनों शामिल हैं। 
  • यह प्रावधान दो स्तरीय दण्ड प्रणाली स्थापित करता है उपेक्षापूर्ण हुई मृत्यु के सामान्य मामलों में जुर्माने के साथ पाँच वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है, जबकि चिकित्सीय प्रक्रियाएं करने वाले पंजीकृत चिकित्सकों को जुर्माने के साथ दो वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है, जो चिकित्सा पद्धति की जटिल प्रकृति को ध्यान में रखता है। 
  • विधि में स्पष्ट रूप से "पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी" को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसके पास राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 के अधीन मान्यता प्राप्त चिकित्सा योग्यताएं हैं, और जिसका नाम राष्ट्रीय चिकित्सा रजिस्टर या राज्य चिकित्सा रजिस्टर में दर्ज है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि केवल योग्य पेशेवरों को ही कम दण्ड का लाभ मिले। 
  • चिकित्सा व्यवसायियों के लिये कम दण्ड केवल तभी लागू होता है जब उपेक्षापूर्ण कार्य "चिकित्सा प्रक्रिया करते समय" होता है, जिसका अर्थ है कि लापरवाही प्रशासनिक या गैर-चिकित्सा गतिविधियों के बजाय चिकित्सा उपचार, निदान या शल्य चिकित्सा हस्तक्षेप के निष्पादन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होनी चाहिये।  
  • प्रावधान में कहा गया है कि उपेक्षापूर्ण कृत्य से मृत्यु होनी चाहिये तथा उसे आपराधिक मानव की कोटि में नहीं माना जाएगा, जिससे साधारण लापरवाही (धारा 106) और हत्या के अधिक गंभीर रूपों के बीच स्पष्ट अंतर स्थापित होता है, जिसमें आपराधिक आशय या मृत्यु की संभाव्यता का ज्ञान शामिल होता है। 
  • विभेदक दण्ड विधायी मान्यता को दर्शाता है कि चिकित्सा पद्धति में अंतर्निहित जोखिम और जटिल निर्णय लेने की प्रक्रिया शामिल होती है, जिसके लिये एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो चिकित्सा पेशेवरों को जवाबदेह बनाए रखे, साथ ही अत्यधिक आपराधिक दायित्व के भय से उन्हें आवश्यक चिकित्सा प्रक्रियाएं करने से न रोके।