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आपराधिक कानून
इमरान प्रतापगढ़ी बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2025)
«24-Jul-2025
परिचय:
यह मामला संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अधीन प्रदत्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से संबंधित है। इसमें इस तथ्य की जाँच की गई है कि क्या किसी सांसद द्वारा सोशल मीडिया पर कविता का पाठन और साझा करना भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अधीन एक आपराधिक अपराध माना जा सकता है।
तथ्य:
- अपीलकर्त्ता राज्यसभा सदस्य हैं।
- 29 दिसंबर 2024 को, उन्होंने गुजरात के जामनगर में नगर पार्षद अल्ताफ गफ्फारभाई खाफी के जन्मदिन पर आयोजित एक सामूहिक विवाह समारोह में भाग लिया।
- इस कार्यक्रम के दौरान, उर्दू में एक कविता सुनाई गई, जिसमें लाक्षणिक रूप से अन्याय का प्रेम से सामना करने और सत्य के लिये व्यक्तिगत हानि का त्याग करने की चर्चा की गई थी।
- इस कार्यक्रम को रिकॉर्ड किया गया और बाद में, 'X' पर अपने सत्यापित अकाउंट पर, अपीलकर्त्ता ने कार्यक्रम का एक वीडियो पोस्ट किया, जिसमें पृष्ठभूमि में कविता चल रही थी।
- इस कविता को उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय के पैरा 13 में पुनः प्रस्तुत किया गया था।
- दूसरे प्रतिवादी (प्रथम सूचक) द्वारा जामनगर पुलिस स्टेशन में एक शिकायत दर्ज कराई गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि वीडियो एवं कविता:
- सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काया।
- किसी समुदाय की धार्मिक और सामाजिक भावनाओं को आहत पहुँचाई।
- राष्ट्रीय स्तर पर दो समुदायों के बीच दुश्मनी उत्पन्न हुई।
- राष्ट्रीय एकता पर हानिकारक प्रभाव डाला।
- भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की कई धाराओं के अधीन अपीलकर्त्ता के विरुद्ध FIR दर्ज की गई:
- Sections 196, 197(1), 299, 302, 57, and 3(5)
- यह घटना 26 जनवरी 2025 से कुछ समय पहले घटित हुई, जब भारतीय संविधान ने अपने 75 वर्ष पूर्ण किये थे, जिसमें मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिये वर्तमान चुनौतियों पर चिंता व्यक्त किया गया था।
- अपीलकर्त्ता ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 528 और संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत एक याचिका संस्थित कर प्राथमिकी रद्द करने की मांग की।
- न्यायालय के निर्देशों का पालन करते हुए, अपीलकर्त्ता ने एक शपथपत्र प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया:
- यह कविता उनके द्वारा नहीं लिखी गई थी।
- कविता प्रेम और अहिंसा को बढ़ावा देती है, न कि घृणा या उकसावे को।
- गुजरात उच्च न्यायालय (एकल न्यायाधीश) ने याचिका को खारिज करते हुए कहा:
- अंवेषण अभी प्रारंभिक अवस्था में था।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
शामिल मुद्दे:
- क्या कविता का पाठ और उसे पोस्ट करना, भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 196, 197(1), 299, 302 एवं 57 के अधीन आपराधिक दायित्व को गठित करता है।
- क्या FIR के पंजीकरण ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अंतर्गत अपीलकर्त्ता के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है।
न्यायिक टिप्पणी:
- अपील को स्वीकार करते हुए, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका (राय प्रदाता) और न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ ने निष्कर्ष दिया:
कविता की विषय-वस्तु का विश्लेषण:
- कविता में किसी धर्म, जाति या समुदाय का कोई संदर्भ नहीं था।
- इसने अहिंसा को बढ़ावा दिया एवं लाक्षणिक रूप से बलिदान एवं अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध को प्रोत्साहित किया।
- इसने घृणा, शत्रुता या सामाजिक वैमनस्य को नहीं भड़काया।
कथित अपराधों की परीक्षा:
- BNS की धारा 196: कविता ने समुदायों के बीच वैमनस्य या घृणा को बढ़ावा नहीं दिया।
- BNS की धारा 197: किसी भी धार्मिक, नस्लीय या क्षेत्रीय समूह के विरुद्ध कोई आरोप नहीं लगाया गया।
- BNS की धारा 299: कविता द्वारा धार्मिक विश्वासों का अपमान करने के आरोप को "हास्यास्पद" कहा गया।
- BNS की धारा 302: धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का कोई आशय नहीं पाया गया।
- BNS की धारा 57: अपीलकर्त्ता द्वारा दुष्प्रेरण का कोई भी कृत्य सिद्ध नहीं हुआ।
पुलिस ड्यूटी और प्रारंभिक जाँच:
न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 173(3) के अधीन, तीन वर्ष या उससे अधिक लेकिन सात वर्ष से कम की सज़ा वाले भाषण-संबंधी मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जाँच अनिवार्य थी।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित मामले की संवेदनशीलता के बावजूद पुलिस ऐसी जाँच करने में विफल रही।
उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण की आलोचना:
- उच्च न्यायालय ने संवैधानिक संरक्षण के महत्त्व को न समझकर चूक की।
- "अंवेषण के प्रारंभिक चरण" पर भरोसा करना अनुचित था, जब प्रथम दृष्टि में कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ था।
- उच्च न्यायालय, विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के अपने अधिकार का प्रयोग करने में विफल रहा।
स्वतंत्र अभिव्यक्ति का संवैधानिक महत्त्व:
- स्वस्थ लोकतंत्र के लिये स्वतंत्र अभिव्यक्ति अत्यंत आवश्यक है।
- न्यायालय और पुलिस अनुच्छेद 51-A(a) के अंतर्गत संवैधानिक आदर्शों को बनाए रखने के लिये बाध्य हैं।
- स्वतंत्रता और संवैधानिक लोकतंत्र की रक्षा के लिये असहमति और अलोकप्रिय विचारों के प्रति सहिष्णुता आवश्यक है।
स्थापित विधिक सिद्धांत:
- पुलिस को भाषण संबंधी मामलों में BNSS की धारा 173(3) के अधीन प्रारंभिक जाँच करनी चाहिये।
- न्यायालयों को संवैधानिक स्वतंत्रताओं की सतर्कतापूर्वक रक्षा करनी चाहिये और आपराधिक विधि के दुरुपयोग को रोकना चाहिये।
- भाषण को तब तक आपराधिक नहीं माना जाना चाहिये जब तक कि वह स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 19(2) के अपवादों के अंतर्गत न आता हो।
निष्कर्ष:
इस मामले के मूल में काव्यात्मक और राजनीतिक अभिव्यक्ति का संवैधानिक संरक्षण और पुलिस व न्यायपालिका का कर्त्तव्य निहित है कि वे अस्पष्ट या निराधार आपराधिक आरोपों के विरुद्ध इन अधिकारों की रक्षा करें। त्याग एवं अहिंसा को बढ़ावा देने वाली कविता पोस्ट करना, BNS की धारा 196, 197, 299, 302, या 57 के अंतर्गत अपराध नहीं है और ऐसे मामलों में FIR दर्ज करना विधि का दुरुपयोग है।