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आपराधिक कानून
खतरनाक आयुध क्या है?
« »22-Jul-2025
कुमारन बनाम केरल राज्य "एक पत्थर अपनी प्रकृति, आकार, तीक्ष्णता या किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनने की क्षमता के आधार पर एक खतरनाक आयुध के रूप में योग्य हो सकता है।" न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ ने कहा है कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 326 के अधीन पत्थर को खतरनाक आयुध माना जा सकता है, यदि उसका प्रयोग इस प्रकार से किया जाए जिससे मृत्यु होने की संभावना हो। न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ ने स्पष्ट किया कि चाकू या बंदूक जैसे हथियार स्वाभाविक रूप से खतरनाक होते हैं, किंतु पत्थर जैसी अन्य वस्तुएँ दूसरी श्रेणी में आती हैं और उनका मूल्यांकन उनके प्रयोग के आधार पर किया जाना चाहिये। इस मामले में, पत्थर के कारण चेहरे में अस्थि-भंग (fracture) हुआ, जिससे धारा 326 (BNS की धारा 118) के अधीन दोषसिद्धि उचित ठहराई गई।
- केरल उच्च न्यायालय ने कुमारन बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
कुमारन बनाम केरल राज्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में कोत्तोथुमल कॉलोनी, एडक्करा अम्सोम देसोम, कोझिकोड तालुक के वेल्लन पुत्र कुमारन को पुनरीक्षण याचिकाकर्ता (अभियुक्त) तथा केरल राज्य को प्रत्यर्थी बनाया गया है।
- 1 जुलाई 1999 को लगभग 3:00 बजे, एडक्करा अम्सोम, थलाकुलथुर पंचायत, वार्ड नंबर 8 में एक झगड़ा हुआ। अभियोजन पक्ष के मामले के अनुसार, कुमारन ने साशय वास्तविक परिवादकर्त्ता (पीड़ित) को फर्श पर धकेल दिया, उसकी गर्दन पकड़ ली, और उसके चेहरे पर पत्थर से वार किया, जिससे कथित तौर पर हड्डी टूट गई।
- यह मामला शुरू में कोयिलैंडी स्थित प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय में सी.सी. संख्या 787/1999 के रूप में दायर किया गया था। कुमारन पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 326 के अधीन आरोप लगाया गया था, जो खतरनाक आयुधों या साधनों से साशय घोर उपहति कारित करने से संबंधित है।
- अभियोजन पक्ष ने साक्षियों (PWs 1 to 10) का परीक्षण किया और प्रदर्श संख्या 1 से 5 (exhibits P1 to P5) तक अंकित किये। मुकदमे के दौरान भौतिक वस्तुओं (MOI और MOII) की पहचान की गई। बचाव पक्ष ने कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया। साक्ष्यों पर विचार करने के बाद, विचारण न्यायालय ने कुमारन को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 के अधीन दोषी पाया और उसे एक वर्ष के साधारण कारावास और 2,000 रुपए के जुर्माने का दिया। जुर्माना अदा न करने पर उसे एक माह का अतिरिक्त साधारण कारावास भुगतना होगा। जुर्माने की राशि में से 1,000 रुपए पीड़िता को प्रतिकर के रूप में देने का आदेश दिया गया।
- विचारण न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट, कुमारन ने अतिरिक्त सेशन न्यायालय-III, कोझिकोड (Crl. Appeal No. 235 of 2004) में अपील दायर की। यद्यपि, अपील न्यायालय ने उनकी अपील खारिज कर दी और दोषसिद्धि और दण्ड दोनों को बरकरार रखा। इसके बाद, कुमारन ने विचारण न्यायालय और अपील न्यायालय, दोनों के निर्णयों को चुनौती देते हुए केरल उच्च न्यायालय में यह आपराधिक पुनरीक्षण याचिका (CRL.REV.PET NO. 1520 of 2006) दायर की।
- शुरुआत में, जब पुनरीक्षण याचिका सुनवाई के लिये आई, तो कुमारन का कोई प्रतिनिधि मौजूद नहीं था। उच्च न्यायालय ने श्रीमती तुषारा के. को न्यायालय की सहायता के लिये न्यायमित्र (Amicus Curiae) नियुक्त किया। बाद में, श्री पी.वी. अनूप और श्री फिजो प्रदेश फिलिप पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता के रूप में उपस्थित हुए।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 खतरनाक आयुधों की दो श्रेणियों को निर्दिष्ट करती है: गोली मारने, छुरा घोंपने या काटने के लिये बनाए गए उपकरण (जैसे बंदूक, चाकू, तलवार) और कोई भी अन्य उपकरण जो अपराध के हथियार के रूप में प्रयोग किये जाने पर मृत्यु का कारण बन सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि पत्थर स्वचालित रूप से खतरनाक हथियार नहीं होते हैं और उनका वर्गीकरण विशिष्ट विशेषताओं जैसे प्रकृति, आकार, तीक्ष्णता और मृत्यु का कारण बनने की क्षमता पर निर्भर करता है, तथा चकमक (flint) पत्थर और लावा काँच (obsidian) जैसे कुछ प्रकार सामान्यतः काटने के के रूप में प्रयोग किये जाते हैं।
- न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष पत्थर की प्रकृति, आकार या तीक्ष्णता के संबंध में साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा, तथा यह सिद्ध नहीं कर सका कि यह पत्थर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 के अंतर्गत काटने वाले उपकरण या मृत्यु का कारण बनने वाले हथियार के रूप में योग्य है।
- न्यायालय ने पाया कि पीड़िता की चोटें (गाल पर गोलाकार चोट, रक्तस्राव, दर्द और सूजन) भारतीय दण्ड संहिता की धारा 320 में परिभाषित घोर उपहति की आठ श्रेणियों में से किसी के अंतर्गत नहीं आतीं, जबकि अभियोजन पक्ष ने चेहरे पर अस्थि-भंग (fracture) का दावा किया है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि यह अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 के अधीन घोर उपहति के बजाय साधारण उपहति का मामला है, तथा याचिकाकर्त्ता की आयु (73 वर्ष), बीमारी और अभियोजन के 19 वर्षों के अनुभव को ध्यान में रखते हुए, दण्ड को घटाकर तीन दिन का कारावास कर दिया, जो पहले ही काट लिया गया है तथा 2,000 रुपए का जुर्माना अधिरोपित किया गया।
भारतीय न्याय संहिता की धारा 118 क्या है?
- नई आपराधिक विधि से पहले यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 के अंतर्गत आता था।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 118 खतरनाक आयुधों या साधनों से होने वाली साधारण उपहति और घोर उपहति दोनों को संबोधित करते हुए एक दो-स्तरीय ढाँचा स्थापित करती है, जिसमें उपधारा (1) उपहति की बात करती है और उपधारा (2) खतरनाक उपकरणों की समान श्रेणियों का उपयोग करके घोर उपहति की बात करती है।
- इस धारा में खतरनाक आयुधों और साधनों की विशिष्ट श्रेणियों को सूचीबद्ध किया गया है, जिनमें गोली चलाने, छुरा घोंपने या काटने के उपकरण; अपराध के हथियार के रूप में प्रयोग किये जाने पर मृत्यु का कारण बनने वाले उपकरण; अग्नि या तप्त पदार्थ; विष या संक्षारक पदार्थ; विस्फोटक पदार्थ; श्वास में जाना, निगलना या रक्त में में पहुँचना मानव शरीर के लिये हानिकारक पदार्थ; और जीव-जंतु सम्मिलित हैं।
- भारतीय दण्ड संहिता के उपबंधों के विपरीत, भारतीय न्याय संहिता की धारा 118 उपधारा (1) के अधीन वर्धित दण्ड का उपबंध करती है, जिसमें उपहति कारित करने लिये तीन वर्ष तक का कारावास या बीस हजार रुपए तक का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है, जबकि उपधारा (2) में घोर उपहति कारित करने के लिये न्यूनतम एक वर्ष का अनिवार्य कारावास (जो दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है) या आजीवन कारावास और जुर्माने का प्रावधान है।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 से एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान उपधारा (2) के अधीन अनिवार्य न्यूनतम दण्ड की शुरूआत है, जो निर्धारित करती है कि कारावास "एक वर्ष से कम नहीं होगा", खतरनाक आयुधों से संबंधित घोर उपहति के मामलों में इस सीमा से नीचे के दण्ड के लिये न्यायिक विवेकाधिकार को हटा दिया गया है।
- दोनों उपधाराओं में अपवाद खण्ड सम्मिलित हैं जो भारतीय न्याय संहिता की धारा 122 का संदर्भ देते हैं, यह स्पष्ट करता है कि ऐसे कृत्य, जो सद्भावपूर्वक पीड़ित व्यक्ति के हित में अथवा उसकी सम्मति से किये गए हों - जैसे कि चिकित्सकीय प्रक्रिया वे इस धारा के प्रभाव क्षेत्र से अपवर्जित माने जाएंगे।
भारतीय न्याय संहिता की धारा 118 के आवश्यक तत्त्व क्या हैं?
धारा 118(1) - खतरनाक आयुधों से स्वेच्छया उपहति कारित करना
आवश्यक तत्त्व:
- स्वैच्छिक कृत्य - अभियुक्त ने साशय किसी अन्य व्यक्ति को उपहति कारित की होगी।
- खतरनाक आयुध/साधन का प्रयोग - उपहति निम्नलिखित का प्रयोग करके कारित की जानी चाहिये:
- तेज धार वाला या नुकीला उपकरण
- अग्नि या तप्त पदार्थ
- विष या संक्षारक पदार्थ
- विस्फोटक पदार्थ
- मशीन या उपकरण (नया जोड़ा गया)
- पशु (भारतीय न्याय संहिता में नया जोड़ा गया)
- वास्तविक उपहति - शारीरिक पीड़ा, नुक्सान या चोट का परिणाम होनी चाहिये
- कोई विधिक औचित्य नहीं - यह कृत्य धारा 122 के अपवादों के अंतर्गत नहीं आना चाहिये।
धारा 118(2) - खतरनाक साधनों से स्वेच्छया से घोर उपहति कारित करना
आवश्यक तत्त्व:
- स्वैच्छिक कृत्य – साशय घोर उपहति कारित करना।
- खतरनाक आयुध/साधनों का प्रयोग - वही खतरनाक साधन जो 118(1) में सूचीबद्ध हैं।
- चोट की घोर प्रकृति - विधि के अधीन घोर उपहति का गठन किया जाना चाहिये:
- निर्बलता
- दृष्टि/श्रवण की स्थायी हानि
- अंग/जोड़ का विनाश/स्थायी क्षति
- मस्तिष्क/अंग का विनाश/स्थायी क्षति
- सिर/चेहरे का स्थायी रूप से विकृत होना
- अपवादों की कोई प्रयोज्यता नहीं - धारा 122(2) अपवादों के अंतर्गत नहीं आना चाहिये।
खतरनाक आयुध क्या होता है?
विधिक सिद्धांत:
सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि न्यायालय "खतरनाक" और "गैर-खतरनाक" हथियारों की कोई निश्चित सूची नहीं बनातीं। इसके अतिरिक्त, वे प्रत्येक मामले की अलग-अलग जांच करती हैं और निम्नलिखित बातों पर विचार करती हैं:
- उपयोग का तरीका : उपकरण का उपयोग कैसे किया गया
- वास्तविक क्षति : कारित की गई क्षति की गंभीरता और प्रकृति
- नुकसान की संभावना : विशिष्ट परिस्थितियों में हथियार की मृत्यु या घोर उपहति कारित करने की क्षमता
- हमला : आसपास के तथ्य और परिस्थितियाँ
अनुप्रयोग:
- इस दृष्टिकोण का अर्थ है कि रसोई के चाकू, छड़ें, या यहाँ तक कि पत्थर जैसी रोज़मर्रा की वस्तुएँ भी विधि की दृष्टि में "खतरनाक आयुध" बन सकती हैं, यदि उनका प्रयोग इस प्रकार किया जाए जिससे मृत्यु या घोर उपहति कारित होने की संभावना हो। न्यायालय हथियार की अंतर्निहित प्रकृति के बजाय उसकी क्षमता और वास्तविक प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
आवश्यक परीक्षण:
- न्यायालयों ने निरतंर कहा है कि अपराध के हथियार के रूप में प्रयोग किये जाने पर "मृत्यु का कारण बनने की संभावना" प्राथमिक परीक्षण है, न कि वस्तु की अंतर्निहित प्रकृति।
- इन कथनों से यह स्थापित होता है कि ख़तरनाक आयुध का निर्धारण हथियार के वर्गीकरण के बजाय उसके प्रयोग से होता है।
ऐतिहासिक निर्णय:
- राकेश बनाम दिल्ली राज्य (2023):
- उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि किसी वस्तु की खतरनाकता का निर्धारण उसकी स्वाभाविक श्रेणी से नहीं, अपितु उसके प्राणघातक संभाव्य प्रभाव तथा प्रासंगिक परिस्थितियों में उसके उपयोग के तरीके के आधार पर किया जाएगा।
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम इंद्रजीत (2000):
- यह पूर्व निर्णय यह बताता है कि रोजमर्रा की वस्तुएँ आपराधिक कृत्यों में उनके प्रयोग के आधार पर खतरनाक हथियार बन सकती हैं।