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सांविधानिक विधि
अनुच्छेद 21 का उल्लंघन
«25-Jul-2025
राम दुलार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 2 अन्य "न्यायालय दृढ़ता से कहता है कि वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा, क्रूरता या परित्याग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21, अर्थात् गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। एक घर, जो वृद्ध माता-पिता के लिये प्रतिकूल हो गया है, अब आश्रय नहीं रह गया है; यह अन्याय का स्थल बन गया है। न्यायालयों को 'पारिवारिक निजता' की आड़ में इस मौन पीड़ा को जारी नहीं रहने देना चाहिये"। न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार ने कहा कि संतान द्वारा वृद्ध माता-पिता के प्रति क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग करना, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्ण जीवन के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन है तथा उन्होंने संतान की देखभाल एवं कल्याण सुनिश्चित करने के नैतिक एवं विधिक कर्त्तव्य पर बल दिया।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राम दुलार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 2 अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
राम दुलार गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 2 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता, 75 वर्षीय वरिष्ठ नागरिक राम दुलार गुप्ता ने एक रिट याचिका संस्थित कर प्रतिवादियों को 16 जनवरी, 2025 की भुगतान नोटिस के माध्यम से 21,17,758 रुपये की मुआवज़ा राशि जारी करने का निर्देश देने की मांग की।
- यह मुआवज़ा भूमि अधिग्रहण कार्यवाही के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारियों द्वारा याचिकाकर्त्ता की भूमि और अधिरचना के अधिग्रहण से संबंधित था।
- मुआवज़े का विधिवत मूल्यांकन किये जाने और भुगतान सूचना जारी किये जाने के बावजूद, याचिकाकर्त्ता के दो बेटों, विजय कुमार गुप्ता एवं संजय गुप्ता द्वारा उठाए गए विवाद के कारण भुगतान लंबित रहा।
- बेटों ने अधिरचना में सह-स्वामित्व अधिकारों का दावा किया तथा तर्क दिया कि उन्होंने इसके निर्माण में योगदान दिया था, इस प्रकार वे मुआवज़े की राशि के एक हिस्से के हकदार होने की मांग कर रहे थे।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि संपूर्ण अधिरचना का निर्माण उसके अपने संसाधनों एवं वित्तीय योगदान से किया गया था, जिसमें उसके बेटों का कोई आर्थिक योगदान नहीं था।
- याचिकाकर्त्ता ने आरोप लगाया कि मुआवज़े की घोषणा के बाद, उसके बेटों ने उसे गंभीर मानसिक एवं शारीरिक शोषण का शिकार बनाया, जिससे उसे गंभीर चोटें आईं।
- याचिकाकर्त्ता को अपने ऊपर किये गए अत्याचारों और आक्रामक व्यवहार के कारण अपने बेटों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराने के लिये विवश होना पड़ा।
- दोनों बेटे पारिवारिक निवास से बाहर रह रहे थे तथा अपनी आजीविका के लिये क्रमशः सूरत एवं मुंबई में बसे हुए थे।
- यह मामला मुआवज़े की राशि के वास्तविक अधिकारी को लेकर पिता एवं उसके बेटों के बीच आपसी विवाद से संबंधित था।
- इसके बाद, बेटों ने अपने अधिवक्ता के माध्यम से एक अभियोग आवेदन संस्थित किया तथा कार्यवाही में पक्षकार बनने की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने संतान द्वारा अपने वृद्ध पिता के प्रति घोर उदासीनता और दुर्व्यवहार पर गहरा दुःख व्यक्त किया तथा कहा कि इससे बड़ी सामाजिक विफलता और कोई नहीं हो सकती जब एक सभ्य समाज अपने बुजुर्गों की मूक पीड़ा से मुँह मोड़ लेता है।
- न्यायालय ने कहा कि माता-पिता अपने जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण वर्ष अपने संतान के कल्याण के लिये समर्पित करते हैं, तथा उनके जीवन के अंतिम क्षणों में उनके साथ क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग करके उनका मूल्य चुकाना न केवल नैतिक अपमान है, बल्कि विधिक उल्लंघन भी है।
- न्यायालय ने दृढ़ता से कहा कि संतान का यह पवित्र नैतिक कर्त्तव्य और सांविधिक दायित्व दोनों है कि वे अपने वृद्ध माता-पिता की गरिमा, कल्याण एवं देखभाल का धयान दें, जो दान नहीं, बल्कि सुरक्षा, सहानुभूति एवं साथ चाहते हैं।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा, क्रूरता या परित्याग, COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जो गरिमापूर्वक जीवन जीने के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है।
- पीठ ने घोषणा की कि एक घर जो वृद्ध माता-पिता के लिये प्रतिकूल हो गया है, वह आश्रय स्थल नहीं रह जाता और अन्याय का स्थल बन जाता है, तथा न्यायालयों को 'पारिवारिक गोपनीयता' की आड़ में इस तरह के मौन कष्ट को जारी रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि जब संतान संबंधी कर्त्तव्य टूट जाएँ, तो न्यायालयों को संवेदनशील वृद्धों की रक्षा के लिये करुणा के अंतिम गढ़ के रूप में उभरना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे न केवल भरण-पोषण में, बल्कि पूर्ण गरिमा के साथ जीवन जिएँ।
- न्यायालय ने चेतावनी दी कि यदि भविष्य में पुत्र किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करते हैं, तो बिना किसी संकोच के कड़े आदेश पारित किये जाएँगे, साथ ही पुत्रों की बिना शर्त क्षमा याचना और सुधरे हुए आचरण के आश्वासन पर भी ध्यान दिया जाएगा।
COI का अनुच्छेद 21 क्या है?
परिचय
- COI का अनुच्छेद 21 जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
- यह मौलिक अधिकार बिना किसी भेदभाव के, नागरिकों और विदेशियों दोनों सहित, प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध है।
- अनुच्छेद 21 दो अलग-अलग अधिकार प्रदान करता है:
- जीवन का अधिकार
- और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार,
- दोनों ही राज्य की कार्यवाही से सुरक्षित हैं।
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 को 'मौलिक अधिकारों का हृदय' बताया है, जो संवैधानिक ढाँचे में इसका उच्चतम महत्त्व है।
- अनुच्छेद 21 के प्रयोजनों के लिये, राज्य में न केवल सरकार, बल्कि सरकारी विभाग, स्थानीय निकाय, विधायिकाएँ और अन्य राज्य एजेंसियाँ भी शामिल हैं।
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में न केवल जीवित रहने का अधिकार, बल्कि गरिमा के साथ पूर्ण जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है।
- उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की सीमा का विस्तार करते हुए इसे संविधान के सबसे मौलिक एवं व्यापक अधिकारों में से एक बना दिया है।
COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन
- जीवन से मनमाना वंचना तब उल्लंघन माना जाता है, जब राज्य ऐसे कार्यों में संलग्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की उचित प्रक्रिया के बिना मनमाने ढंग से या न्यायेतर हत्या हो जाती है।
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन अवैध निरुद्धि, दोषपूर्ण कारावास, या विधि की उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना गिरफ्तारी के माध्यम से होता है।
- निष्पक्ष सुनवाई से अस्वीकार अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है जब किसी को विधिक प्रतिनिधित्व से वंचित किया जाता है या जब न्यायिक कार्यवाही में अनुचित विलंब या पक्षपात होता है।
- विधि प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा यातना एवं अमानवीय व्यवहार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत जीवन एवं गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है।
- के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) में उच्चतम न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त, निजता के अधिकार का उल्लंघन, निगरानी या व्यक्तिगत डेटा के अनधिकृत उपयोग के माध्यम से किया जाता है।
- मनमाने ढंग से बेदखली, दोषपूर्ण तरीके से रोज़गार समाप्त करने या आजीविका के साधनों को नष्ट करने के माध्यम से आजीविका के अधिकार से वंचित करना उल्लंघन का आधार बन सकता है।
- आश्रय के अधिकार का उल्लंघन तब होता है जब लोगों को मूलभूत आवास तक से वंचित कर दिया जाता है या उचित पुनर्वास के बिना उन्हें जबरन बेदखल कर दिया जाता है।
- अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं, आपातकालीन चिकित्सा सेवाओं से इनकार, या आवश्यक दवाइयाँ प्रदान करने में लापरवाही के माध्यम से स्वास्थ्य के अधिकार से वंचित करना, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
- पर्यावरण उल्लंघन तब होता है जब प्रदूषण, वनों की कटाई और अन्य पर्यावरणीय खतरे स्वास्थ्य एवं जीवन को प्रभावित करते हैं, जिससे पर्यावरण को स्वच्छ रखने के अधिकार का उल्लंघन होता है।
- शिक्षा के अधिकार से वंचित करना, विशेष रूप से शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत संतान के लिये, अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी जा सकती है।
- गरिमा के साथ मृत्यु के अधिकार का उल्लंघन तब होता है जब व्यक्तियों को निष्क्रिय इच्छामृत्यु के अधिकार से वंचित किया जाता है, जैसा कि अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ (2011) जैसे मामलों में उच्चतम न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त है।
निर्णयज विधियाँ
- ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950): उच्चतम न्यायालय ने आरंभ में माना कि अनुच्छेद 21 में अमेरिकी 'उचित प्रक्रिया' के बजाय व्यक्तिगत स्वतंत्रता की ब्रिटिश अवधारणा सन्निहित है, तथा इसका एक संकीर्ण निर्वचन किया, जहाँ 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' का अर्थ वैध रूप से अधिनियमित कोई भी विधान था।
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): इस ऐतिहासिक मामले ने गोपालन के निर्णय को पलट दिया तथा अनुच्छेद 21 के निर्वचन में क्रांतिकारी परिवर्तन करके यह स्थापित किया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दायरा व्यापक है, जिसमें अनुच्छेद 19 के अंतर्गत निहित कई अधिकार भी शामिल हैं।
- मेनका गांधी मामले ने यह स्थापित किया कि जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये विधि के अंतर्गत कोई भी प्रक्रिया अनुचित, अतार्किक या मनमाना नहीं होना चाहिये, जिससे मूल उचित प्रक्रिया की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया।
- के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017): उच्चतम न्यायालय ने निजता के अधिकार को अनुच्छेद 21 का एक मौलिक अधिकार माना तथा यह स्थापित किया कि निगरानी या अनधिकृत डेटा उपयोग के माध्यम से व्यक्तिगत निजता का कोई भी उल्लंघन इस अधिकार का उल्लंघन है।
- अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ (2011): उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गरिमापूर्वक मृत्यु के अधिकार के अंतर्गत निष्क्रिय इच्छामृत्यु को मान्यता दी तथा कुछ परिस्थितियों में जीवन रक्षक प्रणाली को हटाने की अनुमति दी।