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सांविधानिक विधि

सामाजिक दबाव से महिला अपराधों पर सुधारात्मक दृष्टिकोण

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 21-Jul-2025

कुम. शुभा उर्फ शुभशंकर बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य 

"एक महिला के कार्य अक्सर सामाजिक मानदंडों और बाहरी दबावों से प्रभावित होते हैं, जो गहरी असमानताओं के बीच उसकी सीमित अभिव्यक्ति को दर्शाते हैं।" 

न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार नेनिर्णय दिया है कि सामाजिक दबाव में अपराध करने वाली महिलाओं के लिये एकसुधारात्मक दृष्टिकोणअपनाया जाना चाहिये, विशेष रूप से बलात् विवाह जैसे मामलों में, जहाँ गहरी लैंगिक असमानताएं उनकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को प्रतिबंधित करती हैं 

  • उच्चतम न्यायालय ने शुभा उर्फ शुभशंकर बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

कुमारी शुभा उर्फ शुभशंकर बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • शुभा शंकर (A-4) 20 वर्षीय बी.एम.एस. लॉ कॉलेज, बैंगलोर में विधि की छात्रा थी। 
  • अरुण वर्मा (A -1) उनके घनिष्ठ मित्र और उसी कॉलेज में विधि के सहपाठी थे 
  • दिनेश उर्फ दिनाकरन (A-3) 28 वर्षीय विवाहित पुरुष और अरुण वर्मा का चचेरा भाई था।  
  • वेंकटेश (A-2) 19 वर्षीय किशोर था और दिनेश का मित्र था। 
  • बी.वी. गिरीश (मृतक) इंटेल में 26 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे, जिनकी सगाई शुभा से हुई थी। 
  • दोनों परिवार बैंगलोर के एक ही क्षेत्र के निवासी थे और उनके बीच सौहार्दपूर्ण संबंध थे।   
  • शुभा के माता-पिता ने अक्टूबर 2003 में गिरीश के माता-पिता के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे स्वीकार कर लिया गया।  
  • 30 नवम्बर 2003 को सगाई संपन्न हुई तथा 11 अप्रैल 2004 को विवाह की तिथि निश्चित की गई। 
  • शुभा विवाह हेतु इच्छुक नहीं थी और इस विषय में उसने अपनी सहेलियों एवं ब्यूटीशियन को अपनी अनिच्छा बताई थी।  
  • शुभा ने अपने करीबी मित्र अरुण वर्मा के सामने इस विवाह का विरोध जताया। 
  • 3 दिसंबर 2003 कोशुभा ने मृतक से टी.जी.आई. फ्राइडे होटल में रात्रि भोजन के लिये चलने को कहा। 
  • रात्रि भोजन के बाद वे हवाई जहाज़ों को उतरते देखने के लिये एयरपोर्ट रिंग रोड पर स्थित "एयर व्यू पॉइंट" पर रुके। 
  • यहीं पर, मृतक के सिर पर एक अज्ञात हमलावर ने स्टील की रॉड से जानलेवा हमला किया 
  • शुभा ने राहगीरों की सहायता से घायल मृतक को मणिपाल अस्पताल पहुँचाया 
  • मृतक को 4 दिसम्बर, 2003 को प्रातः 8:05 बजे मृत घोषित कर दिया गया 
  • अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई। 
  • सभी चार अभियुक्तों को 25 जनवरी, 2004 को गिरफ्तार कर लिया गया 
  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120-ख और धारा 302 के साथ धारा 120-ख के अधीन आरोप विरचित किये गए। 
  • शुभा पर साक्ष्य नष्ट करने के लिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201 के अधीन अतिरिक्त आरोप भी लगाया गया। 
  • अभियोजन पक्ष ने अभिकथित किया कि सभी अभियुक्तों ने शुभा का बलात् विवाह रोकने के लिये मृतक की हत्या का षड्यंत्र रचा 
  • अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि अरुण और वेंकटेश ने दंपत्ति का पीछा किया तथा दिनेश ने कॉल के माध्यम से योजना का समन्वय किया। 
  • अभियोजन पक्ष के अनुसार, वेंकटेश ने मृतक पर स्टील की रॉड से हमला किया, जबकि अरुण स्कूटर पर उसका इंतजार कर रहा था। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित मामलों में अभियोजन पक्ष को साक्ष्य की एक पूरी श्रृंखला स्थापित करनी होगी, जिसमें प्रत्येक कड़ी जुड़ी हो और उचित संदेह से परे साबित हो, तथा उद्देश्य, साधन और अवसर स्पष्ट रूप से स्थापित हों। 
  • न्यायालय ने यह स्थापित किया कि साक्ष्यों को जानबूझकर नष्ट करना, विशेष रूप से मोबाइल फोन पर संसूचना रिकॉर्ड को नष्ट करना, अभियुक्त के विरुद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार बनता है, विशेषकर तब जब ऐसे आचरण के लिये कोई पर्याप्त स्पष्टीकरण नहीं दिया गया हो। 
  • न्यायालय ने माना कि मिथ्या अन्यत्र उपस्थिति की दलील से अपराध बोध का प्रदर्शन होता है तथा अभियोजन पक्ष का मामला मजबूत होता है, विशेषकर तब जब अस्पताल के रिकॉर्ड कथित स्थान पर उपस्थिति के दावे को प्रमाणित करने में विफल रहते हैं। 
  • न्यायालय ने आपराधिक षड्यंत्र के सिद्धांत को लागू करते हुए कहा कि षड्यंत्र के सभी सदस्य समान रूप से उत्तरदायी होते हैं, चाहे वे प्रत्यक्ष रूप से आपराधिक कृत्य में सम्मिलित हों या नहीं, यदि वह कृत्य सामान्य आपराधिक योजना को अग्रसर करने हेतु किया गया हो।  
  • न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 161 के अंतर्गत सांविधानिक शक्तियां, सांविधिक शक्तियों से मौलिक रूप से भिन्न हैं - सांविधानिक शक्तियां स्वयं संविधान से उत्पन्न होती हैं तथा मानवता और समता को प्राथमिकता देने वाली व्यापक नैतिक दृष्टि को मूर्त रूप देती हैं, जबकि सांविधिक शक्तियां विधायिका द्वारा अधिनियमित विधियों से प्राप्त होती हैं। 
  • न्यायालय ने यह स्थापित किया कि केवल दण्ड अपराध के लिये पूर्ण उपचार नहीं हो सकता, विशेषकर तब जब अपराधी आपराधिक कृत्य के कारणों के लिये पूरी तरह से उत्तरदायी न हो, तथा उसने करुणामय सुधार के माध्यम से सुधारात्मक दृष्टिकोण पर बल दिया। 
  • न्यायालय ने माना कि महिलाओं को अत्यधिक पूर्वधारणा और लैंगिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, सामाजिक मानदंड और बाधाएँ उनके कार्यों और अभिव्यक्तियों को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं, विशेष रूप से बलात् विवाह (forced marriage) के संबंध में, जो पेशेवर/शैक्षणिक प्रगति को कम कर देती हैं।  
  • न्यायालय ने कहा कि समाज, प्रणालीगत विफलताओं, असमानताओं या उपेक्षा के माध्यम से, अक्सर आपराधिक व्यवहार को आकार देने में भूमिका निभाता है, जिससे अपराधी भी पीड़ित बन जाता है, जिसे संरचनात्मक सहायता और वास्तविक परिवर्तन के अवसरों के माध्यम से उपचार की आवश्यकता होती है। 
  • न्यायालय ने स्थापित किया कि अनुच्छेद 161 में अपराधी को गलती का एहसास होने के बाद समाज में पुनः एकीकृत करने का प्रशंसनीय उद्देश्य अंतर्निहित है, जिसमें संप्रभु शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर किया जाता है, जो सीमित न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 161 के अधीन सांविधानिक क्षमादान शक्ति, सांविधिक प्रावधानों से अधिक व्यापक है और और इसे अलग-अलग मामलों में अलग-अलग लागू किया जाना चाहिये, न कि सांविधिक प्रावधानों के विपरीत जो दोषियों के वर्गों को सामूहिक रूप से नियंत्रित करते हैं। 
  • न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं को संविधान के अनुच्छेद 161 के अधीन क्षमादान की शक्ति का प्रयोग करने हेतु उचित याचिकाएँ दायर करने हेतु निर्णय की तिथि से आठ सप्ताह का समय दिया है। अपीलकर्त्ताओं की क्षमादान याचिकाओं पर विचार किये जाने तक, न्यायालय ने उनके दण्ड को निलंबित कर दिया है। 

संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं? 

भारत का संविधान, 1950 

  • अनुच्छेद 72 - राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति 
    • राष्ट्रपति क्षमा, प्रविलंबन, विराम या परिहार, निलंबन, परिहार या दण्ड का लघुकरण कर सकता है। 
    • अनन्य शक्तियां:सेना न्यायालय मामले, संघीय विधि अपराध, सभी मृत्युदण्ड मामलों में केवल राष्ट्रपति को अधिकार।  
    • राज्य विधयों के अधीन मृत्युदण्ड के मामलों में राज्यपाल की शक्ति प्रभावित नहीं होती।  
  • अनुच्छेद 161 - राज्यपाल की क्षमादान शक्ति 
    • राज्यपाल क्षमा, प्रविलंबन, विराम या परिहार, निलंबन, परिहार या दण्ड का लघुकरण कर सकता है।   
    • सीमित:राज्य कार्यपालिका शक्ति के अधीन अपराध।  
    • राज्यपाल को मृत्युदण्ड के मामलों में क्षमादान देने का अधिकार नहीं होता — यह राष्ट्रपति का विशेषाधिकार क्षेत्र है। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 

  • धारा 473 – दण्डादेशों का निलंबन/परिहार करने की शक्ति 
    • समुचित सरकार दण्ड को शर्तों के साथ/बिना शर्तों के निलंबित या परिहार कर सकती है।  
    • निर्णय लेने से पूर्व विचारण न्यायाधीश की राय ले सकती है। 
    • शर्तें:यदि पूरी नहीं की जाती हैं, तो निलंबन/छूट रद्द की जा सकती है 
    • याचिका के नियम:यदि याचिकाकर्त्ता वयस्क है, तो उसे जेल में होना अनिवार्य है, याचिका जेल अधिकारी के माध्यम से या जेल में दिये गए घोषणापत्र के साथ ही स्वीकार की जाएगी। 
  • धारा 474 – दण्डादेश लघुकरण करने की शक्ति 
    • समुचित सरकार बिना सम्मति के निम्न प्रकार से दंड परिवर्तित कर सकती है: 
      • मृत्युदण्ड आजीवन कारावास 
      • आजीवन कारावास न्यूनतम 7 वर्ष तक का कारावास  
      • 7 वर्ष से अधिक न्यूनतम 3 वर्ष तक का कारावास 
      • 7 वर्ष से कम जुर्माना 
      • कठोर कारावास साधारण कारावास 

मुख्य अंतर: 

  • राष्ट्रपति:सभी मृत्युदण्ड, सेना न्यायालय, संघीय मामले 
  • राज्यपाल:केवल राज्य के मामले (मृत्युदण्ड को छोड़कर) 
  • समुचित सरकार:अधिकारिता के आधार पर निलंबन/परिहार और परिवर्तन शक्तियां (केंद्र बनाम राज्य) 

सामाजिक प्रतिबंध और लिंग आधारित दवाब महिलाओं को अपराध की ओर कैसे प्रेरित करते हैं? 

  • अपराध को सामाजिक मानदंडों के विरुद्ध मानसिक विद्रोह के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो प्रायः आंतरिक और बाह्य कारणों के मिश्रण से उत्पन्न होता है। 
  • प्रमुख कारणों में अन्य संक्रामण, परिवार और शिक्षा जैसी पर्यावरणीय परिस्थितियाँ, भौतिक अभाव और नैतिक संरचनाओं का टूटना सम्मिलित हैं। 
  • जब ये कारक महिलाओं पर लागू होते हैं, तो इनके परिणामस्वरूप लिंग-विशिष्ट उत्पीड़न और सामाजिक पूर्वाग्रह में वृद्धि होती है। 
  • बलात् विवाह को इसका प्रमुख उदाहरण बताया जाता है, जहाँ महिला की स्वायत्तता छीन ली जाती है, उसे उसकी शिक्षा और कैरियर की महत्वाकांक्षाओं से पृथक् कर दिया जाता है। 
  • ऐसे दबावों के कारण, महिलाएँ पलायन करने, हिंसा में शामिल होने या भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से टूटने के लिये विवश हो सकती हैं। 
  • अतिरिक्त बाधाएँ - जैसे कि कलंक, समर्थन की कमी, और प्रतिबंधात्मक मूल्य प्रणालियाँ - उनकी स्वतंत्रता और प्रतिरोध की धारणा को विकृत कर देती हैं। 
  • ये स्थितियाँ महिलाओं को यह विश्वास दिला सकती हैं कि अनुपालन ही उनका एकमात्र विकल्प है, या उन्हें विधि के विरुद्ध हताशापूर्ण, अवज्ञाकारी कार्रवाई करने के लिये प्रेरित कर सकती हैं।