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आपराधिक कानून

पिता द्वारा संदाय किये गए अतिरिक्त भरण-पोषण के लिये कोई वापसी नहीं

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 06-Oct-2025

ऋषिता कपूर और अन्य बनाम विजय कपूर और अन्य 

"न्यायालय ने निर्णय दिया कि पिता संतान के वयस्क होने के पश्चात् उसे दिये गए भरण-पोषण की राशि वापस नहीं मांग सकता, क्योंकि उनकी शिक्षा के लिये उन्हें सहायता प्रदान करना उसका नैतिक कर्त्तव्य है।" 

न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और सुशील कुकरेजा 

स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और सुशील कुकरेजा की पीठ ने ऋषिता कपूर एवं अन्य बनाम विजय कपूर एवं अन्य (2025)मामले मेंवयस्क संतानों के लिये भरण-पोषण की राशि बढ़ाने से संबंधित आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को आंशिक रूप से अनुमति देते हुए स्पष्ट किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण केवल तब तक उपलब्ध है जब तक बालक वयस्क नहीं हो जाता, शारीरिक या मानसिक असामान्यता के कारण असमर्थता के मामलों को छोड़कर। 

  • महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने कहा किपिता अपनी संतान के वयस्क होने के पश्चात् उन्हें दिये गए भरण-पोषण की राशि को वापस नहीं मांग सकते, क्योंकि उनकी शिक्षा का खर्च उठाना उनका नैतिक दायित्त्व है। 

ऋषिता कपूर एवं अन्य बनाम विजय कपूर एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • याचिकाकर्त्ता प्रत्यर्थी विजय कपूर और प्रोफार्मा प्रत्यर्थी नीलम कुमारी के बच्चे (संतान) थे, जिनका जन्म 01.08.1998 (पुत्री ऋषिता) और 17.03.2002 (पुत्र सुचेत) को हुआ था, जो क्रमशः 01.08.2016 और 17.03.2020 को वयस्क हुए। 
  • पुत्री हिमाचल प्रदेश कृषि विश्व विद्यालय, पालमपुर से Ph.D कर रही थी, जबकि पुत्र गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर से बी.टेक कर रहा था। 
  • प्रारंभ में, 2012 में, प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, सरकाघाट ने माता और प्रत्येक संतान को 2,000/- रुपए प्रति माह भरण-पोषण देने का आदेश दिया था। 
  • 2015 में अपर सेशन न्यायाधीश ने भरण-पोषण राशि 2,000 रुपए से बढ़ाकर 3,000 रुपए प्रति माह कर दी। 
  • वर्ष 2017 में लोक अदालत के माध्यम से भरण-पोषण राशि को बढ़ाकर 4,000 रुपए प्रति माह कर दिया गया। 
  • 02.07.2018 को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 127 के अधीन एक आवेदन दायर किया गया जिसमें भरण-पोषण की राशि में और वृद्धि की मांग की गई। 
  • कुटुंब न्यायालय ने माता के भरण-पोषण की राशि 4,000 रुपए से बढ़ाकर 8,000 रुपए प्रति माह कर दी, किंतु संतान के दावे को इस आधार पर खारिज कर दिया कि वे वयस्क हो गए हैं। 
  • बच्चों (संतान) ने अपनी वृद्धि संबंधी अर्जी खारिज किये जाने को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144)के उपबंधों की जांच की, जो अवयस्क संतान और वयस्क संतान को भरण-पोषण का अधिकार तभी प्रदान करते हैं, जब वे शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण वे अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हों। 
  • न्यायालय ने पाया कि 02.07.2018 को वृद्धि आवेदन दायर करने के समय, पुत्री 01.08.2016 को पहले ही वयस्क हो चुकी थी , जबकि पुत्र 17.03.2020 तक अवयस्क था। 
  • न्यायालय ने माना कि कुटुंब न्यायालय ने पुत्र के दावे को 17.03.2020 को वयस्क होने तक अनुमति देने के बजायपूरी तरह से नामंजूर करके त्रुटि की। 
  • न्यायालय ने वयस्क पुत्री को भरण-पोषण देने से इंकार करने में कोई कमी नहीं पाई, क्योंकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125, हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) के विपरीत, वयस्क पुत्रियों को, भले ही वे अविवाहित हों, भरण-पोषण देने का उपबंध नहीं करती है। 
  • न्यायालय ने निदेश दिया कि पुत्र 02.07.2018 से 17.03.2020 तक 8,000/- रुपए प्रति माह के बढ़े हुए भरण-पोषण का हकदार है और यदि संदाय नहीं किया जाता है तो 15.10.2025 तक बकाया संदाय का आदेश दिया। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि पिता ने अपने संतान के वयस्क होने के बाद भी उन्हें स्वेच्छया से भरण-पोषण राशि का संदाय किया है, तो भीवह ऐसी राशि को वसूलने या समायोजित करने का हकदार नहीं होगा, क्योंकि पिता के रूप में बच्चों की शिक्षा पूरी करने में सहायता करना उसका नैतिक दायित्त्व है।  
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वयस्क होने के बाद दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण के दावों को खारिज करने सेसंतान को विधि के अन्य प्रावधानों के अधीन भरण-पोषण या अपने पिता की संपत्ति में अधिकार का दावा करने सेनहीं रोका जाएगा। 

विभिन्न विधियों के अधीन भरण-पोषण के अधिकार 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144):अवयस्क संतान और वयस्क संतान को केवल तभी भरण-पोषण का उपबंध करती है जब वे शारीरिक या मानसिक रूप से असामान्य हों। वयस्क  अविवाहित पुत्रियों को भरण-पोषण का उपबंध नहीं है। 
  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 26:वैवाहिक कार्यवाही के दौरान और उसके बाद अवयस्क संतान की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा से संबंधित है, किंतु इसमें केवल अवयस्क संतान ही सम्मिलित हैं। 
  • हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(2) मेंउपबंध है कि धर्मज या अधर्मज संतान, जब तक संतान अवयस्क है, माता-पिता से भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं। 
  • हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3):यह उपबंध अविवाहित पुत्री, जो अपनी कमाई या संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, का भरण-पोषण करने का दायित्त्व प्रदान करता है, चाहे उसकी आयु कुछ भी हो। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144 क्या है? 

बारे में: 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 एक सामाजिक न्याय उपबंध है जिसका उद्देश्य उपेक्षित पति/पत्नी और संतान की विपन्नता और आर्थिक तंगी को रोकना है। यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे व्यक्ति की पत्नी, धर्मज या अधर्मज संतान, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, को मासिक भरण-पोषण, अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही व्यय प्रदान करने का अधिकार देता है, जिसके पास पर्याप्त साधन होते हुए भी वह ऐसा करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है। 

प्रमुख सांविधिक विशेषताएँ: 

  • धारा 144(1): मजिस्ट्रेट को पत्नी और संतान को मासिक भरण-पोषण देने का आदेश देने का अधिकार देती है। 
  • धारा 144(1) का दूसरा परंतुक: मजिस्ट्रेट को कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अंतरिम भरण-पोषण और व्यय प्रदान करने की अनुमति देता है। 
  • धारा 144(1) का तीसरा परंतुक: निदेश देता है कि अंतरिम भरण-पोषण आवेदनों का निपटारा आदर्श रूप से नोटिस की तामील की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाना चाहिये 
  • धारा 144(2): भरण-पोषण आवेदन या आदेश की तिथि से देय हो सकता है, जैसा मजिस्ट्रेट उचित समझे। 
  • धारा 144(3): भरण-पोषण का संदाय न करने पर वारण्ट कार्यवाही और एक मास तक कारावास हो सकता है। 
  • धारा 144(4): जारता, पर्याप्त हेतुक के बिना पति के साथ रहने से इंकार, या पृथक् रहने की आपसी सहमति के मामलों में पत्नी को भरण-पोषण प्राप्त करने से अयोग्य घोषित करता है। 
  • धारा 145(2) के अधीन आगे की प्रक्रियागत स्पष्टता प्रदान की गई है, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि साक्ष्य प्रतिवादी या उनके अधिवक्ता की उपस्थिति में दर्ज किया जाना चाहिये, जिसमें एकपक्षीय कार्यवाही का उपबंध है और तीन मास के भीतर पर्याप्त हेतुक बताने पर ऐसे आदेशों को रद्द किया जा सकता है।