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सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 39 नियम 2क
« »07-Mar-2025
श्रीमती लावण्या सी और अन्य बनाम विट्ठल गुरुदास पाई, (मृत्यु पश्चात् उनके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा) एवं अन्य। “सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 39 नियम 2क, उन व्यक्तियों के विरुद्ध कार्रवाई की प्रक्रिया निर्दिष्ट की गई है, जो आदेश 39 नियम 1 और 2 के अंतर्गत पारित व्यादेश या अन्य आदेशों की अवहेलना करते हैं।” न्यायमूर्ति पंकज मिथल और संजय करोल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और संजय करोल की पीठ ने कहा है कि किसी व्यादेश को बाद में अपास्त कर देने से उसके लंबित रहने के दौरान उसकी अवज्ञा के लिये दायित्त्व मुक्ति नहीं मिलती है।
- उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती लावण्या सी एवं अन्य बनाम विट्ठल गुरुदास पाई (मृत्यु पश्चात् उनके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा) एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
श्रीमती लावण्या सी एवं अन्य बनाम विट्ठल गुरुदास पाई (मृत्यु पश्चात् उनके विधिक प्रतिनिधियों द्वारा) एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता (श्रीमती लावण्या सी. और चालसानी आर.बी.) एक वाद में मूल प्रतिवादी थे, जिसमें प्रतिवादियों ने 30 अप्रैल 2004 के संयुक्त विकास करार को रद्द करने की घोषणा की मांग की थी।
- कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, अपीलकर्त्ताओं के वकीलों ने 11 जुलाई 2007 और 13 अगस्त 2007 को वचन दिया कि वे विषयगत संपत्ति को किसी तीसरे व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं करेंगे।
- विचारण न्यायालय ने 17 नवंबर 2007 को इस वचन को एक औपचारिक आदेश में सम्मिलित किया, जिसे बाद में कई बार बढ़ाया गया।
- वचन और न्यायालय के आदेश के होते हुए भी, अपीलकर्त्ताओं ने 19 नवंबर 2007 और 13 दिसंबर 2011 के बीच कई विक्रय विलेख निष्पादित किये, जिसमें विषयगत संपत्ति के कुछ भागों को हस्तांतरित किया गया।
- 2011 में, प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 39 नियम 2क के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें उपक्रम/व्यादेश आदेश के उल्लंघन का आरोप लगाया गया।
- विचारण न्यायालय ने 2 अगस्त 2013 को इस आवेदन को खारिज कर दिया, जिसमें पाया गया कि संपत्ति का विवरण अस्पष्ट था और जानबूझकर अवज्ञा स्थापित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे।
- इसके पश्चात्, विचारण न्यायालय ने 2 जनवरी 2017 को मूल वाद को भी खारिज कर दिया, यह निष्कर्ष निकालते हुए कि वादी संयुक्त विकास करार के उल्लंघन को साबित नहीं कर सके।
- प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 39 नियम 2क के अधीन अपने आवेदन को खारिज करने के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने विचारण न्यायालय के निर्णय को उलट दिया।
- अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आरोपित अपराध उनके उपक्रम और वाद की संपत्ति के अलगाव को प्रतिबंधित करने वाले न्यायालय के व्यादेश आदेश की जानबूझकर अवज्ञा करना था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- विचारण न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- विचारण न्यायालय ने पाया कि वादी ने यह साबित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य पेश नहीं किये कि प्रतिवादियों ने संयुक्त विकास करार का उल्लंघन किया है।
- विचारण न्यायालय ने पाया कि वादगत संपत्ति की तस्वीरों से स्पष्ट होता हैं कि यह अभी भी खाली है और केवल नींव डाली गई है, जो वादी के इस दावे का खण्डन करती है कि फ्लैट बेचे गए थे।
- विचारण न्यायालय ने पाया कि वाद की संपत्ति का विवरण "अधूरा और अस्पष्ट" था, जिससे वादी के कथन विश्वसनीय नहीं थे।
- विचारण न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वादी उचित संदेह से परे यह साबित करने में असफल रहे कि प्रतिवादियों ने जानते हुए और जानबूझकर व्यादेश आदेश का उल्लंघन किया।
- विचारण न्यायालय ने निर्धारित किया कि रिकॉर्ड पर यह साबित करने के लिये अपर्याप्त सामग्री थी कि प्रतिवादियों ने जानते हुए और जानबूझकर न्यायालय के आदेश का उल्लंघन किया था।
- विचारण न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों को उपक्रम के कथित उल्लंघन के संबंध में संदेह का लाभ प्राप्त करने का अधिकार है।
- उच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- उच्च न्यायालय ने समी खान बनाम बिंदु खान का हवाला देते हुए कहा कि भले ही व्यादेश आदेश को बाद में अपास्त कर दिया गया हो, किंतु इसकी अवज्ञा समाप्त नहीं होती है।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि वाद को बाद में खारिज कर देने से व्यादेश आदेश के उल्लंघन के लिये पक्षकार को दायित्त्व से मुक्त नहीं किया जा सकता।
- उच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि 17 नवंबर 2007 के न्यायालय के आदेश के बाद कई विक्रय विलेख निष्पादित किये गए, जो स्पष्ट रूप से वचनबद्धता का उल्लंघन करते हैं।
- उच्च न्यायालय ने इस तर्क में कोई दम नहीं पाया कि व्यादेश आदेश अवैध था।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता विचारण न्यायालय के समक्ष किये गए अपने वचनबद्धता की अवज्ञा के दोषी थे।
- उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि इस अवज्ञा के लिये सिविल कारागार में निरोध, संपत्ति की कुर्की और प्रतिवादियों को प्रतिकर देना उचित है।
- सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अधिवक्ता और मुवक्किल के बीच संबंध प्रत्ययी प्रकृति का होता है, जिसमें अधिवक्ता मुवक्किल के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि न्यायालय को दिया गया कोई भी वचन-पत्र मुवक्किल की ओर से अपेक्षित प्राधिकार के बिना नहीं हो सकता।
- उच्चतम न्यायालय को यह स्वीकार करना कठिन लगा कि वचन-पत्र बिना प्राधिकार के दिया गया था, खासकर तब जब साढ़े चार साल तक उस आदेश का पालन करने के लिये कोई कदम नहीं उठाया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अवमानना की शक्तियां यह सुनिश्चित करने के लिये प्रदान की गई हैं कि विधि की गरिमा और महिमा बनी रहे।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि जब न्यायालय के आदेश का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है, जैसा कि इस मामले में हुआ, तो अवमानना अधिकारिता के प्रयोग को गलत नहीं ठहराया जा सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की, कितु अपीलकर्त्ता की अधिक उम्र के कारण तीन महीने के कारावास को हटाते हुए दण्ड को संशोधित किया।
- उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकर की राशि अवर न्यायालय के निर्णय की तारीख से 6% ब्याज के साथ प्रतिकर की राशि 10 लाख रुपए से बढ़ाकर 13 लाख रुपए कर दी।
- उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि व्यादेश आदेश की अवज्ञा मिटाई नहीं जाती, भले ही आदेश बाद में रद्द कर दिया जाए या वाद खारिज कर दिया जाए।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय के स्पष्ट आदेश के होते हुए भी संपत्ति का अलगाव अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध अवमानना कार्यवाही को उचित ठहराता है।
आदेश 39 नियम 2क क्या है?
- आदेश 39 नियम 2क व्यादेश की अवज्ञा या भंग के परिणामों को बताता है।
- यदि कोई व्यक्ति नियम 1 या 2 के अधीन दिये गए व्यादेश की अवज्ञा करता है, या व्यादेश की किसी भी शर्त को भंग करता है:
- न्यायालय उस व्यक्ति की संपत्ति की कुर्की का आदेश दे सकता है।
- न्यायालय उस व्यक्ति को तीन मास तक सिविल ककारागार में अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकता है।
- इस नियम के अधीन संपत्ति की कुर्की:
- एक वर्ष से अधिक समय तक प्रवृत्त नहीं रह सकती।
- यदि एक वर्ष के पश्चात् भी अवज्ञा जारी रहती है, तो कुर्क की गई संपत्ति का विक्रय किया जा सकता है।
- विक्रय से प्राप्त आगमों से, न्यायालय जिसको क्षति हुई है उस पक्षकार को प्रतिकर दे सकता है।
- कोई शेष राशि उस पक्षकार को दी जाती है, जो उसका हकदार है।
ऐतिहासिक निर्णय
- समी खान बनाम बिंदु खान (1998):
- उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि व्यादेश आदेश की अवज्ञा दण्डनीय बनी रहती है, भले ही आदेश बाद में अपास्त कर दिया गया हो।
- "भले ही व्यादेश आदेश को बाद में अपास्त कर दिया गया हो, अवज्ञा मिट नहीं जाती" - यह सिद्धांत वाद के अंतिम परिणाम की परवाह किये बिना न्यायालय के अधिकार को बनाए रखता है।
- यद्यपि यदि व्यादेश बाद में अपास्त कर दिया जाता है, तो दण्ड की गंभीरता कम हो सकती है, किंतु अवमाननापूर्ण कृत्य को पूर्वव्यापी रूप से वैध नहीं बनाया जा सकता है।
- इस वाद ने वादियों पर यह स्पष्ट दायित्त्व लगाया कि वे न्यायालय के आदेशों का पालन उनकी प्रभावी अवधि के दौरान करें, न कि इस संभावना पर निर्भर रहें कि आदेश भविष्य में निरस्त हो सकता है।