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सांविधानिक विधि
सड़क सुरक्षा का अधिकार
«31-Jul-2025
उमरी पूफ प्रतापपुर (Upp) टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड बनाम एम.पी. रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन और अन्य “राज्य अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के अधीन सुरक्षित, वाहन योग्य सड़कें सुनिश्चित करने के लिये कर्तव्यबद्ध है और वह इस उत्तरदायित्त्व को निजी ठेकेदारों पर नहीं छोड़ सकता।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने निर्णय दिया कि सुरक्षित, सुव्यवस्थित और वाहन योग्य सड़कों का अधिकार अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार का एक अनिवार्य पहलू है, और राज्य सड़क विकास और रखरखाव का काम निजी संस्थाओं को सौंपकर अपने उत्तरदायित्त्व से बच नहीं सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने उमरी पूफ प्रतापपुर (Upp) टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड बनाम एम.पी. रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
उमरी पूफ प्रतापपुर (Upp) टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड बनाम एम.पी. रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 2012 में, उमरी पूफ प्रतापपुर टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड (एक निजी कंपनी) ने उमरी-पूफ-प्रतापपुर रोड के विकास के लिये राज्य के स्वामित्व वाली संस्था, मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम (MPRDC) के साथ एक रियायत करार किया।
- परियोजना को टोल संग्रह और वार्षिकी संदाय दोनों के साथ निर्माण, संचालन और अंतरण (Build, Operate and Transfer (BOT)) व्यवस्था के रूप में संरचित किया गया था, जिसका आरंभिक मूल्य 73.68 करोड़ रुपए था।
- निजी कंपनी ने बैंक गारंटी के माध्यम से 3.68 करोड़ रुपए की निष्पादन प्रत्याभूति प्रदान की तथा नियत तिथि 20 जून, 2012 के बाद काम शुरू कर दिया ।
- यद्यपि, जटिलताएँ तब उत्पन्न हुईं जब एक नए स्वतंत्र इंजीनियर की नियुक्ति की गई, जिसने पहले से स्वीकृत डिजाइनों और रेखाचित्रों को अस्वीकार कर दिया, जिससे कंपनी को काम के बड़े हिस्से को तोड़कर पुनः निष्पादित करने के लिये मजबूर होना पड़ा।
- राज्य निगम की कार्रवाई के कारण कथित रूप से हुए इन परिवर्तनों और विलंब के कारण परियोजना की लागत बढ़कर 99.80 करोड़ रुपए हो गई।
- निजी कंपनी ने स्वतंत्र इंजीनियर के समक्ष कुल 280.15 करोड़ रुपए के 19 दावे प्रस्तुत किये, जिनमें अतिरिक्त कार्य, विलंब, टोल राजस्व की हानि, निष्क्रियता शुल्क और भविष्य के व्यावसायिक अवसरों की हानि सहित विभिन्न मुद्दों के लिये प्रतिकर की मांग की गई ।
- जब अधिकांश दावे खारिज कर दिये गए, तो निजी कंपनी ने शुरू में मध्य प्रदेश माध्यस्थम् अधिकरण (राज्य विधि के अधीन स्थापित) के समक्ष संदर्भ मामला संख्या 61/2018 दायर किया।
- जब यह मामला अभी भी लंबित था, कंपनी ने अपनी संविदा में माध्यस्थम् खण्ड को लागू किया और राष्ट्रीय माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन नई दिल्ली में वैकल्पिक विवाद समाधान के लिये अंतर्राष्ट्रीय केंद्र (ICADR) से संपर्क किया।
- मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम (MPRDC) ने इस समानांतर माध्यस्थम् पर आपत्ति जताते हुए तर्क दिया कि मध्य प्रदेश के विशेष राज्य विधि (1983 अधिनियम) के अधीन, राज्य संस्थाओं के साथ कार्य संविदाओं से उत्पन्न होने वाले सभी विवादों का निर्णय विशेष रूप से राज्य माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा किया जाना चाहिये, चाहे संविदा में किसी भी माध्यस्थम् खण्ड का उल्लेख हो।
- उन्होंने निजी माध्यस्थम् कार्यवाही रोकने के लिये उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
- इसके बाद निजी कंपनी ने राज्य अधिकरण से अपना मामला वापस ले लिया और निजी माध्यस्थम् जारी रखा।
- उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम (MPRDC) का पक्ष लिया और निजी माध्यस्थम् कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में अपील की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सड़क विकास और रखरखाव मूल रूप से राज्य का उत्तरदायित्त्व है, और कहा कि "सुरक्षित, अच्छी तरह से रखरखाव वाली और वाहन योग्य सड़कों के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता दी गई है, यह राज्य का उत्तरदायित्त्व है कि वह अपने नियंत्रण में सीधे सड़कों का विकास और रखरखाव करे।"
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब निजी संस्थाएँ लोक कार्य करती हैं तो उनके विरुद्ध रिट याचिकाएँ कायम रखी जा सकती हैं। न्यायालय ने कहा: "राज्य राजमार्ग/जिला सड़क बिछाने का ठेका, जब सरकार के स्वामित्व और संचालन वाले निगम द्वारा सौंपा जाता है, तो वह एक लोक कार्य का स्वरूप ग्रहण कर लेता है - भले ही वह किसी निजी पार्टी द्वारा किया गया हो - और रिट याचिका कायम रखने के लिये कार्यात्मकता परीक्षण को पूरा करेगा।"
- न्यायालय ने पुनः पुष्टि की, कि कार्य संविदाओं के लिये विशेष अधिकरण बनाने वाला राज्य विधान सामान्य माध्यस्थम् विधियों पर वरीयता प्राप्त करता है, और कहा: "1983 का अधिनियम, एक विशेष विधि होने के कारण, एक अधिभावी प्रभाव रखता है और यह आदेश देता है कि ऐसे कार्य संवादों से उत्पन्न विवादों का निर्णय विशेष रूप से मध्य प्रदेश माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा किया जाना चाहिये।"
- न्यायालय ने समानांतर उपचार अपनाने की प्रथा की निंदा करते हुए कहा कि, "अपीलकर्त्ता द्वारा मध्य प्रदेश माध्यस्थम् अधिकरण के समक्ष संदर्भ याचिका वापस लेने, दावों को पुनः उठाने की स्वतंत्रता की मांग किये बिना, तथा साथ ही 1996 के अधिनियम के अधीन कार्यवाही शुरू करने का आचरण फोरम शॉपिंग के समान है।
- यह आचरण, जिसका उद्देश्य सांविधिक तंत्र को दरकिनार करना तथा परित्यक्त दावों को पुनर्जीवित करना है, दुर्भावना से भरा हुआ है।"
- न्यायालय ने कहा कि निजी करार सांविधिक आवश्यकताओं को दरकिनार नहीं कर सकते, और कहा: "पक्षकार लोक हित को आगे बढ़ाने के लिये बनाए गए सांविधिक दायित्त्व से बाहर संविदा नहीं कर सकते" और "रियायती करार का खण्ड 44.3.1, जहाँ तक यह निजी माध्यस्थम् की अनुमति देने का दावा करता है, निष्क्रिय है, क्योंकि यह 1983 के अधिनियम के सांविधिक अधिदेश को दरकिनार करने का प्रयास करता है।"
- न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता के दावे समय-सीमा पार कर चुके हैं, और कहा: "अपीलकर्त्ता के दावे - जो 2013-2015 की घटनाओं से उत्पन्न हुए हैं - 1996 के अधिनियम की धारा 43 के साथ परिसीमा अधिनियम, 1963 के अंतर्गत परिसीमा द्वारा भी वर्जित हैं। 2022 में माध्यस्थम् का विलम्बित आह्वान, और 2025 में इसकी निरंतरता, इस प्रकार स्पष्ट रूप से समय-सीमा पार कर चुकी है और विधिक रूप से अस्थिर है।"
अनुच्छेद 21 का दायरा क्या है?
- अनुच्छेद 21 में उपबंध है कि "किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा,अन्यथा नहीं" तथा भारतीय क्षेत्र के भीतर नागरिकों और विदेशियों दोनों सहित प्रत्येक व्यक्ति के लिये मौलिक सुरक्षा स्थापित की गई है।
- यह उपबंध दो परस्पर जुड़े अधिकारों - जीवन का अधिकार और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार - को समाहित करता है, जिसे उच्चतम न्यायालय ने भारत के सांविधानिक ढाँचे में "मौलिक अधिकारों का हृदय" बताया है।
- राज्य का दायित्त्व और बाध्यता अनुच्छेद 21 सरकारी विभागों, स्थानीय निकायों और विधायिकाओं सहित सभी राज्य संस्थाओं पर एक बाध्यकारी बाध्यता के रूप में कार्य करता है, जिससे उन्हें किसी भी व्यक्ति को प्राण या स्वतंत्रता से वंचित करने से पहले स्थापित विधिक प्रक्रियाओं का पालन करने की आवश्यकता होती है।
- जीवन के अधिकार की विस्तारित व्याख्या में उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया है कि जीवन का अधिकार केवल जीवित रहने से आगे बढ़कर "गरिमा और अर्थपूर्ण जीवन जीने में सक्षम होना" को भी सम्मिलित करता है, जिसमें जीवन की गुणवत्ता और मानव गरिमा के पहलू शामिल हैं।
- प्रक्रियात्मक निष्पक्षता मानक मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978) के बाद, न्यायालय ने आदेश दिया कि "किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये विधि के अधीन कोई भी प्रक्रिया अयुक्तियुक्त, अनुचित या मनमानी नहीं होनी चाहिये," और इस प्रकार उचित प्रक्रिया की मूलभूत आवश्यकताओं को स्थापित किया।
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत व्युत्पन्न अधिकार इस प्रावधान को न्यायिक रूप से विस्तारित किया गया है, जिसमें कई विशिष्ट अधिकार सम्मिलित हैं, जैसे निजता का अधिकार, आश्रय, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रदूषण मुक्त पर्यावरण, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण और अभिरक्षा में हिंसा से सुरक्षा।
- सांविधानिक एकीकरण अनुच्छेद 21 अनुच्छेद 19 की स्वतंत्रताओं के साथ प्रतिच्छेद करता है, जिससे "अतिरिक्त सुरक्षा" प्रदान की जा सके, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता विशिष्ट सांविधानिक स्वतंत्रताओं के साथ अधिव्यापत (overlaps) होती है, जिससे व्यक्तिगत अधिकार संरक्षण के लिये एक व्यापक ढाँचा तैयार होता है।
उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 21 के अधीन सड़क सुरक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में कैसे व्याख्यायित करता है?
- सड़क सुरक्षा अधिकारों के लिये सांविधानिक आधार :
- उच्चतम न्यायालय ने यह स्थापित किया कि संविधान का अनुच्छेद 21 सुरक्षित और सुव्यवस्थित सड़कों के अधिकार को समाहित करता है, तथा कहा: "सुरक्षित, सुव्यवस्थित और वाहन योग्य सड़कों के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता दी गई है।"
- आवागमन की स्वतंत्रता के साथ संबंध:
- न्यायालय ने सड़क अवसंरचना अधिकारों को मौलिक स्वतंत्रताओं से जोड़ते हुए कहा: "चूँकि देश के किसी भी हिस्से तक पहुँचने का अधिकार, कुछ परिस्थितियों में कुछ अपवादों और प्रतिबंधों के साथ, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन प्रत्याभूत एक मौलिक अधिकार है, और सुरक्षित, सुव्यवस्थित और वाहन योग्य सड़कों के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता दी गई है।"
- राज्य का सांविधानिक दायित्त्व:
- अनुच्छेद 21 के अधिदेश का हवाला देते हुए, न्यायालय ने राज्य के कर्त्तव्य पर बल दिया: "राज्य का उत्तरदायित्त्व है कि वह अपने नियंत्रण में आने वाली सड़कों का विकास और रखरखाव करे" क्योंकि यह अनुच्छेद 21 के अधीन प्रत्याभूत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता की व्यापक सुरक्षा के अंतर्गत आता है।
- अनुच्छेद 21 के अधीन लोक कार्य का स्वरूप:
- न्यायालय ने माना कि सड़क निर्माण कार्य राज्य के लिये किये जाने पर सांविधानिक महत्त्व रखता है, तथा टिप्पणी की: "राज्य राजमार्ग/जिला सड़क बिछाने का ठेका, जब सरकार के स्वामित्व और संचालन वाले निगम द्वारा सौंपा जाता है, तो यह एक लोक कार्य का स्वरूप ग्रहण कर लेता है - भले ही इसे किसी निजी पार्टी द्वारा किया जाए" और इस प्रकार इसे अनुच्छेद 21 के सांविधानिक ढाँचे के अंतर्गत लाया गया।
- जीवन के अधिकार की व्यापक व्याख्या:
- यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के स्थापित न्यायशास्त्र को प्रतिबिंबित करता है कि अनुच्छेद 21 के "जीवन के अधिकार" में केवल जीवित रहने से आगे बढ़कर जीवन की गुणवत्ता के पहलू भी शामिल हैं, जिसमें सुरक्षित और सुलभ सड़क अवसंरचना को गरिमापूर्ण जीवन के आवश्यक घटक और जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।