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आपराधिक कानून

उच्चतम न्यायालय ने ज़मानत की अपरंपरागत शर्तों को अपास्त किया

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 04-Aug-2025

अनिल कुमार बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य 

"यह शर्त अधिरोपित करना कि अपीलकर्त्ता प्रत्यर्थी की गरिमा और सम्मान बनाए रखेगा, जोखिम भरा है क्योंकि इससे आगे मुकदमेबाजी बढ़ सकती है।" 

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और ए.जी. मसीह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंन्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और ए.जी. मसीह नेकहा किजमानत की शर्तें, जो सांविधिक प्रावधानों से मेल नहीं खाती हैं, आगे मुकदमेबाजी को जन्म दे सकती हैं।साथ ही उन्होंने झारखंड उच्च न्यायालय के उस निर्णय को भी अपास्त कर दिया, जिसमें गिरफ्तारी से पहले जमानत की शर्त अधिरोपित की गई थी, जिसके अधीन अभियुक्त पति कोअपनी पत्नी के साथ वैवाहिक अधिकारों को फिर से शुरू करने और उसे सम्मान और गरिमा के साथ बनाए रखने की आवश्यकता थी। 

  • उच्चतम न्यायालय ने अनिल कुमार बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

अनिल कुमार बनाम झारखंड राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ता-पतिअनिल कुमारपर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) कीधारा 498-क (क्रूरता), 323 (स्वेच्छाया घोर उपहति कारित करना), 313 (स्त्री की सम्मति के बिना गर्भपात कारित करना), 506 (आपराधिक अभित्रास के लिये दण्ड), 307 (हत्या का प्रयत्न), 34 (सामान्य आशय) सहितकई प्रावधानों के अधीन मामला दर्ज किया गया था। 
  • उन पर दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के अधीन भी आरोप लगाए गए । 
  • यह मामलाघरेलू हिंसासे संबंधित था, जिसमें पति-पत्नी के बीच मतभेद हो गए थे और वे कुछ समय से पृथक् रह रहे थे। 
  • अपीलकर्त्ताने झारखंड उच्च न्यायालय मेंअग्रिम जमानत याचिकादायर कर गिरफ्तारी पूर्व जमानत की मांग की। 
  • उच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी-पूर्व जमानत देने पर सहमति व्यक्त की, किंतु एकअपरंपरागत शर्तअधिरोपित कि अपीलकर्त्ता अपनी पत्नी के साथ वैवाहिक अधिकारों को फिर से शुरू करेगा और उसे सम्मान और गरिमा के साथ बनाए रखेगा 
  • इस स्थिति से व्यथित होकर, जिससे आगे मुकदमेबाजी बढ़ सकती थी, अपीलकर्त्ता नेउच्चतम न्यायालय कादरवाजा खटखटाया । 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने ऐसी शर्त अधिरोपित करने में गलती की है जोदण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 438(2) से मेल नहीं खाती। 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "ऐसा प्रतीत होता है कि पति-पत्नी एक समय पर पृथक् हो गए थे और कुछ समय तक पृथक् रहे थे। यह शर्त अधिरोपित करना कि अपीलकर्त्ता प्रत्यर्थी संख्या 2 को गरिमा और सम्मान के साथ रखेगा, जोखिम भरा है क्योंकि इससे आगे मुकदमेबाजी बढ़ सकती है।" 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "उच्च न्यायालय को अपीलकर्त्ता की गिरफ्तारी-पूर्व जमानत की प्रार्थना पर पूरी तरह से उसके गुण-दोष के आधार पर विचार करना चाहिये था, न कि ऐसी शर्त अधिरोपित चाहिये थी जो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438(2) से संबद्ध नहीं है।"  
  • उच्चतम न्यायालय ने ऐसी शर्तों से उत्पन्न होने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि "यदि इस आधार पर कि ऐसी शर्त का पालन नहीं किया गया है, जमानत रद्द करने का आवेदन बाद में दायर किया जाता है, तो अपीलकर्त्ता की ओर से इसका विरोध होना तय है और इससे उच्च न्यायालय को और अधिक कठिनाई हो सकती है।" 
  • न्यायालय ने कहा कि "उच्च न्यायालय गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के लिये आवेदन में तथ्य के विवादित प्रश्न पर निर्णय लेने में स्वयं को अक्षम पा सकता है।" 
  • तदनुसार, अपील को स्वीकार कर लिया गयाऔर गिरफ्तारी-पूर्व जमानत मामले को नए सिरे से विचार के लिये उच्च न्यायालय की केस फाइल में वापस भेज दिया गया। 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 क्या है? 

बारे में: 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 में "गिरफ्तारी की आशंका करने वाले व्यक्ति की जमानत स्वीकृत करने के लिये निदेश"का उपबंध है , जिसे सामान्यतः अग्रिम जमानत या गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के रूप में जाना जाता है। 
  • यह उपबंध किसी व्यक्ति कोगिरफ्तारी की आशंका में जमानत मांगनेकी अनुमति देता है, जब उसके पास यह विश्वास करने का कारण हो कि उसे अजमानतीय अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है। 
  • यह धाराउच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय कोयह निदेश देने का अधिकार देती है कि ऐसी गिरफ्तारी की स्थिति में व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जाएगा। 
  • धारा 438(1) के अधीन न्यायालयों को निम्नलिखित की जांच करनी होती है: अपराध की गंभीरता, पूर्ववृत्त आपराधिक रिकॉर्ड, भागने का जोखिम, और क्या परिवाद परेशान करने के लिये मिथ्या है। धारा 438(1क) और (1ख) के अधीन लोक अभियोजक और पुलिस अधीक्षक को 7 दिन की सूचना देना अनिवार्य है, लोक अभियोजक को सुनवाई का मौका मिलता है, और आवश्यकता पड़ने पर अभियुक्त को अंतिम सुनवाई में उपस्थित होना होता है।  
  • धारा 438(3) यह सुनिश्चित करती है कि यदि बाद में गिरफ्तार किया गया और जमानत के लिये तैयार है, तो उसे रिहा किया जाना चाहिये, मजिस्ट्रेट केवल जमानतीय वारण्ट जारी करेगा। 
  • धारा 438(4) सामूहिक बलात्संग, 12 वर्ष से कम आयु के बालकों के साथ बलात्संग, अवयस्कों के साथ सामूहिक बलात्संग के लिये अग्रिम जमानत पर रोक लगाती है। 

धारा 438(2) - अग्रिम जमानत की शर्तें: 

  • धारा 438(2)न्यायालय को अग्रिम जमानत देते समयशर्तेंअधिरोपित करने का अधिकार देती है, जैसा वह ठीक समझे, जिनमें सम्मिलित हैं: 
    • शर्त (i): वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी द्वारा पूछे जाने वाले परिप्रश्नों का उत्तर देने के लिये जैसे और जब अपेक्षित हो, उपलब्ध होगा।  
    • शर्त (ii): वह व्यक्ति उस मामले के तथ्यों से अवगत किसी व्यक्ति को न्यायालय या किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष ऐसे तथ्यों को प्रकट न करने के लिये मनाने के वास्ते प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उसे कोई उत्प्रेरणा, धमकी या वचन नहीं देगा।  
    • शर्त (iii): वह व्यक्ति न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना भारत नहीं छोड़ेगा 
    • ऐसी अन्य शर्ते जिसे न्यायालय न्याय के हित में लागू करना उचित समझे 
  • शर्तेंउचित होनी चाहिये तथा सांविधिक प्रावधानों के अनुरूप होनी चाहियेतथा इससे आगे कोई जटिलता या मुकदमेबाजी उत्पन्न नहीं होनी चाहिये 
  • न्यायालय मनमानी या अपरंपरागत शर्तें अधिरोपित नहीं कर सकते जो आपराधिक विधि के दायरे से बाहर हों और सिविल या वैवाहिक विवादों में बाधा उत्पन्न करें 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के अंतर्गत प्रतिस्थापन: 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 482 ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 को प्रतिस्थापित कर दिया है, जो अग्रिम जमानत के लिये समान उपबंध उपबंधित करती है। 
  • नये उपबंध मेंगिरफ्तारी-पूर्व जमानत देते समय लागू की जा सकने वाली शर्तों के लियेसमान रूपरेखा बरकरार रखी गई है। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482(2)पूर्व दण्ड प्रक्रिया संहिता प्रावधान के समान ही शर्तें उपबंधित करती है, जिसमें इस बात पर बल दिया गया है कि शर्तेंउचित और सांविधिक सीमाओं के भीतर होनी चाहिये