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सिविल कानून

पुनीत कर्त्तव्य का सिद्धांत

 07-Jun-2024

परिचय:

पुनीत कर्त्तव्य का सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जिसके अनुसार पुत्र अपने पिता के ऋणों को चुकाने के लिये उत्तरदायी होते हैं, विशेष रूप से वे ऋण अनैतिक एवं अनैतिक उद्देश्यों को छोड़कर जो विधिक उद्देश्यों हेतु लिये गए हों। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के कारण इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न किया गया है, जिसने इसे निरस्त कर दिया है। यदि ऋण वर्ष 2005 से पहले अर्जित किया गया था, तो पुत्र, पौत्र एवं परपोते पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत के अंतर्गत उत्तरदायी रहेंगे। इसलिये, संशोधन केवल भविष्य के ऋणों पर लागू होता है।

पुनीत कर्त्तव्य का सिद्धांत क्या है?

  • हिंदू विधि में ऋण का बहुत महत्त्व है, ऋण पुत्रों के लिये एक पुनीत कर्त्तव्य है कि वे अपने पिता की मृत्यु के बाद उनके ऋणों को चुकाएँ ताकि उन ऋणों से जुड़े किसी भी दोषपूर्ण कृत्य से उन्हें मुक्ति मिल सके।
  • पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत के अनुसार, एक पुत्र अपने पिता, दादा या परदादा के ऋणों का निपटान करने के लिये उत्तरदायी होता है, जब तक कि वे ऋण अनैतिक या अविधिक उद्देश्यों के लिये नहीं लिये गए हों।
  • पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत ने अतीत में भ्रम एवं विवादास्पद विधिक निर्णयों को जन्म दिया है, जिसके कारण वर्ष 2005 के हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के बाद इसे समाप्त कर दिया गया।
  • हिंदू विधि यह निर्धारित करता है कि यदि कोई हिंदू बिना चुकाए ऋण के साथ मर जाता है, तो इससे उसकी आत्मा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
  • आध्यात्मिक कल्याण सुनिश्चित करने के लिये अपने पिता के ऋणों को चुकाना मृतक के बेटे का कर्त्तव्य बन जाता है।
  • पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत का प्राथमिक उद्देश्य ऋणदाता को लाभ पहुँचाने के बजाय मृतक को आध्यात्मिक राहत प्रदान करना है।

पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत की उत्पत्ति कहाँ से है?

  • सिद्धेश्वर मुखर्जी बनाम भुवनेश्वर प्रसाद नारायण सिंह (1953): माननीय उच्चतम न्यायालय ने पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत की उत्पत्ति ऐतिहासिक “स्मृतियों” में पाई:
    • याज्ञवल्क्य स्मृति कहती है कि यदि पिता की मृत्यु हो जाए, विदेश में हों या संकट में हों तो पुत्र एवं पौत्र उनके ऋण चुकाने के लिये उत्तरदायी होंगे।
    • बृहस्पति स्मृति ऋण न चुका पाने के कृत्य के कारण उत्पन्न परिणामों पर ज़ोर देता है, जबकि
    • नारद स्मृति इस बात पर ज़ोर देता है कि यदि मृत्यु के बाद भी ऋण नहीं चुकाया जाता है तो व्यक्ति की भक्ति का पुण्य ऋणदाताओं को जाता है
    • धर्मशास्त्र के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति को अपने एवं अपने पिता के ऋण दोनों का भुगतान करना है, तो उसे पहले पिता के ऋण का भुगतान करना चाहिये तथा पिता एवं दादा के ऋणों में से दादा के ऋण का भुगतान पहले करना चाहिये।
    • भारतीय विधिक साहित्य एवं प्रारंभिक प्रथाओं में, पुत्रों की इच्छा इसलिये की जाती थी क्योंकि उनसे अपने पिता के आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों ऋणों को चुकाने की अपेक्षा की जाती थी।

पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत के अंतर्गत ऋण के प्रकार क्या हैं?

  • व्यावहारिक ऋण:
    • यह उन ऋणों को संदर्भित करता है जो धर्मज एवं देय हैं, किसी भी विधि या सार्वजनिक नीतियों का उल्लंघन नहीं करते हैं।
    • पुत्रों को ऐसे ऋणों का भुगतान करने के लिये बाध्य किया जाता है, जिसमें टेलीफोन बिल, व्यावसायिक उद्देश्यों हेतु लिये गए ऋण या वाद में स्वयं का बचाव करने जैसे विधिक मामलों से संबंधित व्यय शामिल हो सकते हैं।
  • अव्यावहरिक ऋण:
    • इसमें विधि विरुद्ध या अनैतिक उद्देश्यों हेतु लिये गए ऋण शामिल हैं।
    • इसमें जुआ खेलने, शराब पीने, ज़ुर्माना अदा न करने या वेश्यावृत्ति जैसी अवैध गतिविधियों में शामिल होने जैसी गतिविधियों से संबंधित ऋण शामिल हैं।
    • हिंदू विधि के अंतर्गत इन ऋणों को पुत्रों पर बाध्यकारी नहीं माना जाता है।

पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत से संबंधित विधियाँ क्या हैं?

  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005
    • संयुक्त हिंदू परिवारों में पुत्रियों के साथ असमान व्यवहार को दूर करने तथा उन्हें भी पुत्रों के समान अधिकार प्रदान करने के लिये संसद द्वारा हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 पारित किया गया था।
    • यह हिंदू विधि के अंतर्गत संपत्ति में महिलाओं के अधिकारों पर 174वीं विधि आयोग की रिपोर्ट की अनुशंसा पर आधारित था, जिसमें उत्तराधिकार विधियों में लैंगिक समानता की पैरवी की गई थी।
    • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अधिनियमन के बाद, न्यायालयों को पुत्रों, पौत्रों या परपौत्रों को उनके पिता, दादा या परदादा के ऋणों के लिये उत्तरदायी ठहराने के पुनीत कर्त्तव्य सिद्धांत को लागू करने की अनुमति नहीं है।
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत बेटी का सांपत्तिक अधिकार
    • परंपरागत रूप से, प्राचीन हिंदू समाज पितृसत्तात्मक था, जिसमें महिलाओं को अपने नाम से संपत्ति रखने से प्रतिबंधित किया गया था।
      • यदि कोई महिला संपत्ति अर्जित भी करती थी, तो उस पर उसका नियंत्रण उसके पिता, पति या पुत्र के पास होता था।
    • वर्ष 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने इस प्रणाली को जारी रखा, जिसके अंतर्गत पुत्रियों को अपने पिता की स्व-अर्जित संपत्ति में अधिकार प्रदान किया गया, लेकिन सहदायिक संपत्ति में नहीं, क्योंकि संयुक्त हिंदू परिवारों में उन्हें सहदायिक के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी।
    • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का उद्देश्य सहदायिक संपत्ति में पुत्रियों को पुत्रों के समान अधिकार प्रदान करके इस समस्या का समाधान करना था।
      • इसका उद्देश्य पितृसत्तात्मक मानसिकता को चुनौती देना, लैंगिक भेदभावपूर्ण प्रावधानों को हटाना तथा उत्तराधिकार के मामलों में लैंगिक समानता प्रदान करना था।
    • यद्यपि संशोधन में कुछ मुद्दों पर ध्यान दिया गया, फिर भी इसकी व्याख्या में अस्पष्टताएँ थीं, जिसके कारण इसके उद्देश्यों को पूर्णतः क्रियान्वित करने में चुनौतियाँ उत्पन्न हुईं।

वे कौन-से मुद्दे एवं अनियमितताएँ हैं जिनके कारण पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत को समाप्त कर दिया गया?

  • मौजूदा अनियमितताओं को दूर करने के लिये वर्ष 2005 के संशोधन के बाद पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत को समाप्त कर दिया गया।
  • संशोधन से पहले पद्मिनीबाई बनाम अरविंद पुरंधर मुराबट्टे (1987) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा सिद्धांत की व्याख्या किये जाने के कारण एक मुद्दा उठा था।
  • उस मामले में न्यायालय के तर्क के बाद, यह तर्क दिया जा सकता है कि यदि पुत्री को जन्म से मिताक्षरा सहदायिकता में सांपत्तिक उत्तराधिकार मिलता है तो वह अपने मृत पिता के ऋणों के लिये उत्तरदायी होगी।
  • पुनर्मिलन की अवधारणा एवं मिताक्षरा सहदायिकता के अन्य प्रावधानों के कारण और अधिक अनियमितताएँ उत्पन्न हुईं, क्योंकि इसमें केवल पिता के पुत्र, भाई, भतीजे एवं चाचा ही शामिल थे, महिलाएँ पूरी तरह से बाहर थीं।
  • यदि कर्नाटक उच्च न्यायालय के तर्क को पुत्रियों, बहनों या भतीजियों को सहदायिक के रूप में पुनर्मिलन में भाग लेने की अनुमति देने के लिये विस्तारित किया जाता है, तो यह असंहिताबद्ध विधि को बाधित करेगा।
  • ऐसी लगातार अनियमितताओं के कारण, पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत में परिवर्तन की आवश्यकता अपरिहार्य हो गई, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2005 के संशोधन के माध्यम से इसे निरस्त कर दिया गया।

पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत पर निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • मुत्तयन चेट्टियार बनाम सांगिली वीरा पांडिया चिन्नातंबियार (1882):
    • मद्रास उच्च न्यायालय ने पुनीत कर्त्तव्य के सिद्धांत को न केवल धार्मिक बल्कि विधिक भी माना।
    • यह तर्क दिया गया कि यह विधिक कर्त्तव्य पैतृक संपत्ति में पिता के श्रेष्ठ हित से उत्पन्न होता है, जो इसे उस बेटे के लिये अनिवार्य बनाता है, जो ऐसी संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है।
  • सोमसुंदरन बनाम नरसिंहाचार्य (1905):
    • मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि पिता या पुत्र द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर किसी अन्य धर्म में धर्म संपरिवर्तन करने से पुत्र, पिता के धर्म संपरिवर्तन से पहले लिये गए ऋणों के संबंध में अपने पुनीत कर्त्तव्य से मुक्त नहीं हो जाता।
  • विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा एवं अन्य (2020):
    • उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 पूर्वव्यापी रूप से लागू होता है, जिससे अधिनियम की धारा 6(4) के अंतर्गत पुत्रियाँ पुत्रों के समान ही उत्तरदायी होंगी।