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सांविधानिक विधि
दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील
« »10-Jun-2025
नागराजन बनाम तमिलनाडु राज्य “किसी अभियुक्त का दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील संस्थित करने का अधिकार न केवल सांविधिक अधिकार है, बल्कि संवैधानिक अधिकार भी है।” न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील संस्थित करने का अभियुक्त का अधिकार न केवल सांविधिक अधिकार है, बल्कि यह एक संवैधानिक अधिकार भी है।
- उपर्युक्त टिप्पणी नागराजन बनाम तमिलनाडु राज्य (2025) मामले में की गई थी।
नागराजन बनाम तमिलनाडु राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
तथ्य:
- पक्षकार: नागराजन (अपीलकर्त्ता/आरोपी) मृतका श्रीमती मरियम्माल का पड़ोसी था।
- घटना की रात (11 जुलाई 2003):
- अपीलकर्त्ता ने रात में मृतका के कमरे में प्रवेश किया।
- उससे गले मिलते हुए, उसकी शील भंग करने का प्रयास किया।
- मृतका की सास ने हस्तक्षेप किया और अपीलकर्त्ता को डांटा।
- अपीलकर्त्ता परिसर से भाग गया।
- अगले दिन (12 जुलाई 2003):
- सुबह करीब 5:00 बजे सास ने मृतका एवं उसकी नवजात बेटी को गायब पाया।
- उनकी तलाश की और उनके ठिकाने के विषय में पूछताछ की।
- मृतका पहले उस स्कूल में गई थी, जहाँ उसकी बड़ी बेटी (कक्षा तीन) पढ़ती थी।
- बड़ी बेटी को ले जाने का प्रयास किया गया, लेकिन वार्डन की अनुपस्थिति के कारण शिक्षकों ने मना कर दिया।
- दुखद अंत:
- मृतका अपने डेढ़ वर्ष के बच्चे के साथ पास के खेत में गई थी।
- ओलियंडर के बीज खाकर आत्महत्या कर ली।
- अपने नवजात बच्चे को भी जहर दे दिया।
- दोनों को मवेशी चरा रहे एक राहगीर ने देखा, जिसने गांव के चौकीदार को सूचना दी।
- जब बच्चा मिला तो वह जीवित था, लेकिन अस्पताल में उसे मृत घोषित कर दिया गया।
- विधिक कार्यवाही:
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 306 के अंतर्गत FIR संख्या 239/2003 दर्ज की गई।
- 30 अक्टूबर 2003 को आरोप पत्र दाखिल किया गया।
- मामला महिला न्यायालय, फास्ट ट्रैक कोर्ट, डिंडीगुल को सौंप दिया गया।
ट्रायल कोर्ट का निर्णय:
- आरोप परिवर्तित किये गए: धारा 306 से IPC की धारा 354 एवं 448
- निर्णय (29 मई 2015):
- धारा 306 IPC (आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करना) के अंतर्गत दोषमुक्ति।
- IPC की धारा 354 एवं 448 के अंतर्गत दोषी माना गया।
- तर्क: कार्यवाही आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करने वाली नहीं थी क्योंकि अपीलकर्त्ता ने मृतक को आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित नहीं किया था।
- सजा:
- 3 वर्ष और 1 माह का साधारण कारावास + 25,000/- रुपये का जुर्माना (धारा 354)।
- 3 माह का साधारण कारावास (धारा 448)।
- जुर्माना अदा न करने पर 3 माह का अतिरिक्त कारावास।
उच्च न्यायालय की कार्यवाही:
- अभियुक्त द्वारा अपील: दोषसिद्धि के विरुद्ध सीआरएल. ए. (एम.डी.) संख्या 137/2015 संस्थित की गई।
- स्वतः संज्ञान से संशोधन: उच्च न्यायालय ने सीआरएल. आर.सी. (एम.डी.) संख्या 248/2015 शुरू की।
- यह विचार बना कि धारा 306 के अंतर्गत दोषमुक्त किये जाने के लिये जाँच की आवश्यकता है।
- सहायता के लिये एमिकस क्यूरी नियुक्त किया गया।
- न तो राज्य और न ही पीड़ित ने दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध अपील की थी।
- उच्च न्यायालय का निर्णय (29 नवंबर 2021):
- अपीलकर्त्ता की आपराधिक अपील खारिज कर दी गई।
- स्वतः संज्ञान से पुनरीक्षण की अनुमति दी गई।
- अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 306 एवं 448 के अंतर्गत दोषी माना गया।
- बढ़ी हुई सजा: 5 वर्ष के लिये कठोर कारावास + 5,000/- रुपये का जुर्माना (धारा 306)।
- तर्क: अपीलकर्त्ता ने मृतका की गरिमा को ठेस पहुँचाकर उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने में सक्रिय भूमिका निभाई, जिससे उसे आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित गया।
वर्तमान स्थिति:
- अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में आपराधिक अपील संस्थित करके उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने उच्च न्यायालय के उस निर्णय को खारिज करते हुए ये टिप्पणियाँ कीं, जिसमें एक अभियुक्त की अपील पर विचारण के दौरान स्वत: संज्ञान लेते हुए उसकी सजा परिवर्द्धित कर दी गई थी।
- अपील का अधिकार: अभियुक्त के लिये एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा:
- अपील का अधिकार एक अमूल्य अधिकार है, विशेषकर अभियुक्त के लिये, जिसे केवल ट्रायल कोर्ट के निर्णय से दोषी नहीं माना जा सकता।
- यह अधिकार दोहरा है:
- CrPC जैसे प्रक्रियात्मक विधानों के अंतर्गत सांविधिक अधिकार।
- संवैधानिक अधिकार, निष्पक्ष विचारण और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित हैं।
- अभियुक्त द्वारा अपील का संस्थित किया जाना:
- अभियुक्त निम्न कार्य कर सकता है:
- दोषसिद्धि और सजा को गुण-दोष के आधार पर चुनौती देना।
- परीक्षण न्यायालय द्वारा की गई प्रक्रियागत त्रुटियों, अनियमितताओं एवं चूकों को उठाना।
- अपीलीय न्यायालय का यह कर्त्तव्य है:
- अभियुक्त के दृष्टिकोण से पूरे मामले की जाँच करना।
- निर्णय लेना कि:
- दोषसिद्धि को रद्द करें और अभियुक्त को दोषमुक्त करना,
- या पुनः विचारण के लिये रिमांड पर लेना,
- या दोषसिद्धि को यथावत रखते हुए सजा कम करना,
- या अपील को पूरी तरह से खारिज करना।
- अभियुक्त निम्न कार्य कर सकता है:
- उच्च न्यायालय की अधिकारिता की सीमाएँ:
- अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करते समय, उच्च न्यायालय पुनरीक्षण न्यायालय की भूमिका नहीं निभा सकता।
- केवल अभियुक्त द्वारा संस्थित अपील में सजा में परिवर्द्धन की अनुमति नहीं है, विशेष रूप से:
- जब राज्य, पीड़ित या शिकायतकर्त्ता द्वारा कोई अपील या पुनरीक्षण याचिका संस्थित नहीं किया गया हो।
- धारा 401 CrPC के अंतर्गत स्वतः संज्ञान से पुनरीक्षण शक्तियाँ:
- केवल अभियुक्त द्वारा संस्थित अपील पर विचार करते समय सज़ा बढ़ाने के लिये इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।
- यह निष्पक्ष विचारण एवं अपीलीय न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।
- न्यायालय का अंतिम निर्णय:
- उच्च न्यायालय ने अपने अधिकारिता से परे जाकर कार्य किया:
- केवल अभियुक्त की अपील पर निर्णय देते हुए, स्वतः संज्ञान से पुनरीक्षण के अंतर्गत सजा में परिवर्द्धन करना।
- इसलिये, उच्चतम न्यायालय:
- उच्च न्यायालय के उस निर्णय को खारिज कर दिया, जिसमें सजा बढ़ा दी गई थी।
- इस तथ्य की पुनः पुष्टि की गई कि अपीलीय शक्तियाँ एवं पुनरीक्षण शक्तियाँ अलग-अलग हैं तथा इन्हें एक साथ नहीं मिलाया जाना चाहिये, विशेषकर अभियुक्त को क्षति कारित करने के लिये।
- उच्च न्यायालय ने अपने अधिकारिता से परे जाकर कार्य किया:
अपील का अधिकार क्या है?
- अवलोकन:
- अपील का अधिकार एक विधिक अधिकार है जो पक्षों को अधीनस्थ न्यायालय के निर्णयों को उच्च न्यायालयों में चुनौती देने की अनुमति देता है तथा इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मान्यता प्राप्त है।
- यह एक सांविधिक अधिकार है, न कि एक अंतर्निहित अधिकार, तथा इसका प्रयोग केवल उन विशिष्ट विधानों के ढाँचे के अंतर्गत ही किया जा सकता है जो इसे प्रदान करते हैं।
- अपील के अधिकार को नियंत्रित करने वाला विधान उस समय लागू होता है जब वाद संस्थित किया गया था, न कि जब निर्णय लिया गया था या अपील संस्थित की गई थी।
- ऐतिहासिक विकास: 4. प्राचीन भारत में न्याय धर्म पर आधारित था, जहाँ लोग निवारण के लिये राजा या स्थानीय न्यायालयों से संपर्क कर सकते थे।
- ब्रिटिश शासन ने निम्नलिखित लागू करके विधिक प्रणाली को औपचारिक रूप दिया:
- सिविल वाद के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता (1908)।
- आपराधिक अपीलों के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता (1898)।
- स्वतंत्रता के बाद के घटनाक्रमों में शामिल हैं:
- न्याय प्राप्ति को मौलिक अधिकार के रूप में संवैधानिक मान्यता।
- उच्चतम अपीलीय प्राधिकरण के रूप में उच्चतम न्यायालय की स्थापना।
- अधीनस्थ न्यायालयों से अपील के विचारण के लिये उच्च न्यायालयों को सशक्त बनाना।
- अपील के अधिकार की विशेषताएं:
- यह एक मौलिक अधिकार है जो मामले के आरंभ से ही निहित होता है लेकिन इसका प्रयोग केवल प्रतिकूल निर्णय के बाद ही किया जाता है।
- अधिकार प्रदान करने वाला विधान इसके प्रयोग के लिये शर्तें लगा सकता है और अपीलीय न्यायालय को परिवर्तित कर सकता है।
- यह अधिकार हिंदू विधिक परंपराओं (मध्यस्थता) और इस्लामी विधिक प्रणाली (निष्पक्ष परीक्षण एवं अपील) के प्रभावों को जोड़ता है।
अपील के अधिकार का विधिक ढाँचा क्या है?
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC):
- CrPC की धारा 374 अपील की एक पदानुक्रमित प्रणाली स्थापित करती है, जो दोषी व्यक्तियों को तीन स्तरों के न्यायालयों - उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय में अपील करने की अनुमति देती है, जो इस तथ्य पर निर्भर करता है कि उन्हें किस न्यायालय ने दोषी ठहराया है।
भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS):
- यह त्रि-स्तरीय अपीलीय संरचना स्थापित करता है:
- उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय।
- सत्र न्यायालय द्वारा दिये गए 7+ वर्ष की सजा वाले दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्च न्यायालय।
- मजिस्ट्रेट के दोषसिद्धि के लिये सत्र न्यायालय।
- उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए दोषसिद्धि के विरुद्ध [धारा 415(1)]:
- अपील उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है।
- यह केवल असाधारण मूल आपराधिक अधिकारिता वाले मामलों पर लागू होता है।
- कोई न्यूनतम सजा की आवश्यकता निर्दिष्ट नहीं है।
- सत्र न्यायालय द्वारा दिये गए दोषसिद्धि के विरुद्ध [धारा 415(2)]:
- अपील उच्च न्यायालय में की जा सकती है।
- सत्र/अतिरिक्त सत्र न्यायाधीशों द्वारा विचारण किये जाने वाले मुकदमों पर लागू होता है।
- अन्य न्यायालयों से 7+ वर्ष की सजा वाले मामलों को भी इसमें शामिल किया जाता है।
- इसमें एक ही मुकदमे में दोषी माने गए सह-अभियुक्त भी शामिल हैं।
- मजिस्ट्रेट कोर्ट द्वारा दिये गए सज़ा के विरुद्ध [धारा 415(3)]:
- अपील सत्र न्यायालय में की जा सकती है।
- इसमें प्रथम श्रेणी और द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट के वाद शामिल हैं।
- इसमें धारा 364 के अंतर्गत सजाएँ शामिल हैं।
- इसमें धारा 401 के अंतर्गत आदेश/सजाएँ शामिल हैं।
- विशेष समय सीमा [धारा 415(4)]:
- 6 महीने की निपटान समय सीमा।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 की निर्दिष्ट धाराओं के अंतर्गत सजा के विरुद्ध अपील पर लागू होता है।
- समय अपील दाखिल करने की तिथि से आरंभ होता है।
CPC की धारा 96 के अंतर्गत अपील का अधिकार:
- CPC की धारा 96 के अंतर्गत, मूल अधिकारिता का प्रयोग करने वाले न्यायालय द्वारा पारित डिक्री से प्रतिकूल रूप से प्रभावित किसी भी पक्ष को प्रथम अपील संस्थित करने का अधिकार है।
- मृतक पक्षों (धारा 146 के अंतर्गत) के विधिक प्रतिनिधि और अंतरिती व्यक्ति जिनके नाम मुकदमे में दर्ज हैं, वे भी अपील कर सकते हैं।
- मुकदमे के गैर-पक्ष केवल तभी अपील कर सकते हैं जब वे अपीलीय न्यायालय से विशेष अनुमति प्राप्त करते हैं तथा यह सिद्ध कर सकते हैं कि वे डिक्री से बंधे हुए हैं, पीड़ित हैं या पूर्वाग्रह से प्रभावित हैं।
भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 और सांविधिक विधि के अंतर्गत अपील का अधिकार:
- अपील के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के हिस्से के रूप में मान्यता दी गई है।
- यह एक अंतर्निहित अधिकार नहीं है, बल्कि विशिष्ट विधानों के माध्यम से दिया गया एक मौलिक अधिकार है।
- यह अधिकार मामले की शुरुआत में निहित होता है, लेकिन इसका प्रयोग केवल प्रतिकूल निर्णय के बाद ही किया जा सकता है।
- अपील को नियंत्रित करने वाला विधान उस समय लागू होता है जब वाद संस्थित किया गया था, न कि जब निर्णय लिया गया था या अपील संस्थित की गई थी।
- हालाँकि विधान इस अधिकार के प्रयोग पर शर्तें लगा सकते हैं, लेकिन ये शर्तें इतनी प्रतिबंधात्मक नहीं हो सकतीं कि यह अधिकार निरर्थक हो जाए, जैसा कि न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा।