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सांविधानिक विधि
छद्मता का सिद्धांत
« »11-Mar-2024
परिचय:
छद्म विधायन का सिद्धांत एक वैधानिक सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य सरकार के विधायी अधिकार के असंवैधानिक उपयोग को रोकना है। इस सिद्धांत को 'संविधान के साथ धोखाधड़ी' भी कहा जाता है।
छद्म विधायन के सिद्धांत की उत्पत्ति:
- यह सिद्धांत लैटिन मैक्ज़िम "क्वांडो अलिक्विड प्रॉहिबिटर एक्स डायरेक्टो, प्रॉहिबिटर एट पर ओब्लिकम" से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है कि जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता है वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं किया जा सकता है।
- छद्म विधायन का सिद्धांत भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिन्होंने इस सिद्धांत को कनाडा और ऑस्ट्रेलिया से लिया था।
- स्वतंत्रता के पश्चात्, छद्म विधायन का सिद्धांत भारत के संविधान, 1950 (COI) का एक अभिन्न अंग बना रहा।
- न्यायपालिका ने सरकारी निकायों के विधायी अधिकार को विनियमित करने के लिये अपने निर्णयों के माध्यम से छद्म विधायन के सिद्धांत को और विकसित किया।
छद्म विधायन का सिद्धांत:
- यह सिद्धांत किसी अधिनियमित कानून के विरुद्ध विधायिका की क्षमता का परीक्षण करता है।
- यह तब लागू होता है, जब विधानमंडल के पास किसी विशेष विषय पर कानून निर्माण की शक्ति नहीं होती है लेकिन फिर भी वह अप्रत्यक्ष रूप से कानून निर्माण करता है।
- इस सिद्धांत को लागू करने से विवादित विधान का आक्षेप तय होता है।
- यह प्रच्छन्न, गुप्त या अप्रत्यक्ष तरीके से विधायिका की गठित शक्ति के अत्यधिक विस्तार को प्रतिबंधित करता है।
- यह सिद्धांत आमतौर पर COI के अनुच्छेद 246 पर लागू होता है, जिसमें विभिन्न विषयों को रेखांकित करके संसद और राज्य विधानसभाओं की विधायी क्षमता का सीमांकन किया गया है।
COI का अनुच्छेद 246:
- यह अनुच्छेद संसद और राज्यों के विधानमंडलों द्वारा निर्मित कानूनों की विषय-वस्तु से संबंधित है। यह प्रकट करता है, कि-
(1) खंड (2) व खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी, संसद को सातवीं अनुसूची की सूची 1 में (जिसे इस संविधान में संघ सूची कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में विधि बनाने की अनन्य शक्ति प्राप्त है।
(2) खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी, संसद को और खंड (1) के अधीन रहते हुए, *किसी राज्य के विधान-मंडल को भी, सातवीं अनुसूची की सूची 3 में (जिसे इस संविधान में समवर्ती सूची कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में विधि बनाने की शक्ति प्राप्त है।
(3) खंड (1) और खंड (2) के अधीन रहते हुए, *किसी राज्य के विधान-मंडल को, सातवीं अनुसूची की सूची 2 में (जिसे इस संविधान में राज्य सूची कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के संबंध में उस राज्य या उसके किसी भाग के लिये विधि बनाने की अनन्य शक्ति प्राप्त है।
(4) संसद को भारत के राज्यक्षेत्र के ऐसे भाग के लिये **[जो किसी राज्य] के अंतर्गत नहीं है, किसी भी विषय के संबंध में विधि बनाने की शक्ति है, चाहे वह विषय राज्य सूची में प्रगणित विषय ही क्यों न हो।
छद्म विधायन सिद्धांत की प्रयोज्यता:
- न्यायालय ऐसे विवादास्पद कानून के अधिनियमन की योग्यता निर्धारित करने के लिये इस सिद्धांत को लागू करता है और इसकी वास्तविक एवं गुप्त प्रकृति की जाँच करता है।
- यदि न्यायालय को ऐसे कानून निर्माण में विधायिका द्वारा अधिकार के किसी उल्लंघन का साक्ष्य मिलता है, तो वह ऐसे कानून को शून्य घोषित कर देता है।
छद्म विधायन के सिद्धांत की सीमाएँ:
- अधीनस्थ विधायन को सिद्धांत से छूट प्राप्त है। यह केवल कुछ कानूनों को अपनाने के लिये विधायी निकाय की क्षमता के प्रश्न पर आधारित है।
- जब कोई संवैधानिक सीमा नहीं है और जहाँ विधायिका की शक्तियाँ किसी सीमा द्वारा प्रतिबंधित नहीं होती हैं तो इस सिद्धांत का कोई उपयोग नहीं होता है।
- हालाँकि इस बात की परवाह नहीं है कि कानून प्रासंगिक है या अप्रासंगिक।
- यह धारणा विधायिका के अच्छे या बुरे आशयों से संबंधित नहीं है। यह केवल इस बात पर विचार करता है कि अपनाया गया कानून विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है या नहीं।
छद्म विधायन के सिद्धांत का ऐतिहासिक मामला:
- आर.एस. जोशी बनाम अजीत मिल्स (वर्ष 1977):
- उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि"बल/शक्ति के विधान में, प्रशासनिक बल पर छद्म अभ्यास अथवा जबरन वसूली या संविधान में लिखी गई बातों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना आदि ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं जो केवल यह दर्शाती हैं कि विधानसभा एक विशिष्ट कानून को अधिकृत करने के मामले में दक्ष नहीं है, भले ही उस पर योग्यता का चिह्न लगाया गया हो, कुल मिलाकर यह छद्म अधिनियमन है।"