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आपराधिक कानून

संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में जमानत प्रणालियाँ

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 01-Sep-2025

स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस 

परिचय 

जमानत  का सिद्धांत आपराधिक विधिशास्त्र की आधारशिला है, जो इस सांविधानिक सिद्धांत को मूर्त रूप देता है कि उचित विधिक प्रक्रिया के बिना स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत, दोनों ने अलग-अलग जमानत  ढाँचे विकसित किये हैं जो उनकी संबंधित विधिक परंपराओं और सांविधानिक अनिवार्यताओं को दर्शाते हैं। यद्यपि दोनों ही अधिकारिता निर्दोषता की उपधारणा और विचारण-पूर्व स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को मान्यता देते हैं, किंतु जमानत  प्रशासन के प्रति उनके दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक और दार्शनिक भिन्नताओं को प्रकट करते हैं जिनका व्यापक विश्लेषण आवश्यक है। 

संयुक्त राज्य अमेरिका में को संचालित करने वाला विधिक ढाँचा क्या है? 

  • अमेरिकी जमानत प्रणाली संघीय एवं राज्यीय सांविधानिक उपबंधों के अधीन कार्य करती है, जिनमें प्रमुख रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के आठवें संशोधन द्वारा अत्यधिक जमानत पर निषेध निहित है। संघीय न्यायालयों को 18 U.S.C. § 3142 से अधिकार प्राप्त हैं, जो न्यायिक प्राधिकारी को यह निदेशित करता है कि अभियुक्त को छोड़े जाने की शर्तें निर्धारित करते समय वह अभियुक्त के पलायन-जोखिम, समाज के प्रति संभावित खतरा  तथा अपराध की गंभीरता जैसे कारकों पर विचार करे। 
  • पारंपरिक नकद जमानत व्यवस्था के अंतर्गत अभियुक्त को न्यायालय में उपस्थिति सुनिश्चित करने हेतु एक निश्चित धनराशि सुरक्षा के रूप में जमा करनी होती है, जिसकी मात्रा सांविधिक दिशानिर्देशों एवं न्यायिक विवेकाधिकार पर निर्भर करती है। यह व्यवस्था इस धारणा पर आधारित है कि वित्तीय दायित्त्व अभियुक्त को न्यायालय के आदेशों का पालन करने और फरार होने के जोखिम को कम करने के लिये प्रेरित करता है। हिंसक अपराध और मृत्युदण्ड संबंधी अपराध सामान्यत: मानक जमानत  प्रावधानों के दायरे से बाहर होते हैं, और निवारक निरोध संविधियों के अधीन इनके लिये गहन न्यायिक जांच की आवश्यकता होती है।  
  • 1984 के जमानत सुधार अधिनियम ने नशीली दवाओं की तस्करी और हिंसक अपराधों सहित कुछ प्रकार के अपराधों के लिये जमानत के विरुद्ध खण्डनीय उपधारणाएँ स्थापित कीं। न्यायालयों को यह निर्धारित करने के लिये प्रतिकूल सुनवाई करनी चाहिये कि क्या कोई शर्त या शर्तों का संयोजन उपस्थिति और सामुदायिक सुरक्षा को उचित रूप से सुनिश्चित करेगा। 

अमेरिकी विधिक प्रावधानों के अधीन नक़दीहीन (Cashless Bail) जमानत कैसे संचालित होती है 

  • नक़दीहीन जमानत  एक महत्त्वपूर्ण विचलन है, जो धन-आधारित रिहाई प्रणाली के स्थान पर वैकल्पिक आश्वासन संबंधी शर्तों के माध्यम से संचालित होती है, जिन्हें एवं न्यायालयीय नियमों द्वारा विनिर्दिष्ट किया गया है। यह सुधारात्मक पहल सांविधानिक चुनौतियों के पश्चात् सामने आई, विशेषतः सुधार पहल वॉकर बनाम सिटी ऑफ़ कैलहौन (2018) जैसे मामलों में, जहाँ यह तर्क दिया गया कि मौद्रिक जमानत प्रणाली निर्धन अभियुक्तों के विरुद्ध समान सुरक्षा के अधिकार का उल्लंघन करती है।   
  • न्यूयॉर्क के क्रिमिनल प्रोसीजर लॉ § 510.10 जैसी अधिकारिता में विधायी अधिनियमों ने कई दुष्कर्म और अहिंसक घोर अपराधों के लिये नकद जमानत  को समाप्त कर दिया है। यह संविधि जमानत या गैर-मौद्रिक शर्तों पर छोड़ने का आदेश देता है, जब तक कि विशिष्ट सांविधिक अपवाद लागू न हों।   
  • वैकल्पिक शर्तों में सांविधिक प्राधिकरण के अधीन इलेक्ट्रॉनिक निगरानी, पूर्व- विचारण सेवा एजेंसियों के साथ अनिवार्य उपस्थिति/चेक-इन, भौगोलिक प्रतिबंध, तथा नशीली दवाओं के दुरुपयोग हेतु उपचार कार्यक्रम सम्मिलित हैं। न्यायालयों के पास यह विवेकाधिकार सुरक्षित रहता है कि अभियुक्त की उपस्थिति एवं जनसुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये यथोचित रूप से संबंधित शर्तें आरोपित की जाएँ, जबकि पूर्व- विचारण स्वतंत्रता हेतु वित्तीय अवरोधों को समाप्त किया जा सके।  
  • संघीय न्यायालय गैर-मौद्रिक पर्यवेक्षण कार्यक्रमों को लागू करने, जोखिम आकलन करने और छोड़ने की शर्तों के लिये न्यायालय को सिफारिशें प्रदान करने के लिये 1982 के पूर्व-विचारण सेवा अधिनियम का उपयोग करते हैं। ये कार्यक्रम न्यायिक निगरानी बनाए रखते हुए पूर्व-विचारण निरोध को कम करने के लिये सांविधिक अधिदेश के अधीन संचालित होते हैं। 

भारत में जमानत को कौन से सांविधिक प्रावधान विनियमित करते हैं? 

  • भारतीय जमानत प्रणालीभारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अध्याय 35 के अधीन संचालित होती है, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के स्थान पर प्रतिस्थापित हुआ है। सांविधिक ढाँचा जमानतीय और अजमानतीय अपराधों के बीच एक द्विभाजित वर्गीकरण बनाता है, जो छोड़े जाने पर विचार के लिये अलग-अलग प्रक्रियात्मक रास्ते स्थापित करता है। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 479 के अनुसार, जमानतीय अपराधों के अभियुक्तों को उचित सुरक्षा प्रदान करने पर जमानत का पूर्ण अधिकार है। थानों और न्यायालयों के भारसाधक पुलिस अधिकारियों के पास अनुसूचित जमानतीय अपराधों के लिये जमानत देने से इंकार करने का विवेकाधीन अधिकार नहीं है, क्योंकि वे सांविधिक शर्तों के अनुपालन पर तत्काल छोड़ा जाना सुनिश्चित करते हैं। 
  • धारा 480 के अधीन अजमानतीय अपराधों के लिये अपराध की गंभीरता, साक्ष्य की मजबूती और प्रतिवादी के पूर्ववृत्त सहित सांविधिक मानदंडों के आधार पर न्यायिक मूल्यांकन आवश्यक है। न्यायालयों को विवेकाधीन अधिकार का प्रयोग करते समय धारा 480(3) में निर्धारित कारकों पर विचार करना चाहिये, जिनमें साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना, साक्षियों को डराना-धमकाना और भागने का जोखिम सम्मिलित है। 
  • धारा 482 अग्रिम जमानत  का उपबंध करती है, जिससे अजमानतीय अपराधों में गिरफ़्तारी की आशंका वाले व्यक्ति सेशन न्यायालयों या उच्च न्यायालयों से गिरफ़्तारी-पूर्व सुरक्षा प्राप्त कर सकते हैं। यह उपबंध मनमाने ढंग से निरोध में लिये जाने के विरुद्ध सांविधानिक सुरक्षा उपायों को सम्मिलित करता है, जबकि अन्वेषण का अधिकार बरकरार रहता है। 
  • सांविधिक ढाँचे में धारा 187 के अधीन स्वचालित जमानत को अनिवार्य बनाता है, जब अन्वेषण विहित समय सीमा से अधिक हो जाता है, तथा बिना विचारण के अनिश्चितकालीन निरोध को रोकने के लिये "व्यतिक्रम जमानत" सिद्धांत को लागू किया जाता है। 

कार्यान्वयन संबंधी कौन सी चुनौतियाँ भारतीय जमानत विधिशास्त्र को प्रभावित करती हैं? 

  • स्वतंत्रता और सांविधानिक अधिकारों का समर्थन करने वाली विधियों के होते हुए भी, वास्तविक आँकड़े व्यवहार में जमानत प्रक्रिया में बड़ी समस्याओं को दर्शाते हैं। सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि भारतीय जेलों में 76% लोग विचाराधीन कैदी (अपने मामलों के निर्णय का इंतज़ार कर रहे लोग) हैं, जोहुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) मामले में स्थापित बुनियादी सांविधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध है। 
  • जमानत के लिये धन का संदाय करने की आवश्यकता गरीब प्रतिवादियों के लिये असंभव बाधाएँ उत्पन्न करती है, जो मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978)में निर्धारित समान उपचार सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। 
  • विधि आयोग की 268वीं रिपोर्ट (2017) मेंकहा गया है कि जमानत के लिये धन की मांग करना "सांविधानिक मूल्यों के विरुद्ध" है और अनुचित विभेद उत्पन्न करता है। 
  • किसी व्यक्ति को जमानत (गारंटी) दिलाने के लिये जटिल कागजी कार्रवाई और प्रक्रियाएँ जमानत मिलने के बाद भी दीर्घ विलंब का कारण बनता हैं। न्यायालय जमानत देने वाले लोगों से वित्तीय योग्यता साबित करने वाले प्रमाणपत्र, निवास प्रमाण पत्र और पृष्ठभूमि जांच सहित व्यापक दस्तावेज़ों की मांग करता हैं। महाराष्ट्र के आँकड़े बताते हैं कि जमानत मिलने के बावजूद 1,600 से अधिक लोग जेल में हैं क्योंकि वे ये आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर पाते। 
  • उच्चतम न्यायालय ने उन मामलों में हस्तक्षेप किया है जहाँ जमानत मिलने के बाद भी लोग लंबे समय तक जेल में रहते हैं। उसने जेल अधिकारियों को आदेश दिया है कि यदि जमानत मिलने के बाद भी कैदी एक हफ़्ते से अधिक समय तक जेल में बंद रहते हैं, तो वे विधिक सहायता अधिकारियों को सूचित करें। यद्यपि, विधिक सहायता पाने और प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने में बुनियादी समस्याएँ बनी हुई हैं। 

निष्कर्ष 

तुलनात्मक विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि दोनों अधिकारिताओं में सांविधानिक सिद्धांतों एवं व्यावहारिक क्रियान्वयन के मध्य मौलिक तनाव विद्यमान है। जहाँ अमेरिकी कैशलेस बेल सुधार आर्थिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करते हैं, वहीं भारतीय जमानत विधिशास्त्र को सांविधानिक आदेशों के अनुरूप बनाने हेतु व्यापक सांविधिक संशोधन की आवश्यकता है। दोनों प्रणालियों के समक्ष यह अनिवार्य चुनौती है कि वे गरीबी, विधिक जटिलता तथा न्याय तक पहुँच के अंतःसंबंध को इस प्रकार संबोधित करें कि पूर्व-विचारण स्वतंत्रता एक वास्तविक अधिकार बनी रहे, न कि आर्थिक सामर्थ्य पर निर्भर कोई विशेषाधिकार। प्रभावी सुधार के लिये केवल विधायी हस्तक्षेप पर्याप्त नहीं है, अपितु प्रशासनिक प्रक्रियाओं एवं विधिक सहायता तंत्रों का मौलिक पुनर्गठन भी आवश्यक है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि विधि के अधीन समान न्याय की प्रत्याभूति व्यावहारिक रूप से भी साकार हो।