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सांविधानिक विधि

बंगाली प्रवासी श्रमिकों का मामला

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 25-Aug-2025

स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस  

परिचय 

भारत के उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल प्रवासी श्रमिक कल्याण बोर्ड द्वारा दायर एक जनहित याचिका (PIL) को स्वीकार कर लिया है, जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि विभिन्न राज्यों में बंगाली-भाषी प्रवासी श्रमिकों को बिना पर्याप्त आधार के अवैध बांग्लादेशी नागरिक होने के संदेह में मनमाने ढंग से निरुद्ध किया जा रहा है। यह मामला नागरिकता सत्यापन में प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों, विदेशी अधिनियम, 1946 के अधीन सबूत के भार का विपरीत अनुप्रयोग, और भारतीय नागरिकों के विधि के अधीन उचित प्रक्रिया और समान संरक्षण के मौलिक अधिकारों से संबंधित महत्त्वपूर्ण सांविधानिक प्रश्नों को सामने लाता है। 

उठाए गए विवाद्यक क्या हैं 

  • प्राथमिक विधिक विवाद्यक: 
  • पहला विवाद्यक: सामूहिक निरोध की सांविधानिक वैधता:याचिकाकर्त्ताओं ने फरवरी से जुलाई 2024 के मध्य नौ राज्यों में क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा एक हज़ार से अधिक बंगाली-भाषी प्रवासी श्रमिकों के व्यवस्थित निरोध की सांविधानिक वैधता को चुनौती दी है। उनका आरोप है कि इस प्रकार के निरोध भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (आवागमन की स्वतंत्रता का अधिकार), तथा अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करते हैं। 
  • दूसरा विवाद्यक: सबूत के विपरीत भार का अनुप्रयोग:यह मामला विदेशी अधिनियम, 1946 की धारा 9 के अनुप्रयोग को चुनौती देता है, जो विदेशी होने के संदेह वाले व्यक्तियों पर भारतीय नागरिकता साबित करने का भार डालता है, तथा तर्क देता है कि सबूत के विपरीत भार एक अनुचित और भेदभावपूर्ण मानक बनाता है, जो निर्दोषता के बजाय अपराध को प्रभावी रूप से मानता है। 
  • तीसरा विवाद्यक: दस्तावेज़ीकरण आवश्यकताओं की पर्याप्तता:यह मुकदमा भारत के नागरिकता दस्तावेज़ीकरण ढाँचे की मूलभूत अपर्याप्तता को संबोधित करता है, जिसमें आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड और स्थायी खाता संख्या कार्ड सहित सामान्यत: स्वीकार किये जाने वाले पहचान दस्तावेज़ों को न्यायिक रूप से नागरिकता का अपर्याप्त सबूत माना गया है, जिससे हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिये एक असंभव साक्ष्य मानक बन गया है।  
  • चौथा विवाद्यक: 2 मई, 2025 के गृह मंत्रालय के परिपत्र की सांविधानिक वैधता:याचिकाकर्त्ताओं ने "अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों/रोहिंग्याओं" के निर्वासन के लिये गृह मंत्रालय के "संशोधित निर्देशों" को विशेष रूप से चुनौती दी है, और तर्क दिया है कि जिला-स्तरीय विशेष कार्य बलों की स्थापना, अनिवार्य होल्डिंग सेंटर और 30-दिवसीय सत्यापन की समय सीमा, उचित प्रक्रिया आवश्यकताओं का उल्लंघन करती है और न्यायिक निर्धारण के बजाय प्रशासनिक विलंब के आधार पर निर्वासन के लिये एक तंत्र बनाती है। 
  • पाँचवाँ विवाद्यक: निर्वासन प्रक्रियाओं में उचित प्रक्रिया का उल्लंघन:यह मामला स्थापित विधिक प्रक्रियाओं से विचलन को चुनौती देता है, जिसके अधीन विदेशी नागरिकों को पारंपरिक रूप से विदेशी (अधिकरण) आदेश, 1964 के अधीन विदेशी अधिकरणों द्वारा न्यायनिर्णय के अधीन किया जाता था, तथा तर्क दिया गया है कि नई फास्ट-ट्रैक प्रणाली न्यायिक निगरानी और सांविधानिक सुरक्षा उपायों को दरकिनार कर देती है।  

विशिष्ट सांविधानिक चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार) का उल्लंघन:याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि बंगाली भाषी व्यक्तियों को निशाना बनाना भाषाई पहचान के आधार पर अनुचित भेदभाव है और इससे मनमाना वर्गीकरण होता है, जिसका विदेशी नागरिकों की पहचान करने के विधायी उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध नहीं है। 
  • अनुच्छेद 19 (आवागमन की स्वतंत्रता) का उल्लंघन:प्रवासी श्रमिकों को व्यवस्थित रूप से निरोध में रखना कथित रूप से भारत के क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से घूमने और इसके किसी भी भाग में निवास करने और बसने के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जो अनुच्छेद 19 (1) (घ) और (ङ) के अधीन सभी भारतीय नागरिकों का प्रत्याभूत अधिकार है। 
  • अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन:याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि विधि की उचित प्रक्रिया के बिना निरुद्ध करना, सबूत के विपरीत भार तंत्र, और सत्यापन के लिये 30 दिन की प्रशासनिक समय सीमा अनुच्छेद 21 के अधीन स्थापित प्रक्रियात्मक उचित प्रक्रिया आवश्यकताओं का उल्लंघन करती है, जैसा कि मेनका गाँधी बनाम भारत संघ और पश्चात्वर्ती पूर्ण निर्णयों में उच्चतम न्यायालय द्वारा व्याख्या की गई है। 

विदेशी की परिभाषा 

  • विदेशी अधिनियम, 1946 के अनुसार "विदेशी" वह व्यक्ति है जो भारतीय नागरिक नहीं है। 
  • यह अधिनियम सरकार को उनकी गतिविधियों को प्रतिबंधित करने तथा भारत में उनके प्रवास पर शर्तें अधिरोपित करने का अधिकार देता है। 
  • धारा 9 में सबूत का भार विपरीत रूप से निर्धारित किया गया है, जिसके अधीन संदिग्ध विदेशियों को यह साबित करना होगा कि वे भारतीय नागरिक हैं, न कि प्राधिकारी यह साबित करें कि वे विदेशी हैं। 
  • इससे कानून प्रवर्तन एजेंसियों को किसी भी व्यक्ति को विदेशी होने के संदेह पर गिरफ्तार करने का अधिकार मिल जाता है, तथा निरुद्ध किये गए व्यक्ति पर अपनी नागरिकता साबित करने का भार आ जाता है। 

इस मामले पर उच्चतम न्यायालय का आदेश क्या था? 

न्यायालय की कार्रवाई: 

  • जनहित याचिका स्वीकार:उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल प्रवासी श्रमिक कल्याण बोर्ड द्वारा दायर जनहित याचिका स्वीकार कर ली, जिसमें बंगाली भाषी प्रवासी श्रमिकों को निरोध में लिये जाने को चुनौती दी गई थी। 
  • पीठ की संरचना:न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई की और औपचारिक आदेश जारी किये 
  • नोटिस जारी:न्यायालय ने गृह मंत्रालय के माध्यम से भारत संघ और नौ राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया तथा उन्हें प्रति-शपथपत्र और जवाब दाखिल करने का निदेश दिया। 
  • सांविधानिक मान्यता:जनहित याचिका को स्वीकार करके, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह मान्यता दी कि सांविधानिक विधि के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों, विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन के लिये न्यायिक परीक्षण की आवश्यकता है। 
  • तात्कालिकता अभिस्वीकृत:न्यायालय की यह स्वीकृति प्रवासी श्रमिकों की सामूहिक निरोध से संबंधित सांविधानिक विवाद्यकों की तात्कालिकता और गंभीरता को मान्यता प्रदान करती है। 

लागू किया गया विधिक ढाँचा: 

  • सांविधानिक सिद्धांत:यह मामला उचित प्रक्रिया के लिये मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978), समान संरक्षण के लिये ई.पी. रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1974) और अनुच्छेद 21 प्राकृतिक न्याय सिद्धांतों सहित ऐतिहासिक पूर्ण निर्णयों का आह्वान करता है। 
  • सांविधिक चुनौती:न्यायालय विदेशी अधिनियम, 1946 की धारा 9 की सांविधानिक वैधता की जांच करेगा, विशेष रूप से बंगाली भाषाई पृष्ठभूमि वाले भारतीय नागरिकों पर लागू होने वाले इसके विपरीत साक्ष्य के भार संबंधी प्रावधान की। 

निष्कर्ष 

उच्चतम न्यायालय का यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा की अनिवार्यताओं और भारतीय नागरिकों, विशेषकर भाषाई अल्पसंख्यकों और प्रवासी श्रमिकों के सांविधानिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाने में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ का प्रतिनिधित्व करता है। न्यायालय का हस्तक्षेप यह निर्धारित करेगा कि क्या राज्य भाषाई आधार पर और प्रशासनिक सुविधा के आधार पर बड़े पैमाने पर निरोध जारी रख सकता है, या क्या मौलिक अधिकारों के लिये उचित प्रक्रिया और न्यायिक निगरानी का कठोरता से पालन आवश्यक है। यह निर्णय नागरिकता सत्यापन प्रक्रियाओं और राज्य की मनमानी कार्रवाई से सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करेगा, जो पूरे भारत में लाखों असुरक्षित श्रमिकों को प्रभावित कर सकती है। यह मुकदमा अंततः विधि के अधीन समान सुरक्षा के प्रति भारत की सांविधानिक प्रतिबद्धता और इस सिद्धांत की परीक्षा लेता है कि किसी भी नागरिक को उचित विधिक सुरक्षा उपायों के बिना विदेशी होने का दोषी नहीं माना जाना चाहिये