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सिविल कानून
सिविल बनाम आपराधिक विधि
«20-Aug-2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
भारतीय न्याय व्यवस्था विधि की दो मूलभूत शाखाओं पर आधारित है जो अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं और अलग-अलग प्रक्रियाओं का पालन करती हैं। विधिक विवादों से निपटने या न्याय की तलाश करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये सिविल और आपराधिक विधि के बीच अंतर को समझना बेहद आवश्यक है।
सिविल विधि क्या है?
सिविल विधि निजी पक्षकारों - व्यक्तियों, कारबारों या संगठनों - के बीच विवादों के समाधान के लिये विउद्यमान है। इसे एक विधिक ढाँचे के रूप में समझें जो लोगों के बीच उनके दैनिक जीवन में संबंधों और करारों को नियंत्रित करता है।
सिविल विधि की प्रमुख विशेषताएँ:
- उद्देश्य : समाधान प्रदान करना और विवादों का समाधान करना, दण्डित करना नहीं
- इसमें कौन सम्मिलित है : निजी पक्षकार (वादी बनाम प्रतिवादी)
- परिणाम : धनात्मक प्रतिकर (क्षतिपूर्ति) या न्यायालय के आदेश (व्यादेश)
- उदाहरण : संपत्ति विवाद, संविदा भंग, विवाह-विच्छेद की कार्यवाही, ऋण वसूली, व्यक्तिगत क्षति के दावे
सिविल मामले में, यदि कोई व्यक्ति आपके साथ संविदा का उल्लंघन करता है या आपकी संपत्ति को को हानि पहुँचाता है, तो आप प्रतिकर मांगने के लिये वाद दायर करते हैं या न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि वह उन्हें अपने दायित्त्वों को पूरा करने का आदेश दे।
आपराधिक विधि क्या है?
आपराधिक विधि पूरे समाज के विरुद्ध अपराधों से संबंधित है। जब कोई अपराध करता है, तो वह सिर्फ़ किसी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुँचा रहा होता – अपितु वह उन विधियों का उल्लंघन कर रहा होता है जो पूरे समुदाय की रक्षा करती हैं।
आपराधिक विधि की प्रमुख विशेषताएँ:
- उद्देश्य : अपराधियों को दण्डित करना और भविष्य में होने वाले अपराधों को रोकना।
- इसमें कौन सम्मिलित है : राज्य (अभियोजक) बनाम अभियुक्त।
- परिणाम : जुर्माना, कारावास, या गंभीर मामलों में, मृत्युदण्ड।
- उदाहरण : चोरी, कपट, हमला, हत्या, भ्रष्टाचार।
सरकार आपराधिक मामलों में अभियोजन चलाती है क्योंकि अपराध लोक व्यवस्था और सुरक्षा के लिये ख़तरा होते हैं। यदि आप पीड़ित भी हैं, तो भी राज्य के अभियोजक समाज की ओर से मुकदमा लड़ते हैं।
व्यवहार में महत्त्वपूर्ण अंतर
सबूत का भार:
यह शायद सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर है:
- सिविल मामले : आपको अपना मामला "संभावनाओं की अधिकता" के आधार पर साबित करना होगा - अनिवार्य रूप से यह दर्शाना होगा कि आपका संस्करण दूसरे पक्षकार की तुलना में अधिक सत्य है (लगभग 51% निश्चितता के स्तर पर)
- आपराधिक मामले : अभियोजन पक्ष को "उचित संदेह से परे" अपराध साबित करना होगा - यह एक बहुत उच्च मानक है जिसके लिये लगभग निश्चितता की आवश्यकता होती है (लगभग 95%+ निश्चितता)
यह अंतर इसलिये है क्योंकि आपराधिक मामलों में दोषसिद्धि के परिणामस्वरूप कारावास हो सकता है, जबकि सिविल मामलों में सामान्यत: धन या कुछ करने के आदेश सम्मिलित होते हैं।
न्यायिक कार्यवाही की गति:
आम धारणा के विपरीत, दोनों प्रकार के मामलों में काफी समय लग सकता है:
- सिविल वाद में : पूरा होने में औसतन 4.9 वर्ष
- आपराधिक सेशन मामले में : गंभीर अपराधों के लिये औसतन 4.7 वर्ष
- लघु आपराधिक मामले : औसतन 2.5 वर्ष
सिविल मामलों में प्राय: अधिक समय लगता है, क्योंकि पक्षकार न्यायालय के बाहर समझौते की उम्मीद में जानबूझकर कार्यवाही में विलंब कर सकते हैं, जबकि प्राण और दैहिक से जुड़े आपराधिक मामलों पर सामान्यत: अधिक तत्काल ध्यान दिया जाता है।
जब दोनों लागू हों
कुछ परिस्थितियाँ एक साथ सिविल और आपराधिक दोनों कार्यवाही शुरू कर सकती हैं। उदाहरण के लिये:
- कार दुर्घटना : चालक पर उपेक्षा से वाहन चलाने के लिये आपराधिक आरोप लग सकते हैं, साथ ही क्षतिपूर्ति के लिये सिविल वाद भी चलाया जा सकता है।
- व्यावसायिक कपट : कपट के लिये आपराधिक अभियोजन जबकि संविदा भंग और धन की वसूली के लिये सिविल वाद।
- हमला : हिंसक कृत्य के लिये आपराधिक मामला और चिकित्सा व्यय एवं पीड़ा के लिये सिविल वाद।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप
उच्चतम न्यायालय ने सिविल विवादों के अपराधीकरण के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाया है तथा हाल ही में दो महत्त्वपूर्ण मामलों में उच्च न्यायालयों को कड़ी फटकार लगाई है:
- राजस्थान प्लाईवुड मामला (अगस्त 2025):
- न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने राजस्थान उच्च न्यायालय के उस आदेश को अपास्त कर दिया जिसमें एक प्लाईवुड खेप की बकाया राशि से जुड़े एक मामले में एक दंपति को गिरफ्तारी से पहले ज़मानत देने से इंकार कर दिया गया था। न्यायमूर्ति पारदीवाला ने स्पष्ट रूप से कहा कि "एक बार विक्रय का संव्यवहार हो जाने के बाद आपराधिक न्यासभंग का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह विधि की एक स्थापित स्थिति है।"
- यह मामला एक सीधे-सादे वाणिज्यिक संव्यवहार से जुड़ा था, जहाँ डिलीवरी के बाद संदाय संबंधी विवाद उत्पन्न हो गए थे। उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किसी वाणिज्यिक करार का केवल पालन न करना छल या आपराधिक न्यासभंग नहीं माना जाता - यह एक सिविल संविदा विवाद है जिसके लिये सिविल उपचार की आवश्यकता होती है।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय की फटकार (अगस्त 2025):
- एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए, उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को उनके आपराधिक रोस्टर से हटा दिया, क्योंकि उन्होंने मूलतः एक व्यावसायिक संव्यवहार विवाद में आपराधिक कार्यवाही की अनुमति दी थी। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के तर्क को "चौंकाने वाला" और "न्याय का मज़ाक" करार दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने शुरू में निदेश दिया था कि न्यायाधीश को कभी भी आपराधिक मामले नहीं सौंपे जाएंगे, लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश के हस्तक्षेप के बाद, 8 अगस्त को इस निदेश को वापस ले लिया गया, यद्यपि उचित विधिक वर्गीकरण के बारे में मजबूत संदेश बना रहा।
स्थापित प्रमुख विधिक सिद्धांत
ये हस्तक्षेप कई महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित करते हैं:
- वाणिज्यिक संव्यवहार नियम : एक बार वैध विक्रय संव्यवहार संपन्न हो जाता है, तो उसके उपरांत उत्पन्न भुगतान संबंधी विवाद सिविल प्रकृति के होते हैं, न कि आपराधिक।।
- आपराधिक आशय की आवश्यकता : आपराधिक आरोप लागू होने के लिये, रिश्ते की शुरुआत से ही कपटपूर्ण आशय का सबूत होना चाहिये।
- न्यायिक जवाबदेही : आपराधिक विधि के दुरुपयोग को रोकने के लिये न्यायालयों को सिविल और आपराधिक मामलों के बीच उचित रूप से अंतर करना चाहिये।
उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि संविदा का भंग छल से मौलिक रूप से भिन्न है। व्यावसायिक मतभेद, भुगतान में विलंब, या संविदा संबंधी दायित्त्वों को पूरा करने में असमर्थता, सिर्फ़ इसलिये कि एक पक्ष पीड़ित है, स्वतः ही आपराधिक मामला नहीं बन जाते।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय के हालिया हस्तक्षेप इस बात की एक महत्त्वपूर्ण याद दिलाते हैं कि दीवानी विवादों को सुलझाने के लिये आपराधिक विधि का प्रयोग नहीं किया जा सकता। व्यावसायिक मतभेद और संविदा भंग, सिविल न्यायालयों में ही निपटाए जाने चाहिये, जब तक कि शुरू से ही स्पष्ट आपराधिक आशय न हो। यह अंतर हमारी न्याय व्यवस्था की अखंडता की रक्षा करता है और यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों और व्यवसायों पर, मूलतः वाणिज्यिक विवादों के लिये, आपराधिक अभियोजन न चलाया जाए। एक निष्पक्ष और प्रभावी न्याय व्यवस्था के लिये इस मूलभूत सिद्धांत को समझना और उसका सम्मान करना आवश्यक है।