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अंतर्राष्ट्रीय कानून

भारत में प्रत्यर्पण विधि

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 11-Sep-2025

स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस 

परिचय 

प्रत्यर्पण अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्याय सहयोग की आधारशिला है, जो राज्यों को यह सुनिश्चित करने में सक्षम बनाता है कि भगोड़े अपराधी केवल सीमा पार करके अभियोजन से बच नहीं सकते। बेल्जियम में हीरा व्यापारी मेहुल चोकसी की हालिया गिरफ्तारी ने भारत के प्रत्यर्पण ढाँचे को विशेष ध्यान में ला दिया है, जिससे सीमा पार विधिक सहयोग की संभावनाओं और चुनौतियों, दोनों पर प्रकाश पड़ा है। चूँकि भारत देश छोड़कर भागे आर्थिक अपराधियों को वापस लाने के अपने प्रयासों को जारी रखे हुए है, ऐसे हाई-प्रोफाइल मामलों में सम्मिलित जटिलताओं को समझने के लिये प्रत्यर्पण की विधिक पेचीदगियों को समझना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।  

भारत में प्रत्यर्पण को नियंत्रित करने वाला विधिक ढाँचा क्या है? 

  • भारत का प्रत्यर्पण ढाँचा मुख्य रूप सेप्रत्यर्पण अधिनियम, 1962 द्वारा शासित होता है, जो भगोड़े अपराधियों के प्रत्यर्पण का अनुरोध करने तथा उन्हें आत्मसमर्पण कराने, दोनों के लिये व्यापक प्रावधान स्थापित करता है। 
  • अधिनियम की धारा 34 के अधीन भारत को अतिरिक्त-प्रादेशिक अधिकारिता प्रदान की गई है, जिसका अर्थ है कि विदेशी राज्यों में व्यक्तियों द्वारा किये गए अपराधों को भारत में किया गया माना जाएगा, जिससे उनके वापस लौटने पर उन पर अभियोजन चलाया जा सकेगा। 
  • धारा 2()के अनुसारप्रत्यर्पण अपराध इस बात पर निर्भर करता है कि विदेशी राज्य संधि भागीदार है या नहीं - संधि राज्यों के लिये, यह द्विपक्षीय करारों में सूचीबद्ध अपराधों को संदर्भित करता है, जबकि गैर-संधि राज्यों के लिये, यह कम से कम एक वर्ष के कारावास से दण्डनीय अपराधों की बात करता है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्पण को इस प्रकार परिभाषित किया है, "एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य को उन व्यक्तियों को सौंपना जिनके साथ वह उन अपराधों के लिये व्यवहार करना चाहता है जिनके लिये वे अभियुक्त या दोषसिद्ध ठहराए गए हैं।" 
  • वर्तमान में, भारत 48 देशों के साथ प्रत्यर्पण संधियाँ और 12 अन्य देशों के साथ प्रत्यर्पण व्यवस्थाएँ रखता है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक सहयोग के लिये एक मज़बूत नेटवर्क का निर्माण होता है। ये संधियाँ पारंपरिक रूप से द्विपक्षीय प्रकृति की होती हैं और इनका उपयोग उन व्यक्तियों के लिये किया जा सकता है जो अन्वेषण के दायरे में हैं, जिन पर विचारण चल रहा है, या जिन्हें पहले ही दोषसिद्ध ठहराया जा चुका है। 
  • विधिक ढाँचा तीन मूलभूत सिद्धांतों पर काम करता है: 
    • दोहरा अपराध (यह कृत्य दोनों अधिकारिताओं में अपराध होना चाहिये), विशिष्टता का सिद्धांत (अभियोजन उस विशिष्ट अपराध तक सीमित होना चाहिये जिसके लिये प्रत्यर्पण की मांग की गई हो) और राजनीतिक अपवाद (यदि अनुरोध राजनीतिक रूप से प्रेरित प्रतीत होता है तो इंकार)। 
    • ये सिद्धांत सुनिश्चित करते हैं कि प्रत्यर्पण न्याय प्रदान करता है और साथ ही व्यक्तियों को प्रक्रिया के संभावित दुरुपयोग से बचाता है 

मेहुल चोकसी प्रत्यर्पण मामले की पृष्ठभूमि क्या है? 

  • 65 वर्षीय हीरा व्यापारी और भारत के सबसे बड़े बैंकिंग घोटाले के मुख्य अभियुक्त मेहुल चोकसी पर पंजाब नेशनल बैंक से जुड़े 13,500 करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप है। 
  • अपने गीतांजलि समूह के माध्यम से काम करते हुए, चोकसी ने अपने भतीजे नीरव मोदी के साथ मिलकर 2014 और 2017 के बीच मुंबई में PNB की ब्रैडी हाउस शाखा से कथित तौर पर कपटपूर्ण वाले समझौता पत्र (Letters of Understanding -LoUs) प्राप्त किये 
  • इन LoU का उपयोग विदेशी बैंकों से ऋण प्राप्त करने के लिये किया गया, जिससे धन का निरंतर प्रवाह बना रहा, जबकि बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से भारी मात्रा में ऋण एकत्रित हो गया। 
  • जब PNB को इन अनियमितताओं का पता चला, तब तक मेहुल चोकसी और नीरव मोदी दोनों भारत से भाग चुके थे, जिससे बैंक को 13,500 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हो चुका था, जिसमें अकेले चोकसी पर 6,000 करोड़ रुपए से अधिक का कपट करने का आरोप था। 
  • मेहुल चोकसी कैंसर के इलाज के लिये बेल्जियम जाने से पहले 2018 से एंटीगुआ और बारबुडा में एक नागरिक के रूप में रह रहा था, जहाँ उसेभारत के प्रत्यर्पण अनुरोध के बाद 13 अप्रैल 2025 को एंटवर्प में गिरफ्तार कर लिया गया था।  
  • यह मामला मेहुल चोकसी की डोमिनिका में 2021 की विवादास्पद घटना से जटिल हो गया है, जहाँ कथित तौर पर भारतीय अभिकर्त्ताओं द्वारा उसका व्यपहरण कर लिया गया था, और उसके बाद उसकी एंटीगुआ की नागरिकता ले ली गई थी। 
  • उनकी विधिक टीम द्वारा उनकी चिकित्सीय स्थिति, संभावित मानवाधिकार उल्लंघनों और भारत में जेल की स्थितियों के बारे में चिंताओं के आधार पर प्रत्यर्पण को चुनौती दिये जाने की संभावना है, जिससे यह एक जटिल विधिक लड़ाई बन जाएगी जो वर्षों तक चल सकती है। 

जब कोई संधि विद्यमान नहीं है तो प्रत्यर्पण कैसे काम करता है? 

  • औपचारिक प्रत्यर्पण संधि का अभाव स्वतः ही प्रत्यर्पण को नहीं रोकता है, यद्यपि यह प्रक्रिया को काफी जटिल बना देता है तथा परिणामों को कम पूर्वानुमानित बना देता है। 
  • प्रत्यर्पण अधिनियम, 1962 की धारा 3(4)के अधीन , भारत उन अंतर्राष्ट्रीय अभिसमयों को प्रत्यर्पण संधियों के रूप में मान सकता है, जिनमें दोनों देश पक्षकार हैं, बशर्ते कि वे सुसंगत अपराधों की बात करते हों। 
    • यह उपबंध भारत को प्रत्यर्पण अनुरोधों के आधार के रूप में भ्रष्टाचार, संगठित अपराध या आतंकवाद पर बहुपक्षीय करारों का लाभ उठाने की अनुमति देता है। 
  • कुछ राज्य अपने घरेलू विधियों के अधीन औपचारिक संधियों के बिना भी व्यक्तियों को प्रत्यर्पित कर सकते हैं, अक्सर पारस्परिकता के सिद्धांत को लागू करते हुए - मूलतः इस समझ के साथ प्रत्यर्पण पर सहमत होते हैं कि विपरीत परिस्थितियों में भी इसी प्रकार का सहयोग प्रदान किया जाएगा। 
    • विधिक अनिश्चितताओं और संभावित कूटनीतिक जटिलताओं के कारण ऐसे मामले दुर्लभ ही रहते हैं। 
  • सामान्यत: जिन देशों के साथ प्रत्यर्पण संधियाँ नहीं हैं, वे वैकल्पिक तरीकों का सहारा लेते हैं, जैसे कि आप्रवासन विधियों के अधीन निर्वासन या मेज़बान देश में विचारण चलाना, यदि उनकी विधिक व्यवस्था इसकी अनुमति देती है। ये विकल्प, उपलब्ध होते हुए भी, अक्सर औपचारिक प्रत्यर्पण प्रक्रियाओं की तुलना में कम प्रभावी साबित होते हैं और न्याय के हितों की पूरी तरह से पूर्ति नहीं कर पाते, खासकर आर्थिक अपराधियों से जुड़े जटिल वित्तीय अपराधों के मामलों में। 

प्रत्यर्पण अनुरोध कब अस्वीकार किया जा सकता है? 

  • प्रत्यर्पण अनुरोधों को कई सुस्थापित आधारों पर वैध रूप से अस्वीकार किया जा सकता है जो राज्य की संप्रभुता और व्यक्तिगत अधिकारों, दोनों की रक्षा करते हैं। राजनीतिक और सैन्य अपराध प्राथमिक अपवाद हैं, क्योंकि प्रत्यर्पण को पारंपरिक रूप से राजनीतिक विवादों के बजाय सामान्य अपराधों से निपटने के एक साधन के रूप में देखा जाता है। 
  • यदि अनुरोधकर्त्ता देश की विधि के अधीन सीमाओं की अवधि समाप्त हो गई है, तो सामान्यत: प्रत्यर्पण को अस्वीकार कर दिया जाएगा। 
  • प्रक्रियागत बाधाएँ भी विद्यमान हैं - यदि कोई व्यक्ति पहले से ही समान या भिन्न अपराधों के लिये भारत में विचारण का सामना कर रहा है या दण्ड भोग रहा है, तो प्रत्यर्पण से इंकार किया जा सकता है या उसे विलंबित किया जा सकता है। मानवाधिकारों की चिंताएँ इंकार का एक और महत्त्वपूर्ण आधार हैं, खासकर जब अनुरोध करने वाले राज्य में यातना, अमानवीय व्यवहार, या कारागार की बेहद अपर्याप्त स्थितियों के बारे में विश्वसनीय आशंकाएँ हों। 
  • न्यायालय प्रत्यर्पण से इंकार भी कर सकते हैं यदि वे यह निर्धारित करते हैं कि अनुरोध वास्तविक आपराधिक आचरण के बजाय जाति, धर्म, राष्ट्रीयता या राजनीतिक विचारों के आधार पर किसी व्यक्ति को लक्षित करता है। 
  • विशिष्टता के सिद्धांत के लिये यह आश्वासन आवश्यक है कि भगोड़े पर केवल प्रत्यर्पण अनुरोध में उल्लिखित विशिष्ट अपराध के लिये ही विचारण चलाया जाएगा, तथा ऐसा आश्वासन न दिये जाने पर प्रत्यर्पण अस्वीकार किया जा सकता है। 

निष्कर्ष 

मेहुल चोकसी का मामला अंतरराष्ट्रीय आयाम वाले आर्थिक अपराधों से निपटने में भारत के प्रत्यर्पण ढाँचे की क्षमता और सीमाओं, दोनों का उदाहरण है। यद्यपि भारत ने व्यापक विधिक प्रावधान विकसित किये हैं और व्यापक संधि नेटवर्क स्थापित किये हैं, फिर भी लंबी न्यायिक प्रक्रियाएँ, मानवाधिकार संबंधी विचार और कूटनीतिक जटिलताएँ जैसी व्यावहारिक चुनौतियाँ सफल प्रत्यर्पणों को प्रभावित करती रहती हैं। यह मामला व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने वाली विधिक सुरक्षा उपायों को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तंत्रों को निरंतर मज़बूत करने की आवश्यकता पर बल देता है। जैसे-जैसे भारत विदेश भागे आर्थिक अपराधियों पर कार्रवाई करता है, उसके प्रत्यर्पण विधिशास्त्र का विकास अंतरराष्ट्रीय वित्तीय अपराधों से प्रभावी ढंग से निपटने की देश की क्षमता को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करेगा।