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सांविधानिक विधि
उच्च न्यायालय ने सहयोग पोर्टल की वैधता बरकरार रखी
« »26-Sep-2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
एक्स. कॉर्पोरेशन बनाम भारत संघ मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय डिजिटल मध्यस्थों के संदर्भ में सरकारी सामग्री विनियमन तंत्र की सांविधानिक वैधता पर एक मौलिक निर्णय है। यह निर्णय साइबरस्पेस में मौलिक अधिकारों, सांविधिक सुरक्षा प्रावधानों और प्रशासनिक नियामक शक्तियों के अंतर्संबंध को नियंत्रित करने वाले विधिशास्त्रीय ढाँचे को स्पष्ट करता है। यह निर्णय डिजिटल व्यवस्था और लोक सुरक्षा बनाए रखने में अनुच्छेद 19(1)(क) की स्वतंत्रताओं और वैध सरकारी हितों के बीच संतुलन स्थापित करने के न्यायिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है।
एक्स. क्रॉप बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में कौन से सांविधानिक और सांविधिक प्रश्न उठे?
- एक्स. कॉर्पोरेशन ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन केंद्र सरकार के 'सहयोग' पोर्टल की सांविधानिक शक्तियों को चुनौती देते हुए रिट कार्यवाही शुरू की। याचिकाकर्त्ता का मुख्य तर्क यह था कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79(3)(ख) केंद्र सरकार के अधिकारियों को सूचना अवरुद्ध करने के आदेश जारी करने का अधिकार नहीं देती है, और यह आदेश केवल सूचना प्रौद्योगिकी (जनता द्वारा सूचना तक पहुँच अवरुद्ध करने की प्रक्रिया और सुरक्षा उपाय) नियम, 2009 के साथ धारा 69क के अधीन अनिवार्य प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के माध्यम से ही प्रभावी हो सकता है।
- याचिकाकर्त्ता ने यह कहते हुए घोषणात्मक अनुतोष की मांग कि धारा 79(3)(ख) के अधीन मध्यस्थों को उपयोगकर्त्ता-जनित सामग्री की जांच करने और उसे हटाने के लिये बाध्य करना श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय का उल्लंघन है। एक्स. कॉर्पोरेशन ने तर्क दिया कि प्रतिवादी एक छूट प्रावधान का उपयोग एक सशक्त अधिनियम के रूप में कर रहा था, जिससे धारा 69क में निहित कठोर प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को दरकिनार किया जा रहा था।
- रिट याचिका में विभिन्न मंत्रालयों को धारा 69क के अनुसार जारी किये गए 'सूचना अवरोधन आदेशों' के संबंध में याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध बलपूर्वक या पूर्वाग्रहपूर्ण कार्रवाई करने से रोकने के लिये परमादेश की मांग की गई, और आरोपित सहयोग पोर्टल में गैर-भागीदारी के लिये प्रतिकूल परिणामों से अंतरिम संरक्षण की मांग की गई।
विद्वान एकल न्यायाधीश ने सांविधानिक प्रश्नों पर किस प्रकार विचार किया?
- न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना का निर्णय एक आदर्श न्यायिक दृष्टिकोण को दर्शाता है जो स्वतंत्रतावादी निरंकुशता की तुलना में नियामक आवश्यकता पर बल देता है। माननीय न्यायाधीश ने कहा कि "सोशल मीडिया, विचारों के आधुनिक रंगमंच के रूप में, अराजक स्वतंत्रता की स्थिति में नहीं छोड़ा जा सकता," और इस सांविधानिक आधार को स्थापित करता है कि डिजिटल संवाद का विनियमन एक वैध राज्य हित है।
- विद्वान न्यायाधीश ने सांविधानिक रूप से संरक्षित भाषण और विधिविरुद्ध सामग्री के बीच स्पष्ट रूप से अंतर करते हुए कहा कि "स्वतंत्रता की आड़ में अनियंत्रित भाषण अराजकता की अनुज्ञप्ति बन जाता है।" न्यायिक तर्क इस बात पर बल देते हैं कि "इसके विपरीत, विनियमित भाषण स्वतंत्रता और व्यवस्था, दोनों को सुरक्षित रखता है, जो लोकतंत्र के दो स्तंभ हैं जिन पर उसे खड़ा होना चाहिये।"
- उल्लेखनीय रूप से, न्यायालय ने अमेरिकी विधिशास्त्रीय अवधारणाओं को भारतीय सांविधानिक विधि में प्रत्यारोपित करने को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि "अमेरिकी न्यायिक विचार को भारतीय सांविधानिक विचार की धरती में प्रत्यारोपित नहीं किया जा सकता।" माननीय न्यायाधीश ने रेनो बनाम अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन (1997) के पश्चात् संयुक्त राज्य अमेरिका में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी विधिशास्त्र के विकास का उल्लेख किया।
- निर्णय में विशेष रूप से लिंग आधारित अपराधों के संबंध में विषय-वस्तु विनियमन की अनिवार्यता पर बल दिया गया, तथा कहा गया कि विनियमन "आवश्यक है, विशेषकर महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामलों में, क्योंकि ऐसा न करने पर संविधान में प्रदत्त नागरिक की गरिमा के अधिकार का हनन होता है।"
कौन से सांविधिक प्रावधान और सांविधानिक अनुच्छेद निर्णायक थे?
- इस निर्णय में मुख्य रूप से सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79 का निर्वचन सम्मिलित था, जो मध्यस्थों को सशर्त सुरक्षित बंदरगाह संरक्षण प्रदान करता है। धारा 79(3)(ख) में स्पष्ट रूप से यह उपबंध है कि मध्यस्थ विधिविरुद्ध जानकारी की "वास्तविक जानकारी" प्राप्त करने और उस तक "शीघ्रता से पहुँच हटाने या अक्षम करने" में असफल रहने पर अपनी प्रतिरक्षा खो देते हैं।
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69क, सामग्री अवरोधन के लिये एक विशिष्ट नियामक ढाँचा स्थापित करती है, जिसमें समिति गठन, सुनवाई का अवसर और तर्कसंगत लिखित आदेशों सहित विशिष्ट प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का पालन अनिवार्य है। याचिकाकर्त्ता ने असफल तर्क दिया कि यह धारा सरकारी सामग्री प्रतिबंध के लिये विशिष्ट तंत्र प्रदान करती है।
- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रत्याभूत करने वाले अनुच्छेद 19(1)(क) की, युक्तिसंगत निर्बंधनों की अनुमति देने वाले अनुच्छेद 19(2) के साथ-साथ जांच की गई। महत्त्वपूर्ण रूप से, न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 19 "केवल नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों का चार्टर" है, जिससे विदेशी कॉर्पोरेट याचिकाकर्त्ता को अधिकारिता से वंचित कर दिया गया।
- निर्णय में सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 को उनके 2011 के पूर्ववर्तियों से अलग करते हुए कहा गया कि ये "अपनी अवधारणा में नए और अपने डिजाइन में विशिष्ट हैं, अपनी स्वयं की निर्वचनात्मक प्रवृत्ति की मांग करते हैं, जो पूर्व व्यवस्था को संबोधित करने वाले पूर्व निर्णयों से निदेशित नहीं हैं।"
- न्यायालय ने धारा 79(3)(ख) के साथ 2021 के नियमों के नियम 3(ख) की भी जांच की, और पाया कि उनके संचालन में संघर्ष के बजाय सांविधानिक सामंजस्य है।
सहयोग पोर्टल का विधिक ढाँचा और परिचालन तंत्र क्या है?
- सहयोग पोर्टल, केंद्रीय गृह मंत्रालय के तत्वावधान में भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र द्वारा विकसित एक डिजिटल प्रशासनिक तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है। अक्टूबर 2024 में परिचालनात्मक रूप से लॉन्च होने वाला यह पोर्टल, दूरसंचार ऑपरेटरों, इंटरनेट सेवा प्रदाताओं, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म और वेब-होस्टिंग संस्थाओं सहित डिजिटल मध्यस्थों को धारा 79(3)(ख) के अधीन सूचना प्रेषित करने के लिये एक केंद्रीकृत माध्यम के रूप में कार्य करता है।
- पोर्टल का विधिक आधार सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 79(3)(ख) और 2021 के नियमों के नियम 3(ख) पर आधारित है, जो सरकारी अभिकरणों के लिये विधिविरुद्ध सामग्री के बारे में संवाद करने हेतु एक स्वचालित प्रणाली के रूप में कार्य करता है। यह तंत्र "उपयुक्त सरकार" या उसकी अभिकरणों को विधिविरुद्ध क्रियाकलापों के लिये उपयोग की जा रही सूचना, डेटा या संसूचना लिंक तक पहुँच को हटाने या अक्षम करने में सक्षम बनाता है।
- सांख्यिकीय आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल 2025 तक सभी राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और सात केंद्रीय अभिकरणों के 65 ऑनलाइन मध्यस्थों और नोडल अधिकारियों को पोर्टल में एकीकृत किया गया था। अक्टूबर 2024 और अप्रैल 2025 के बीच, सहयोग के माध्यम से गूगल, यूट्यूब, अमेज़न और माइक्रोसॉफ्ट सहित प्रमुख डिजिटल प्लेटफार्मों को 130 सामग्री हटाने के नोटिस जारी किये गए थे।
- न्यायालय ने सहयोग को "सांविधानिक अभिशाप से कोसों दूर" बताया, अपितु " सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 79(3)(ख) और 2021 के नियमों के नियम 3(ख) के अधीन परिकल्पित जनहित का एक साधन" बताया। माननीय न्यायाधीश ने इसे "नागरिक और मध्यस्थ के बीच सहयोग का एक प्रकाशस्तंभ - एक ऐसा तंत्र जिसके माध्यम से राज्य साइबर अपराध के बढ़ते खतरे से निपटने का प्रयास करता है" बताया।
निष्कर्ष
कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक्स. कॉर्पोरेशन बनाम भारत संघ मामले में दिये गए निर्णय में यह स्थापित किया गया है कि विदेशी डिजिटल प्लेटफॉर्म भारत के नियामक तंत्र को चुनौती देने के लिये सांविधानिक सुरक्षा का सहारा नहीं ले सकते, साथ ही यह भी कहा गया है कि सुरक्षित बंदरगाह प्रतिरक्षा (safe harbor immunity) वैध सरकारी निदेशों के अनुपालन पर आधारित एक सशर्त सांविधिक विशेषाधिकार है। यह पूर्व निर्णय, सामग्री विनियमन को एक वैध राज्य हित के रूप में मान्यता देकर और भारतीय अधिकारिता में कार्यरत मध्यस्थों के लिये स्पष्ट जवाबदेही मानक स्थापित करके भारत के डिजिटल शासन ढाँचे को मजबूत करता है।