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आपराधिक कानून

मानहानि को अपराधमुक्त करने पर उच्चतम न्यायालय का रुख

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 25-Sep-2025

स्रोत:  इंडियन एक्सप्रेस 

परिचय 

मानहानि को एक आपराधिक अपराध बना रहना चाहिये या नहींयह प्रश्न भारत के विधिक परिदृश्य में निरंतर गंभीर बहस का विषय बना हुआ है। मानहानि विधि व्यक्तिगत ख्याति की रक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण के बीच एक नाज़ुक संतुलन का प्रतिनिधित्व करती हैं। दो मौलिक अधिकार अक्सर तनाव में रहते हैं। उच्चतम न्यायालय की हालिया टिप्पणियों नेजिसमें यह सुझाव दिया गया है कि "इस सब को अपराधमुक्त करने का समय आ गया है"औपनिवेशिक काल के इस अपराध और आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा को फिर से हवा दे दी है।  

उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान विवाद्यक क्या है? 

  • 22 सितंबर, 2025 को न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की उच्चतम न्यायालय की न्यायपीठ ने एक आपराधिक मानहानि मामले की सुनवाई करते हुए महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। 
  • JNU के एक प्रोफेसर ने द वायर के 2016 (The Wire's 2016 article) के लेख के विरुद्ध मामला दर्ज कराया था। इस मामले में आरोप लगाया गया है कि प्रकाशन ने प्रोफेसर को एक डोजियर तैयार करने से जोड़ा था। 
  • विश्वविद्यालय पर प्रस्तुत अभिलेख (dossier) में "सेक्स रैकेट" चलाने संचालित करने तथा पृथकतावादी उद्देश्यों का समर्थन करने का आरोप लगाया गया था। न्यायालय की मानहानि को अपराधमुक्त करने संबंधी टिप्पणी ने पुनः इस विषय को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।  

मानहानि को अपराधमुक्त करने के बारे में न्यायालय ने क्या टिप्पणी की? 

  • उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी, "अब समय आ गया है कि इन सबको अपराधमुक्त कर दिया जाए", 2016 में स्थापित विद्यमान विधिक ढाँचे को प्रत्यक्षत: चुनौती देती है। 
  • यह वक्तव्य न्यायिक पुनर्विचार का सुझाव देता है कि क्या समकालीन भारत में आपराधिक मानहानि वैध उद्देश्य की पूर्ति करती है। 
  • ऐसा प्रतीत होता है कि पीठ मानहानि को केवल एक सिविल अपराध के बजाय एक आपराधिक अपराध मानने की आवश्यकता पर प्रश्न उठा रही है। यह संभवतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ख्याति की रक्षा के बीच संतुलन बनाने की न्यायिक सोच में परिवर्तन का संकेत देता है। 

मानहानि क्या है और मानहानि के प्रकार? 

  • मानहानि में मूलतः ऐसे कथन प्रकाशित करना सम्मिलित है जो किसी अन्य व्यक्ति की ख्याति को अपहानि कारित करे 
  • ये कथन व्यक्तियों को घृणाउपहास या अवमानना ​​का शिकार बनाते हैं। भारतीय विधि मानहानि के दो अलग-अलग तरीकों को मान्यता देती हैदीवानी और आपराधिक 
  • सिविल मानहानि में ख्याति को हुई क्षति को निजी दोष माना जाता है जिसके लिये मौद्रिक क्षतिपूर्ति की आवश्यकता होती है। 
  • आपराधिक मानहानि को एक लोक अपराध माना जाता है जिसके लिये जुर्माना या कारावास के माध्यम से निवारक दण्ड का प्रावधान है। 
  • यह दोहरा ढाँचा विधि की इस मान्यता को दर्शाता है कि मानहानिकारक कथन व्यक्तिगत हितों और व्यापक सामाजिक सद्भाव दोनों को अपहानि कारित कर सकते हैं। 

मानहानि के तत्त्व और विधिक उपबंध क्या हैं? 

  • भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 356 मानहानि को व्यापक रूप से परिभाषित करती है। 
  • इस उपबंध में कई प्रमुख तत्त्व सम्मिलित हैं: कथन की प्रकृति अपमानजनक होनी चाहियेकिसी पहचान योग्य व्यक्ति या समूह के विरुद्ध होनी चाहियेऔर पर-पक्षकार को बताई जानी चाहिये 
  • सिविल मामलों के विपरीतआपराधिक मानहानि के लिये या तो अपहानि कारित करने के आशय का सबूत या फिर अपहानि होने की संभावना के ज्ञान की आवश्यकता होती है।  
  • यह विधि अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों की बात करती हैजिसमें बोले गए शब्दलिखित कथनसंकेत और दृश्यरूपण प्रतिनिधित्व सम्मिलित हैं। 
  • यह अपराध मृत व्यक्तियोंकंपनियों और संगठनों के बारे में दिये गए कथनों तक फैला हुआ है। इसमें व्यंग्यात्मक या वैकल्पिक अभिव्यक्तियाँ भी सम्मिलित हैं। 

मानहानि के अपवाद क्या हैं? 

  • विधि में दस विशिष्ट अपवाद दिये गए हैंजहाँ कथन मानहानि नहीं माना जाएगा। 
  • इनमें लोक कल्याण के लिये दिये गए सत्य कथन सम्मिलित हैं। लोक सेवकों के आधिकारिक आचरण के बारे में सद्भावनापूर्ण राय सुरक्षित है। 
  • लोक प्रदर्शनों की निष्पक्ष आलोचना और न्यायालय की कार्यवाही की पर्याप्त रूप से सटीक रिपोर्ट की अनुमति है 
  • अन्य अपवादों में वैध प्राधिकारी द्वारा निंदाउचित प्राधिकारियों के प्रति सद्भावनापूर्ण आरोपतथा सुरक्षा उद्देश्यों के लिये दी गई चेतावनियाँ सम्मिलित हैं। 
  • इन अपवादों के लिये "सद्भावना" अर्थात् बिना किसी द्वेष के ईमानदार आशय की की आवश्यकता होती है। इन्हें लोक लाभ या वैध प्राधिकार जैसे वैध उद्देश्यों की पूर्ति के लिये होना चाहिये 

न्यायालय का पूर्व निर्णय क्या था? 

  • ब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ (2016) का ऐतिहासिक निर्णय वर्तमान में आपराधिक मानहानि पर सांविधानिक स्थिति स्थापित करने वाला प्रमुख मामला है 
  • दो न्यायाधीशों की पीठ ने उन चुनौतियों को खारिज कर दिया जिनमें कहा गया था कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 (ब भारत न्याय संहिता की धारा 356) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 19(1)(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रत्याभूत करता हैजबकि अनुच्छेद 19(2) मानहानि सहित युक्तियुक्त निर्बंधनों की अनुमति देता है।  
  • इस निर्णय ने ख्याति को अनुच्छेद 21 के प्राण और स्वतंत्रता के अधिकार से जोड़ा। इसने ख्याति को होने वाली अपहानि को व्यक्तिगत गरिमा और सामाजिक समरसतादोनों पर पड़ने वाला प्रभाव माना। 
  • न्यायालय ने "चिंताजनक प्रभाव" वाली दलील को खारिज कर दिया। उसने कहा कि आपराधिक दण्ड उचित और गरिमा तथा बंधुत्व के सांविधानिक मूल्यों की रक्षा के लिये आवश्यक हैं। 

मानहानि को अपराधमुक्त कैसे किया जा सकता है? 

  • मानहानि को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिये बड़े पैमाने पर विधिक और प्रक्रियात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता होगी। 2016 का सुब्रमण्यम स्वामी का निर्णय अभी भी बाध्यकारी है। 
  • वर्तमान विधि के अधीन अभियोजित व्यक्ति द्वारा एक नई सांविधानिक चुनौती दायर की जानी चाहिये 
  • दो न्यायाधीशों की पीठ ने मूल निर्णय दिया था। केवल एक बड़ी पीठ ही इसे पलट सकती है। 
  • इस मामले को अनुच्छेद 145(3) के अधीन कम से कम पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ गठित करने के लिये भारत के मुख्य न्यायाधीश को संदर्भित करने की आवश्यकता होगी। 
  • इसमें सांविधानिक निर्वचन के गंभीर प्रश्न सम्मिलित हैं। किसी भी सफल चुनौती के लिये यह साबित करना आवश्यक होगा कि आपराधिक दण्ड सिविल उपचारों की तुलना में अत्यधिकअनुचित या अनुपातहीन हैं। 

निष्कर्ष 

उच्चतम न्यायालय की हालिया टिप्पणियां भारत के मानहानि विधिशास्त्र में एक संभावित निर्णायक मोड़ का प्रतिनिधित्व करती हैं। 2016 के पूर्व निर्णय ने आपराधिक मानहानि की सांविधानिक वैधता स्थापित की। विकसित होती न्यायिक सोच इस औपनिवेशिक युग के अपराध पर पुनर्विचार की संभावना का संकेत देती है। एक लोकतांत्रिक समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ख्याति की रक्षा के बीच संतुलन बनाना मूलभूत चुनौती बनी हुई है। क्या सिविल उपचारों से परे आपराधिक दण्ड आवश्यक हैंइस पर विधिक विद्वानोंपत्रकारों और सिविल समाज के अधिवक्ताओं के बीच बहस जारी है। अंतिम समाधान इस बात पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालेगा कि भारत व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा और लोकतांत्रिक शासन के लिये आवश्यक सशक्त लोक संवाद के संरक्षण के बीच के तनाव को कैसे पार करता है। विधिक समुदाय आगे के घटनाक्रमों की प्रतीक्षा कर रहा है क्योंकि यह सांविधानिक प्रश्न संभावित रूप से व्यापक न्यायिक पुनर्विलोकन की ओर बढ़ रहा है।