एडमिशन ओपन: UP APO प्रिलिम्स + मेंस कोर्स 2025, बैच 6th October से   |   ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (प्रयागराज)   |   अपनी सीट आज ही कन्फर्म करें - UP APO प्रिलिम्स कोर्स 2025, बैच 6th October से










होम / मुस्लिम विधि

पारिवारिक कानून

अब्दुल कादिर बनाम सलीमा (1886) ILR 8 ALL 149

    «    »
 07-Aug-2024

परिचय:

मेहर का भुगतान न करने से पति द्वारा दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये आवेदन करने तथा न्यायिक उपचार का दावा करने के अधिकार पर रोक नहीं लगाई जा सकती।

तथ्य:

  • अपीलकर्त्ता और प्रतिवादी एक विवाहित युगल थे तथा अपनी शादी के उपरांत तीन महीने तक एक साथ रह रहे थे।
  • तीन महीने के उपरांत प्रतिवादी अपने पिता के घर चली गई और उसके बाद उसके पिता ने उसे अपने पति के घर वापस जाने की अनुमति नहीं दी।
  • अपीलकर्त्ता ने अपनी पत्नी के पिता से बात करने की कई कोशिशें की, परंतु उसका कोई संपर्क नहीं हुआ।
  • इसके उपरांत अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी और उसके पिता के विरुद्ध दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये वाद दायर किया।
  • इस वाद के प्रतिउत्तर में प्रतिवादी ने भी तलाक की याचिका दायर की, साथ ही क्रूरता और मेहर का भुगतान न करने का भी आरोप लगाया।
  • प्रतिवादियों की पहली दो दलीलें न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दी गईं।
  • न्यायालय ने मेहर का भुगतान न करने के तर्क को महत्त्व दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने न्यायालय के समक्ष मेहर की राशि का भुगतान कर दिया।
  • न्यायालय ने मेहर के भुगतान पर निर्भर, दांपत्य अधिकारों की बहाली के लिये सशर्त निर्णय जारी किया।
  • इस निर्णय से व्यथित होकर दोनों पक्षों ने अपीलीय न्यायालय में अपील की।
  • अपीलीय न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की अपील को इस आधार पर खारिज कर दिया कि दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना के लिये आवेदन करने से पूर्व अपीलकर्त्ता ने मेहर की राशि का भुगतान नहीं किया था और इसलिये वह न्यायिक उपचार की मांग नहीं कर सकता है।
  • मेहर की राशि के दावे की स्वीकार्यता से संबंधित मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय को भेजा गया।

शामिल मुद्दे:

  • क्या मेहर की राशि का भुगतान किये बिना दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये याचिका दायर की जा सकती है?
  • क्या मेहर का भुगतान न करने पर पति न्यायिक उपचार पाने के लिये अयोग्य हो जाता है?

 टिप्पणियाँ:

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि मुस्लिम विवाह एक संस्कार न होकर एक विधिक संविदा है।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय मुंशी बुज़लूर रूहीम बनाम शम्स-उन-निसा बेगम (1867) पर आधारित था।
  • इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पति-पत्नी की एक-दूसरे के प्रति भूमिका और उत्तरदायित्वों को स्पष्ट रूप से बताया।
    • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि पत्नी अपने पति के साथ रहने और यौन संबंध स्थापित करने से तब तक प्रतिषेध कर सकती है जब तक कि उसे तत्काल मेहर का भुगतान नहीं किया जाता।
    • यदि पति-पत्नी के बीच स्वतंत्र सहमति से यौन संबंध स्थापित किया गया है, तो मेहर की राशि के शीघ्र भुगतान पर प्रतिपूर्ति का सशर्त आदेश पारित किया जा सकता है।
    • यह माना गया कि मेहर के भुगतान का बचाव, डिक्री को संशोधित कर सकता है, तथा मेहर की राशि के शीघ्र भुगतान के लिये डिक्री का सशर्त प्रवर्तन कर सकता है।
    • न्यायालय ने दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के वाद को सहवास के पारस्परिक अधिकारों के वाद में परिवर्तित कर दिया।

निष्कर्ष:

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मेहर का भुगतान न करने से पति के दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिये आवेदन करने तथा न्यायिक उपचार का दावा करने के अधिकार पर रोक नहीं लगाई जा सकती है।