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सांविधानिक विधि

जया भट्टाचार्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य (2025)

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 06-Oct-2025

परिचय 

यह सेवा के नियमितीकरण के बाद पेंशन पात्रता और लाभ देने से इंकार करने से पहले विभागीय जांच की आवश्यकता से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है। 

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की दो न्यायाधीशों वाली न्यायपीठ ने सुनाया। 

तथ्य 

यह मामला एक सरकारी कर्मचारी के लंबे समय तक सेवा से अनुपस्थित रहने के बाद पेंशन पाने के अधिकार से संबंधित है। मुख्य तथ्य इस प्रकार हैं: 

पृष्ठभूमि: 

  • जया भट्टाचार्य को 20 मार्च 1986 को झारग्राम के खंड विकास अधिकारी कार्यालय में एल.डी. सहायक के रूप में नियुक्त किया गया था। 
  • वह पहले 107 दिनों तक तथा फिर 29 जून 1987 से 12 जुलाई 2007 तक ड्यूटी से अनुपस्थित रहीं। 
  • उन्होंने दावा किया कि ड्यूटी पर आने का प्रयास करने के बावजूद उन्हें उपस्थिति रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने से रोका गया। 

प्रशासनिक कार्रवाई: 

  • 15 जून 1987 को अनाधिकृत अनुपस्थिति के लिये कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। 
  • अपीलकर्त्ता ने मई 1987 से कार्यभार ग्रहण करने से इंकार करने तथा वेतन का संदाय न करने का आरोप लगाते हुए कई परिवाद दर्ज कराए 

अधिकरण की कार्यवाही: 

  • राज्य प्रशासनिक अधिकरण ने 24 नवंबर 2000 को मामले का निपटारा करते हुए कहा कि कोई विभागीय कार्यवाही शुरू नहीं की गई है। 
  • इस आदेश को उच्च न्यायालय ने चुनौती दी और मामले को वापस ले लिया। 
  • रिमांड पर, अधिकरण ने 1 दिसंबर, 2003 को कलेक्टर को अपीलकर्त्ता के आरोपों के संबंध में विभागीय जांच करने का निदेश दिया कि उसे कार्यभार ग्रहण करने के बावजूद कार्य करने की अनुमति नहीं दी गई। 
  • उच्च न्यायालय ने 2004 के WP No. 278 में प्राधिकारियों को निदेश दिया कि वे अपीलकर्त्ता को अपना काम फिर से शुरू करने की अनुमति दें। 

नियमितीकरण (Regularization): 

  • 19 मई 2011 को अपीलकर्त्ता की 29 जून 1987 से 12 जुलाई 2007 तक की अनुपस्थिति को असाधारण अवकाश माना गया। 
  • उसकी सेवा को पश्चिम बंगाल सेवा (मृत्यु-सह-सेवानिवृत्ति लाभ) नियम, 1971 के नियम 175 और नियम 176(4) के अनुसार नियमित किया गया। 
  • उसे बताया गया कि अनुपस्थिति की अवधि के दौरान उन्हें अवकाश वेतन नहीं मिलेगा। 
  • उसे 13 जुलाई 2007 को पुनः कार्यभार ग्रहण करने की अनुमति दी गई।  

पेंशन विवाद: 

  • अपीलकर्त्ता ने पेंशन और सेवानिवृत्ति लाभ की मांग करते हुए अधिकरण के समक्ष O.A. संख्या 1347/2012 दायर किया। 
  • अधिकरण ने निष्कर्ष निकाला कि असाधारण अवकाश को पेंशन प्रयोजनों के लिये अर्हक सेवा नहीं माना जा सकता। 
  • अधिकरण ने कहा कि चूँकि असाधारण अवकाश पश्चिम बंगाल सेवा नियम, 1971 के नियम 28क के अधीन सूचीबद्ध आधारों पर प्रदान नहीं किया गया था, इसलिये वह पेंशन की हकदार नहीं थी। 
  • इस आदेश को चुनौती देने वाली बाद की रिट याचिका को अभियोजन न होने के कारण खारिज कर दिया गया, साथ ही उनकी समीक्षा आवेदन और बहाली याचिका को भी खारिज कर दिया गया। 
  • यह मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुँचने से पहले लगभग 25 वर्षों तक लंबित रहा। 

सम्मिलित विवाद्यक  

  • क्या अधिकरण द्वारा निदेशित विभागीय जांच के अभाव से अपीलकर्त्ता के विरुद्ध की गई कार्रवाई की वैधता प्रभावित हुई? 
  • क्या अनुपस्थिति की अवधि को असाधारण अवकाश मानकर सेवा का नियमितीकरण करने से अपीलकर्त्ता को पेंशन लाभ का हकदार माना जाएगा? 
  • क्या अनिवार्य विभागीय जांच किये बिना पेंशन लाभ से इंकार किया जा सकता है? 
  • क्या विभागीय जांच के अभाव में अपीलकर्त्ता के काम करने से रोके जाने के दावे के संबंध में सबूत का भार अपीलकर्त्ता पर डाला जा सकता है? 

न्यायालय की टिप्पणियां  

विभागीय जांच करने में असफलता के संबंध में: 

  • न्यायालय ने पाया कि अधिकरण के 1 दिसंबर, 2003 के आदेश के होते हुए भी, जिसमें कलेक्टर को अपीलकर्त्ता के आरोपों के संबंध में विभागीय जांच करने का निदेश दिया गया था, प्राधिकारियों द्वारा ऐसी कोई जांच कभी नहीं की गई। 
  • न्यायालय ने माना कि अधिकरण के स्पष्ट निदेश के होते हुए भी अपीलकर्त्ताको बिना किसी विभागीय जांच के "अनसुना" दोषी ठहराया गया। 
  • न्यायालय ने कहा कि बाद की कार्यवाहियों में अधिकरण या उच्च न्यायालय द्वारा की गई यह टिप्पणी कि अपीलकर्त्ता यह प्रदर्शित करने में असफल रही कि उसे अपने कर्त्तव्यों का पालन करने से रोका गया था, प्रत्यर्थियों के लिये लाभकारी नहीं होगी, क्योंकि यह तथ्य केवल उचित रूप से गठित विभागीय जांच के माध्यम से ही स्थापित किया जा सकता है। 

सबूत के भार के संबंध में: 

  • न्यायालय ने कहा कि अधिकरण के आदेश के अनुसार जांच करने में प्रत्यर्थियों की असफलता से अपीलकर्त्ता पर यह साबित करने का भार नहीं डाला जा सकता कि उसे काम करने से रोका गया था। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रत्यर्थी अपीलकर्त्ता को पेंशन देने से केवल तभी इंकार कर सकते थे जब वे जांच के माध्यम से यह साबित कर देते कि वह उक्त अवधि के दौरान अनाधिकृत रूप से अनुपस्थित थी, न कि उसके विरुद्ध जांच करने से इंकार करके। 

नियमितीकरण और पेंशन पात्रता के संबंध में: 

  • न्यायालय ने कहा कि जब अनुपस्थिति को असाधारण अवकाश मानकर सेवाओं को नियमित कर दिया गया तो उसी अवधि को पेंशन लाभ से वंचित करने के लिये अनधिकृत अवकाश नहीं माना जा सकता। 
  • न्यायालय ने कहा कि किसी कर्मचारी को पेंशन लाभ देने से इंकार करना, सरकार को ऐसा इंकार करने का अधिकार देने वाले नियम से उत्पन्न होना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि एक बार असाधारण अवकाश प्रदान करके अनुपस्थिति की अवधि के दौरान उसकी सेवा को नियमित कर देने के बाद, यह नहीं माना जा सकता कि उक्त अवधि को सेवा में विराम माना जा सकता है। 

अंतिम निर्णय: 

  • मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, 25 वर्षों के लंबित मामले और सेवा के नियमितीकरण पर विचार करते हुए, न्यायालय ने माना कि अपीलकर्त्ता पेंशन का हकदार होगा। 
  • न्यायालय ने प्रत्यर्थी प्राधिकारियों को तीन महीने के भीतर अपीलकर्त्ता की पेंशन को अंतिम रूप देने का निदेश दिया। 
  • यद्यपि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अपीलकर्त्ता किसी भी बकाया राशि का हकदार नहीं होगा। 

निष्कर्ष 

यह एक महत्त्वपूर्ण निर्णय है जो सेवा मामलों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के महत्त्व और सेवा के नियमितीकरण के परिणामों पर प्रकाश डालता है। 

निर्णय में यह स्थापित किया गया है कि अधिकारी अनिवार्य जांच किये बिना सेवा नियमित करने के बाद लाभ देने से इंकार नहीं कर सकते हैं, तथा प्रक्रियागत खामियों का उपयोग कर्मचारियों पर सबूत का भार डालने के लिये नहीं किया जा सकता है।