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सांविधानिक विधि
सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद एवं अन्य (2025)
«18-Aug-2025
परिचय
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह द्वारा दिये गए इस ऐतिहासिक उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने प्रत्यर्थी विधान परिषद द्वारा याचिकाकर्त्ता को निष्कासित करने के निर्णय को रद्द कर दिया, तथा मुख्यमंत्री के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणियों के लिये स्थायी निष्कासन के दण्ड को " अत्यंत कठोर" और "अनुपातहीन" माना, साथ ही विधायी निर्णयों के न्यायिक पुनर्विलोकन पर महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित किये।
तथ्य
- फरवरी 2024 में बजट सत्र के दौरान, विपक्ष के मुख्य सचेतक के रूप में कार्यरत याचिकाकर्त्ता ने कथित तौर पर मुख्यमंत्री के विरुद्ध अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया और विधान परिषद में उनकी नकल की।
- याचिकाकर्ता के आचरण के अन्वेषण के लिये आचार समिति का गठन किया गया था। 12 जून 2024 को समिति के अध्यक्ष ने याचिकाकर्त्ता को सूचित किया कि कार्यवाही प्रारंभिक चरण में है।
- दो दिनों के भीतर, 14 जून 2024 को, समिति ने स्थायी निष्कासन की सिफारिश करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस पर 7 में से केवल 4 सदस्यों ने हस्ताक्षर किये।
- याचिकाकर्त्ता ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन का अभिकथन किया तथा दावा किया कि उसे सुसंगत वीडियो रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं कराई गई तथा निष्कासन के दौरान उसे बोलने का अवसर भी नहीं दिया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने विभेदकारी व्यवहार का आरोप लगाया, क्योंकि उनके सहयोगी विधान परिषद के सदस्य (MLC) को समान भाषा के लिये केवल 2 दिन का निलंबन मिला, जबकि उन्हें स्थायी निष्कासन का सामना करना पड़ा।
- प्रत्यर्थी परिषद ने समिति की सिफ़ारिश पर कार्रवाई की और बिहार विधान परिषद की प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमावली के नियम 290 की धारा 10(घ) के अधीन याचिकाकर्त्ता को स्थायी रूप से निष्कासित कर दिया।
- निर्वचन आयोग ने रिक्त पद को भरने के लिये उपचुनाव की अधिसूचना जारी कर दी। याचिकाकर्त्ता ने अपने निष्कासन को अवैध और असांविधानिक बताते हुए रिट याचिका (C) संख्या 530/2024 दायर की।
- उच्चतम न्यायालय ने अगस्त 2024 में नोटिस जारी किया, जनवरी 2025 में उपचुनाव के परिणाम रोकने का निदेश दिया और 25 फरवरी 2025 को मामले का निर्णय सुनाया।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या विधायी निर्णय संविधान के अनुच्छेद 212 के अंतर्गत न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन हैं।
- क्या आचार समिति के निर्णय विधायी कार्यों के अंतर्गत आते हैं जो न्यायिक पुनर्विलोकन से मुक्त हैं।
- क्या स्थायी निष्कासन आनुपातिक था और क्या न्यायालय ऐसी आनुपातिकता का पुनर्विलोकन कर सकते हैं।
- क्या याचिकाकर्त्ता को समिति की कार्यवाही में निष्पक्ष सुनवाई और उचित प्रक्रिया से वंचित किया गया था।
- क्या अनुपातहीन दण्ड निर्वाचक मण्डल के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- क्या उच्चतम न्यायालय दण्ड के स्थान पर अनुच्छेद 142 की शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति सूर्यकांत के मुख्य निर्णय:
- विधायी निर्णयों के न्यायिक पुनर्विलोकन पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया गया है, जिससे उन्हें विधायी कार्यवाहियों से अलग किया जा सके। अनुच्छेद 212 का प्रतिबंध विधायी निर्णयों पर लागू नहीं हो सकता है, जिससे विधायी अधिकारिता का अतिक्रमण किये बिना न्यायालय की अधिकारिता स्थापित होती है।
- यह माना गया कि आचार समिति के निर्णय मूल विधायी कार्यों का भाग नहीं हैं और इसलिये न्यायिक पुनर्विलोकन से मुक्त नहीं हैं, जिससे सांविधानिक निरीक्षण का दायरा बढ़ गया है।
- यह स्थापित किया गया कि न्यायालय विधान परिषद् के दण्ड की आनुपातिकता का पुनर्विलोकन कर सकते हैं, क्योंकि अनुपातहीन दण्ड लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है तथा निर्वाचक मण्डल के अधिकारों को प्रभावित करता है।
- याचिकाकर्त्ता के व्यवहार को "घृणित" और "अनुचित" बताते हुए इस बात पर बल दिया गया कि विधान परिषद को दण्ड निर्धारित करने में उदारता बरतनी चाहिये थी और अधिक संतुलित उपाय अपनाने चाहिये थे।
- स्थायी निष्कासन अत्यधिक और असंगत था, जो याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकारों और उनके द्वारा प्रतिनिधित्व किये जाने वाले निर्वाचक मण्डल के अधिकारों का उल्लंघन करता था।
न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की टिप्पणियाँ :
- माननीय न्यायमूर्ति सूर्यकांत द्वारा दण्ड की अनुपातहीनता के संबंध में प्रस्तुत विश्लेषण से पूर्णतः सहमति व्यक्त की।।
- यह प्रतिपादित किया कि विधायी अनुशासन बनाए रखते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा किया जाना अत्यावश्यक है।
- यह स्पष्ट किया कि अनुपातहीन दण्ड न केवल निर्वाचित प्रतिनिधि के अधिकारों, अपितु निर्वाचक मण्डल के लोकतांत्रिक अधिकारों को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है।
न्यायालय के निदेश:
- प्रत्यर्थी विधान परिषद के स्थायी निष्कासन निर्णय को अपास्त किया जाए।
- याचिकाकर्त्ता द्वारा पहले ही सात महीने का निष्कासन झेलने को निलंबन और उचित दण्ड माना गया।
- निर्वाचन आयोग की उपचुनाव अधिसूचना रद्द कर दी गई।
- याचिकाकर्त्ता को भविष्य में अपमानजनक टिप्पणी करने के प्रति आगाह किया गया।
- मामले को वापस भेजने के बजाय दण्ड देने के लिये अनुच्छेद 142 की शक्तियों का प्रयोग किया गया।
- स्पष्ट निर्णय याचिकाकर्त्ता के निंदनीय आचरण को उचित नहीं ठहराता है।
स्थापित सिद्धांत:
- विधायी निर्णय, कार्यवाही के विपरीत, न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन होते हैं तथा अनुच्छेद 212 के अधीन पूर्णतः संरक्षित नहीं होते हैं।
- न्यायालय लोकतांत्रिक सिद्धांतों के साथ संरेखण सुनिश्चित करने के लिये विधायी दण्ड की आनुपातिकता का पुनर्विलोकन कर सकते हैं।
- विधायी समितियों को सदस्यों के विरुद्ध कार्यवाही करते समय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना चाहिये।
- निर्वाचित प्रतिनिधियों को अनुचित दण्ड देना निर्वाचक मण्डल के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- विधायी निकायों को सदस्यों के दुर्व्यवहार के प्रति संतुलित एवं आनुपातिक प्रतिक्रिया अपनानी चाहिये।
निष्कर्ष
यह ऐतिहासिक निर्णय यह स्थापित करता है कि विधायी निर्णय अनुच्छेद 212 के अंतर्गत न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन हैं, जो उन्हें विधायी कार्यवाहियों से अलग करता है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधायी दण्डों की आनुपातिक समीक्षा न्यायिक अधिकारिता में है, जबकि विधायी स्वायत्तता को सांविधानिक निरीक्षण के साथ संतुलित किया गया है। यह निर्णय इस बात पर बल देता है कि विधायी निकायों को सांविधानिक मूल्यों के अनुसार आनुपातिक रूप से शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि संसदीय स्व-नियमन सांविधानिक सीमाओं के भीतर संचालित हो और व्यक्तिगत और लोकतांत्रिक दोनों अधिकारों की रक्षा करे।