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सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80

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 11-Aug-2025

ओडिशाराज्य वित्तीय निगम बनाम विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज और अन्य 

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 सूचना की तामील न होने पर डिक्री अकृत हो जाती है, और निष्पादन न्यायालय को निष्पादन कार्यवाही के दौरान ऐसे अभिवचन पर विचार करना चाहिये।” 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन नेनिर्णय दिया कि किसी डिक्री के अकृत होने का अभिवचन निष्पादन कार्यवाही के दौरान उठाया जा सकता है, और निष्पादन न्यायालय कोसिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) कीधारा 47 के अधीन गुण-दोष के आधार पर इसका निर्णय करना चाहिये 

  • उच्चतम न्यायालय ने ओडिशाराज्य वित्तीय निगम बनाम विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

ओडिशा राज्य वित्तीय निगम बनाम विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज एवं अन्य, (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी  

  • अपीलकर्त्ता, ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने ओडिशा औद्योगिक संवर्धन एवं निवेश निगम (Industrial Promotion & Investment Corporation of Odisha (IPICOL)) के साथ मिलकर 22 नवंबर 1984 को मेसर्स मनोरमा केमिकल्स वर्क्स लिमिटेड को गंजम, ओडिशा में ब्लीचिंग पाउडर संस्था स्थापित करने के लिये संयुक्त रूप से वित्तपोषित किया। 
  • मेसर्स विज्ञान केमिकल इंडस्ट्रीज लिमिटेड देहरादून (प्रत्यर्थी संख्या 1) ने 29 जुलाई 1985 को मनोरमा केमिकल्स को 66,454.65 रुपए मूल्य का कच्चा माल आपूर्ति किया, किंतु मनोरमा केमिकल्स ने भुगतान दायित्त्वों में व्यतिक्रम किया 
  • मनोरमा केमिकल्स द्वारा वित्तीय सहायता चुकाने में असफल रहने के कारण, ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने राज्य वित्तीय निगम अधिनियम, 1951 की धारा 29 के अधीन 18.08.1987 को औद्योगिक संस्था का कब्जा ले लिया। 
  • प्रत्यर्थी संख्या 1 ने द्वितीय अपर सिविल न्यायाधीश, देहरादून के न्यायालय में मनोरमा केमिकल्स और अन्य के विरुद्ध 24% प्रति वर्ष ब्याज के साथ 90,400/- रुपए का दावा करते हुए 1988 में वसूली वाद संख्या 103 दायर किया।  
  • तत्पश्चात, 11 फरवरी 1993 को ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) को प्रतिवादी संख्या 4 के रूप में पक्षकार बनाया गया, जिसे 6 दिसंबर 1994 को विचारण न्यायालय द्वारा अनुमति दे दी गई, जबकि ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने विविध अपील और रिट याचिका के माध्यम से आपत्तियाँ व्यक्त की थीं। 
  • विचारण न्यायालय ने 20.08.2001 को आंशिक रूप से वाद का निपटारा करते हुए ₹84,170/- की डिक्री पारित की, जिसमें 01 मार्च 1988 से 23 सितम्बर 1992 तक प्रतिवर्ष 24% की दर से लंबित वाद एवं भविष्य का ब्याज तथा 23.09.1992 से संदाय की तिथि तक प्रति माह 2% चक्रवृद्धि ब्याज सम्मिलित था।  
  • ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) ने कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान कुल 9,86,243/- रुपए (1998 में 6,36,243/- रुपए तथा 1999 में 3,50,000/- रुपए) की दो बैंक गारंटिया प्रस्तुत की थीं, जिन्हें तत्पश्चात नकद कर लिया गया 
  • लगभग चार दशकों तक चली अनेक अपीलों और विधिक चुनौतियों के होते हुए भी, निष्पादन की कार्यवाही जारी रही, जिसमें ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) को लगभग 22 करोड़ रुपए मूल्य के बैंक खातों और परिसंपत्तियों की कुर्की का सामना करना पड़ा, जिससे कुल राशि बढ़कर 8,89,33,416.30 रुपए हो गई। 
  • इस मामले में ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) के विरुद्ध वाद की स्थिरता, लघु एवं सहायक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदाय पर ब्याज अधिनियम, 1993 की प्रयोज्यता, तथा सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन अनिवार्य प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अनुपालन से संबंधित मूलभूत प्रश्न सम्मिलित थे। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि राज्य के स्वामित्व वाली संस्था के विरुद्ध वाद संस्थित करने से पहले सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन सूचना देने की अनिवार्य आवश्यकता का पालन नहीं किया गया था, जिससे डिक्री अकृत हो गई और सिविल प्रक्रिया संहित की धारा 47 के अधीन निष्पादन कार्यवाही के दौरान चुनौती दी जा सकती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 80 के अधीन सूचना देने में विचारण न्यायालय की असफलता ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) के विरुद्ध वाद स्वीकार करने की उसकी अधिकारिता के मूल में जाती है, क्योंकि ऐसी पूर्व शर्तों को सिविल विवादों में अनिवार्य माना जाता है, जहाँ सांविधि में ऐसा विहित किया गया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि लघु एवं सहायक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदाय पर ब्याज अधिनियम, 1993 लागू नहीं होता, क्योंकि कच्चे माल की आपूर्ति 1985 में हुई थी, जो कि अधिनियम के 23.09.1992 को लागू होने से काफी पहले की बात है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ओडिशा राज्य वित्तीय निगम (OSFC) की प्रत्यर्थी संख्या 1 के साथ कोई संविदा नहीं थी, तथा इसका दायित्त्व राज्य वित्तीय निगम अधिनियम, 1951 की धारा 29 के अधीन परिकल्पित सीमा तक ही सीमित था, जो कि केवल उसके बकाया के समायोजन के बाद प्राप्त आय का न्यासी था। 
  • न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय ने स्थिरता, अधिकारिता और परिसीमा से संबंधित विवाद्यकों को विरचित करने में असफल रहने तथा अधिकारिता के मूल तक जाने वाले इन आधारभूत प्रश्नों पर निष्कर्ष न देने के कारण एक मौलिक त्रुटि की है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने मुकदमेबाजी के तरीके को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया, तथा कहा कि लोक धन के प्रबंधन का उत्तरदायित्त्व जिन लोक संस्थाओं को सौंपा गया है, उन्हें विधिक कार्यवाही में तत्परता और जवाबदेही के उच्चतम मानकों को बनाए रखना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रक्रियागत अनुपालन केवल औपचारिकता नहीं है, अपितु यह राज्य के संस्थानों और सरकारी खजाने के हितों की रक्षा के लिये बनाया गया एक ठोस सुरक्षा उपाय है, विशेषकर तब जब करोड़ों रुपए का लोक धन दांव पर लगा हो। 
  • उच्चतम न्यायालय ने इस आदेश को अप्रवर्तनीय घोषित कर दिया तथा प्रत्यर्थी संख्या 1 को बैंक प्रत्याभूति नकदीकरण और जमा कुर्की के माध्यम से प्राप्त 2,92,57,559 रुपए की राशि, बिना ब्याज के, तीन महीने के भीतर वापस करने का निदेश दिया। 
  • न्यायालय ने विधि के शासन को कायम रखने तथा निष्पक्षता और न्याय की रक्षा करने के लिये, आदेशों की जांच करने तथा उनकी नींव को कमजोर करने वाली विधिक कमियों को दूर करने के लिये निष्पादन के चरण में भी हस्तक्षेप करने के अपने कर्त्तव्य पर बल दिया। 

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 क्या है? 

  • अनिवार्य सूचना की आवश्यकता: सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 में यह अनिवार्य किया गया है कि सरकार या किसी लोक अधिकारी के विरुद्ध उनकी आधिकारिक क्षमता में पूर्व लिखित सूचना दिये बिना और ऐसी सूचना दिये जाने के दो मास बाद तक इंतजार किये बिना कोई वाद संस्थित नहीं किया जाएगा। 
  • सूचना प्राप्तकर्ता: सूचना विशिष्ट प्राधिकारियों को दी जानी चाहिये - केंद्र सरकार के वादों के लिये उस सरकार सचिव को, रेलवे से संबंधित मामलों के लिये प्रधान प्रबंधक को, जम्मू और कश्मीर सरकार के लिये मुख्य सचिव को, तथा अन्य राज्य सरकारों के लिये सचिव या जिला कलेक्टर को। 
  • सूचना की विषय-वस्तु: लिखित सूचना में वाद-हेतुक, वादी का नाम, विवरण और निवास स्थान तथा प्रस्तावित वाद से मांगे गए विनिर्दिष्ट अनुतोष का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिये 
  • दो मास की प्रतीक्षा अवधि: सूचना देने के पश्चात्, वादी को वाद संस्थित करने से पूर्व दो मास की अवधि समाप्त होने तक प्रतीक्षा करनी होगी, जिससे सरकार को मामले पर विचार करने और मुकदमेबाजी के बिना संभावित रूप से समाधान करने का समय मिल जाएगा। 
  • वादपत्र की आवश्यकताएँ: वादपत्र (औपचारिक परिवाद) में एक विशिष्ट कथन होना चाहिये जिसमें यह घोषित किया गया हो कि अनिवार्य सूचना विधि द्वारा अपेक्षित रूप से उचित कार्यालय में उचित रूप से वितरित या छोड़ दी गई है। 
  • अत्यावश्यक अनुतोष के लिये अपवाद: उपधारा (2) में एक अपवाद का उपबंध है जिसके अधीन अत्यावश्यक या तत्काल अनुतोष के लिये वाद न्यायालय की अनुमति से बिना पूर्व सूचना दिये संस्थित किया जा सकता है, किंतु सरकार को कारण बताने का उचित अवसर दिये बिना अनुतोष प्रदान नहीं किया जा सकता 
  • न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति: जब बिना सूचना के तत्काल अनुतोष मांगा जाता है, तो न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि यदि वह यह अवधारित करता है कि तत्काल अनुतोष की आवश्यकता नहीं है, तो वह सूचना की आवश्यकताओं का अनुपालन करने के पश्चात् वादपत्र को पुनः प्रस्तुतीकरण के लिये वापस कर सकता है। 
  • तकनीकी दोषों के विरुद्ध संरक्षण: उपधारा (3) यह सुनिश्चित करती है कि वाद को केवल सूचना में त्रुटि या दोष के कारण खारिज नहीं किया जाएगा, बशर्ते कि वादी की पहचान स्पष्ट हो और वाद का कारण तथा अनुतोष पर्याप्त रूप से इंगित किया गया हो। 
  • पर्याप्त अनुपालन सिद्धांत: यह प्रावधान पर्याप्त अनुपालन के सिद्धांत का पालन करता है, जिसका अर्थ है कि सूचना में मामूली तकनीकी त्रुटियों के कारण वाद अमान्य नहीं होगा, यदि आवश्यक आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं और सरकार परिवादकर्त्ता की पहचान कर सकती है। 
  • अधिकारिता सुरक्षा: धारा 80 एक अधिकारिता सुरक्षा के रूप में कार्य करती है जो सरकारी संस्थाओं को तुच्छ मुकदमेबाजी से बचाती है, साथ ही यह सुनिश्चित करती है कि औपचारिक विधिक कार्यवाही शुरू होने से पहले उन्हें शिकायतों का समाधान करने का पर्याप्त अवसर मिले।